Monday, 14 January 2019

166. दांव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज

दो जासूसों की टक्कर।
दांव-खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज। जासूसी उपन्यास

नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेला  2019 के दौरान गुल्ली बाबा पब्लिकेशन द्वारा 06.01.2019 को वेदप्रकाश कंबोज जी के दो उपन्यास 'दांव- खेल' और 'पासे पलट गये' के संयुक्त संस्करण का विमोचन किया गया। विवरण यहाँ देखें- विश्व पुस्तक मेला- 2019                   
       इस अवसर पर हम मित्रगण भी उपस्थित थे। पुस्तक मेले से काफी पुस्तकें ली। यह उपन्यास तो खेर लेना ही था, क्योंकि वेदप्रकाश कांबोज जी द्वारा हम आमंत्रित भी थे।
                  
     वेदप्रकाश कांबोज का उपन्यास 'दांव खेल, पासे पलट गये' एक अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर आधारित उपन्यास है। भारत की प्रगति को सहन न करने वाले देश भारत के आगामी विकास कार्य को समझना चाहते हैं। उसकी योजना को खत्म करना चाहते हैं।
आर्यभट।
भारतीय तकनीशियनों द्वारा रूस के सहयोग से निर्मित संतति में छोड़ा गया भारत का पहला उपग्रह।
          चीनी जासूसों को भारत के इस प्रयास के बारे में काफी देर जानकारी मिली थी और जब उन्हें इस प्रयास के बारे में जानकारी मिली तो वे कुछ नहीं कर सकते थे।
(पृष्ठ-06)
          एक बार फिर चीन को एक जानकारी मिली। "एक भारतीय शिष्टमंडल मॉस्को गया हुआ है"- चीनी बाॅस ने कहा-" ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत और रूस केcomबीच फिर कोई गुप्त समझौता होने जा रहा है........अगर ऐसा है तो हमें यह मालूम होना चाहिए कि उसकी योजना क्या है।"(पृष्ठ-08)
               इस बार भारत और रूस की जो भी योजना थी उसकी डील इरान में होनी थी। इस डील के भारतीय जासूसी विजय को नियुक्त किया गया। वहीं चीन इस डील की तह तक पहुचना चाहता था, चीन ने अपना जासूस हुचांग मैदान में उतारा।
       दोनों तरफ खतरनाक, धुरंधर और चालबाज जासूस हैं। दोनों ही एक दूसरे की शक्ति को जानते हैं। दोनों चाल पर चाल चलते हैं। दोनों को पता है जरा सी गलती पासे पलट कर रख देगी।
हुचांग दाँव खेलना चाहता था। लेकिन जब तक दुश्मन की शक्ति के बारे में मालूम न हो तब तक दाँव खेलना भी मूर्खता थी। (पृष्ठ-57)
               हुचांग,  विजय की शक्ति को पहचानता है। इसलिए उसने विजय को फंसाने के लिए चाल चल दी। लेकिन विजय भी किसी से कम न था। उसने भी चाल पर चाल चल दी। ऐसी चाल जो हुचांग के लिए भी खतरा बन गयी।
  हुचांग को लगा जैसे उसने जो जाल विजय को फँसाने के लिए तैयार किया था, उसमें वह स्वयं ही  उलझकर रह गया था। (पृष्ठ-58)
          लेकिन कम हुचांग भी न था, स्वयं विजय भी उसका लोहा मान गया। इसलिए तो विजय को कहना पड़ा तो   "....मैंने वास्तव में यह नहीं सोचा था कि यह आदमी इतना भारी निकलेगा कि हम सभी के पर काटके रख देगा।(पृष्ठ-193)
             हुचांग विजय के अकेले के बस का रोग न था‌ इसलिए विजय ने दो और साथी साथ लिए। एक तातारी और दूसरा कबाड़ी। दोनों एकदम जाहिल और मूर्ख से, बस नजर आते हैं। पर हैं दोनों रोचक आदमी। नमूना देख लीजिएगा-
"जी हाँ मैं शादी-शुदा कुँवारा हूँ।" तातारी बोला "और शादी-शुदा कुँवारा वैसे भी कुँवारे से अधिक बेचारा होता है।" (पृष्ठ-105)
 
- क्या सौदा था रूस और भारत के बीच?
- क्या हुचांग इस डील की जानकारी ले पाया?
- कबाड़ी और तातारी की वास्तविकता क्या थी?
- विजय और हुचांग की टक्कर का क्या परिणाम रहा ?

     इन प्रश्नों के उत्तर तो प्रस्तुत उपन्यास को पढकर ही मिल सकते हैं।
          उपन्यास का घटनाक्रम दो जासूस विजय और हुचांग की टक्कर और उनकी चालकियों पर आधारित हैं। दोनों जासूस एक दूसरे को जैसे टक्कर देते हैं, कैसे सफलता और असफलता से जूझते हैं।
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     उपन्यास का विस्तार बहुत ज्यादा है।‌ भारत और रूस का सौदा इरान में होना तय है और चीनी जासूस उनके पीछे हैं। कथानक इरान से निकल कर अफगानिस्तान और तुर्की तक जा पहुंचता है। कहां अफगानिस्तान, कहाँ तेहरान और कहाँ तबरिज। (पृष्ठ-118)
        उपन्यास का आरम्भ एक अच्छे कथानक से होता है लेकिन उपन्यास जैसे-जैसे आगे बढता है वैसे-वैसे ही कथानक कमजोर और धीमा होता जाता है। नायक से हटकर सह नायक कबाड़ी और तातारी पर आश्रित हो जाता है।
          उपन्यास में कोई रोचक प्रसंग नहीं जो कमजोर कथानक को सहारा से सके। अनावश्यक विस्तार भी कथानक का और नीरस बना देता है जिस पर तातारी और कबाड़ी के नीरस प्रसंग उपन्यास को आगे बढने ही नहीं देते।
             
निष्कर्ष-  
              यह उपन्यास वेदप्रकाश जी के दो उपन्यास 'दांव खेल' और 'पासे पलट गये' का संयुक्त संस्करण है। उपन्यास मूलतः एक छोटे से कथानक पर आधारित है, जिसे अनावश्यक विस्तार देकर खींचा गया है। आदि से अंत तक कहीं कोई रोचकता नहीं है।
           उपन्यास मनोरंजन के दृष्टि से पढा जा सकता है।
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उपन्यास-  दांव खेल, पासे पलट गये
लेखक-    वेदप्रकाश कांबोज
प्रकाशक- गुल्ली बाबा पब्लिकेशन
पृष्ठ-         215
मूल्य-       199₹
ISBN-      978-93-88149-52-2
Site-        gullybaba.com
लेखक-      vedprajashkamboj39@gmail.com
वेदप्रकाश कांबोज जी के साथ। उपन्यास विमोचन पर
उपन्यास का पुराना संस्करण
         

1 comment:

  1. मुझे यह उपन्यास काफी बढ़िया लगा था😁 कैसे एक कमरे में रहकर विजय ने पूरे खेल के पांसे पलट दिए हा एंडिंग में एक कमी थी जो मुझे हजम नही हुई थी बस अंत करना था सो कर दिया।

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