Tuesday, 31 January 2017

17. पहला अध्यापक- चिंगीज आइत्मातोव

एक सच्चे कम्युनिस्ट की कहानी।
पहला अध्यापक- चिंगीज आइत्मातोव
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सरकार के खिलाफ नारेबाजी करना...
हङताल करना...
लाल झण्डा लहराना...
क्रांतिकारी भाषण देना...
क्या यही निशानी है एक कम्युनिस्ट की?
पर इनसे अलग हटकर भी एक कम्युनिस्ट है, सच्चा कम्युनिस्ट, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान वह है- दूइशेन।
चिंगीज आइत्मातोव के उपन्यास 'पहला अध्यापक' का नायक है दूइशेन।
एक सच्चा कम्युनिस्ट है - दूइशेन।
लेलिन का अनुयायी है- दूइशेन।
"अरे आप दूइशेन को नहीं जानते । बङा कानून-कायदे का आदमी है। अपना काम पूरा करने के बाद ही वह किसी दूसरी चीज में दिलचस्पी लेता है।"
            इस लघु उपन्यास की कहानी कई स्तरों से होकर गुजरती है।
एक है दूइशेन, जिसके बारे में यह कहानी है। दूसरी है आल्तीनाई सुलैमानोव्ना, जो कहानी को कहती है। तीसरा वह शख्स जिसे आल्तीनाई यह कहानी बताती है, और चौथा है पाठक जो इस मार्मिक कहानी में डूब जाता है।
कहानी का आरम्भ होता है रूस के एक छोटे से गाँव कुरकुरेव से।
सन् 1923 ईस्वी।
"हमारी बस्ती में एक अपरिचित सा युवक आया, जिसने फौजियों का ग्रेटकोट पहन रखा था"
यह युवक था दूइशेन जो इस गाँव के लोगों को शिक्षित करना चाहता था, ताकि लोग शोषण के विरुद्ध खङे हो सके, ताकि लोग सोवियत संघ के विकास में सहयोगी बन सकें, ताकि लोग अच्छा जीवन जी सकें।
पर लोगों को शिक्षा से कोई मतलब न था।
सातिमकूल ने आँखें सिकोङते हुए कहा, -"बताओ तो, हमें इसकी, इस स्कूल की जरूरत ही क्या है?"
"हम किसान हैं, मेहनत करके जिंदगी बसर करते हैं, हमारी कुदाल हमें रोटी देती है।हमारे बच्चे भी इसी तरह जिंदगी बसर करेंगे। उन्हें पढने-लिखने की कोई जरूरत नहीं ।"
      लेकिन दुइशेन के अथह प्रयासों से स्कूल बना, जिसे लोग 'दूइशेन का स्कूल' कहने लगे।  स्कूल के बच्चों में एक अथान बच्ची है आल्तीनाई । अपने चाचा-चाची के पास रहती है, और चाची के दुर्व्यवहार को सहन करती है।
  इस कम्युनिस्ट को दुख है तो बस इस बात की वह कभी लेनिन से मिल नह सका।
"मास्टर जी, आपने कभी लेनिन से हाथ मिलाया था?"
"नहीं बच्चों, मैंने लेनिन को कभी नहीं देखा।"- और अपराधियों की भांति ठण्डी साँस भरी।
एक तरफ है अशिक्षित लोग और उनकी कुप्रथाएं। इसी अशिक्षा के चलते चाची आल्तीनाई का सौदा किसे खानाबदोश व्यक्ति के हाथ कर देती है।
जब दूइशेन ने विरोध किया तो
"उसकी आवाज चीख सी बनकर टूट गयी। उन्होंने दूइशेन का बाजू तोङ दिया। हाथ को छाती के साथ लगाये, दूइशेन पीछे हट गया, पर वे मतवाले, सिरफिरे साँङों की भाँति दहाङते हुए नि:सहाय दूइशेन पर टूट पङे।"
"मारो, मारो, सिर पर मारो, जान से मार डालो!"
        लेकिन दूइशेन के होते यह कहां संभव। वह तो आल्तीनाई के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखता है।
लेकिन दूइशेन खानाबदोश व्यक्ति के चुगल से बचाकर आल्तीनाई को मास्को के विद्यालय में शिक्षार्थ भेज देता है।
वही आल्तीनाई शिक्षा प्राप्त कर एक विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढाती है, विभागाध्यक्ष है। जिसका नाम आज सम्मान से लिया जाता है।
तक ही वह शोषित बन कर जीता है। ऐसा ही एक पात्र है जो परिस्थितियाँ बदलते ही शोषक के खिलाफ खङा हो जाता है।
"चालीस साल तक शायद उसने कभी सिर नहीं उठाया होगा। अब, जैसे कि बाँध टूट गया- " हत्यारे, तूने मेरा खून पिया है, मेरी जिंदगी बरबाद की है! मैं तुझे ऐसे नहीं जाने दूंगी"
उसने उस पर पत्थर दे मारा जिससे उसकी फर की टोपी नीचे गिर गयी ।
वक्त बदला, परिस्थितियाँ बदली और दूइशेन भी बदला, आल्तीनाई भी बदली।
आज कुरकुरेव गाँव में एक विद्यालय का उद्घाटन है। जिसमें आल्तीनाई आमंत्रित है। पर इस का वास्तविक हकदार तो दूइशेन है जिसने इस अशिक्षित गाँव के बच्चों को शिक्षा दी। वही तो सच्चा अध्यापक, वही तो इस गाँव का पहला अध्यापक है। जिसने इस गाँव को शिक्षित किया।
लोग आज दूइशेन के प्रयास, मेहनत को भूल गये। बस उन्हें नहीं भूली तो आल्तीनाई । वह तो टीले पर खङे पोपलर के उन पेङों को निहार रही है, जिन्हें बचपन में उनके अध्यापक ने लगाया था।
"हर प्राणी का अपना वसंत और अपनी पतझङ होती है।"
  प्रस्तुत उपन्यास एक सच्चे कम्युनिस्ट की कहानी बताता है, जो सर्वस्व समर्पण कर सच्चे दिल से अपने कर्तव्य को समर्पित है। जिसके अथक कठिन परिश्रम से गाँव में शिक्षा की ज्योति जलती है।
लोग चाहे उसके समर्पण को भूल गये पर उसके शिष्य आज भी उसे सच्चे दिल से याद करते हैं।
  एक अच्छा उपन्यास, अवश्य पढें।
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उपन्यास- पहला अध्यापक (Duishen)
लेखक- चिंगीज आइत्मातोव
अनुवाद- भीष्म साहनी
पृष्ठ-105.
मूल्य-35₹
हिंदी प्रकाशन -गार्गी प्रकाशन दिल्ली ।
Email- gargiprakashan15gmail@gmail.com
Phone- 9810104481
प्रथम प्रकाशन- सन् 1963 में रादुगा प्रकाशन, मास्को द्वारा सोवियत संघ से प्रकाशित।
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चिंगीज आइत्मातोव के उपन्यास 'पहला अध्यापक' में जिन घटनाओं का जिक्र किया गया है, वे इस शताब्दी के तीसरे दशक में, मध्य एशिया में सोवियत सत्ता के स्थापनाकाल में घटी थी।
(उपन्यास के अंतिम कवर पृष्ठ से)

Friday, 27 January 2017

16. मरुस्थल- मोरिस सिमाश्को

मोरिस सिमाश्को के उपन्यास मरुस्थल की समीक्षा

कमिसार सवीत्स्की सोच में डूबा हुआ जुगनुओं से जगमगाते रेगिस्तान को ताक रहा था। लाल सेना का यह खास फौजी दस्ता आठ दिन-रातों तक रेतीले मैदानों और चलते-फिरते बालू को लाँघता हुआ शत्रुओं के गिरोह का पीछा करता रहा था। आज रात को उस गिरोह के बचे-बचाये लोग एक पुरानी गढी में जा छिपे थे। खास दस्ते ने पौ फटने के समय जब गढी पर हमला किया तो बहुत ठण्डी अफगानी हवा तन्न को सुन्न किये दे रही थी। गढी में दाखिला होने पर उन्हें केवल चले हुए कारतूसों की खाली नलियाँ और कुछ लाशें दिखाई दीं। हत्यारे शमुर्दखान की लाश इसमें नहीं थी। सफेद गार्ड का बासमाच(जमींदार) अपने सहायक, राजनीतिक पुलिस के अफसर दूदनिकोव के साथ गायब हो गया था। हर टिले, हर सूखी झाङी को खोजा गया पर कहीं भी कोई सुराग नहीं मिला। मरुस्थली हवा के सम गति से बहनेवाले झोंकों ने बहुत जल्द ही खाली कारतूसों और लाशों को ढँक दिया.....

सन् 1917 के समय को आधार बना कर मोरिस सिमाश्को द्वारा काल मरुस्थल पर लिखा गया उपन्यास 'मरुस्थल' बहुत रोचक है।
उपन्यास में एक तरफ है चारी हसन जैसा एक सीधा-साधा नौजवान और दूसरी तरफ है शमुर्दखान जैसा अत्याचारी
और है चारों तरफ फैला विस्तार मरुस्थल ।
  चारी हसन जैसा मासूम नौजवान आखिर क्यों विद्रोह पर उतर आता है।
"अल्लाह ने सभी सभी कुछ हमारी जिंदगी के लिए बनाया है। धरती, पानी और हवा तो सभी जानवरों के लिए जरूरी है। वह आदमी सबसे बङा गुनाह करता है, जो दूसरे से खुदा की ये नेमतें छीनना चाहता।"
यही बात चारी हसन को एक बगावत के लिए मजबूर कर देती है।
काले मरुस्थल के बीच बसा है एक छोटा सा गाँव। जहाँ के किसान लोग बङी मुश्किल से अपना जीवन-यापन करते हैं। इसी गाँव का एक अमीर आदमी इल्यासखान लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर लोगों के पानी पर अपना कब्जा जमा लेता है, लोगों की जमीन हथिया लेता है और उनको मजदूर बनाकर रखता है।
  इसी  चाल का शिकार होता है चारी का परिवार और किशोरावस्था में ही चारी इल्यासखान की भेङे चराने लग जाता है। अपना पानी व जमीन गवा देने के बाद तक भी चारी का परिवार इल्यासखान का मजदूर बन कर अपना जीवन यापन करता है। लेकिन इल्यासखान के शैतान पुत्र चारी हसन के पूरे परिवार को मौत के घाट उतार देते हैं।
"इस व्यक्ति के हाथ-पैर बँधे हुए थे। चारी ने चमङे के फीते काटे और लाश को सीधा किया। उसके बूढे बाप हसन की फोङ डाली गयी लहुलुहान आँखें नीले आकाश को ताकती दिखायी दी।"
बस यहीं से नौजवान चारी के दिल में बदले की बदले की आग पैदा हो गयी। मरुस्थल का नियम है खून का बदला खून।
रूसी सेना के लाल जवान मरुस्थल मे शत्रु लोगों के सर्वनाश को निकले हैं।  तब उनसे टकराता है तुर्कमानी नौजवान चारी हसन और रूसी सेना उसे अपने सैनिक दस्ते में शामिल कर लेती हैं।
  चारों  तरफ शमुर्दखान का आतंक है। वह लाल सेना पर हमला भी करता है, पर स्वयं लाल सेना से बच कर भाग जाता है।
लेकिन कब तक भागता.............।
शैतान का अंत तय है।
विशेष- उपन्यास में काले मरुस्थल का जीवंत वर्णन किया गया है। एक-एक दृश्य पाठक के हृदय में उतरता जाता है। मरुस्थल के सामान्य नियमों का वर्णन भी इस लघु उपन्यास में मिलता है।
उपन्यास में वर्णन है मरुस्थल में गरीबी  से जूझते लोगों का और उन पर अत्याचार करते शैतान अत्याचारी लूटेरों का।
अगर पाठक रूसी सेना, मरुस्थल के शत्रुओं, वहाँ के लोगों के जीवन की झलक देखना चाहता है तो यह एक अच्छा उपन्यास है।
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उपन्यास के कुल पाँच अध्याय है।
इसका हिंदी में प्रथम प्रकाशन सन् 2017जनवरी में हुआ है।
उपन्यास- मरुस्थल (Marusthal)   
लेखक- मोरिस शिमाश्को(Moris Simashco)
पृष्ठ- 128.
मूल्य- 40₹
)
प्रकाशन- गार्गी प्रकाशन-दिल्ली।
Email- gargiprakashan15@gmail.com
  
लेखक परिचय
मारिस सिमाश्को का जन्म 1924 में हुआ था। सन् 1940 में वे सैनिक बन शत्रु से जूझते रहे।
कजाखस्तान के अल्मा-अता विश्वविद्यालय से पत्राचार से पत्रकारिता की द्वारा पढाई की और पत्रकारिता के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर  चर्चित रहे।

15. कानून नहीं बिकने दूंगा- टाइगर

कानून नहीं बिकने दूंगा - टाईगर
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"हत्या..डकैती...हडताल...आगजनी..बलात्कार...अपहरण...
बम बलास्ट और घोटाले करने वालो सावधान।
कानून का तीसरा हाथ तुम्हारा पीछा कर रहा है।
खोजी पत्रकारिता पर लिखा गया एक उपन्यास ।
उपन्यास की कहानी एक रिक्शे वाले चरणदास पीपेवाले की पत्नी की हत्या से होती है,दुष्कर्म करने के पश्चात उसी के घर में उसकी हत्या कर दी जाती है। हत्या का आरोप लगता है शहर के प्रसिद्ध व्यवसायी विनोद कोठारी पर।
            कोठारी स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए शहर की प्रसिद्ध वकील मोनिका सान्याल की शरण में जा पहुंचता है। मोनिका सान्याल के बारे में प्रसिद्ध है की वह कभी केस नहीं हारी।
  और इस बार भी वह केस जीत जाती है और चरणदास पीपेवाला  को अपनी पत्नी की हत्या के जुर्म में अपराधी साबित कर देती है।
      और यहां से कहानी में प्रवेश होता है 'कानून के तीसरे हाथ' का।
यानि खोजी पत्रकार अमन चुघ का।
अमन चुघ अपने तीन साथियों भोलाराम, शशि मेहता और भीमसेन के साथ चरणदास पीपेवाले की पत्नी की हत्या की पहेली हल करता-करता जा टकराता है, अपने पत्रकार गुरु चमनलाल के हत्यारों से।
  यहाँ से कहानी में एक रोचक मोङ आता है और अमन चुघ के साथियों पर एक-एक कर वार होने शुरु हो जाते हैं।
यहां से बच गये, पर ये क्या ....?
अमन चुघ के तीनों साथी अमन के कार्य की सारी जानकारी कहीं और दे रहे हैं, वह भी तीनों एक दूसरे से चोरी-चोरी से।
  इन परिस्थितियाँ में क्या पत्रकार अमन चुघ कामयाब हो पायेगा।
  एक मामूली रिक्शा चालक की पत्नी की हत्या से चली यह कहानी खोजी पत्रकार चमन लाल तक जा पहुंचती है। चमन लाल वह शख्सियत थी, जिसके लिए कर्तव्य महत्वपूर्ण था।
और वहां से शहर के प्रसिद्ध पत्रकार, जज, वकील और व्यवसायी तक को अपनी चपेट में लेकर यह कहानी अपने मुकाम तक पहुंचती है।
  पात्र- कहानी में पात्रों की संख्या काफी है और सभी पात्र रोचक और स्वयं में एक रहस्य लिए बैठे हैं।
दर्शना पीपेवाला- एक रिक्शा चालक की पत्नी। जिसकी मौत कई चेहरों से नकाब उतार गयी।
विनोद कोठारी- प्रसिद्ध व्यवसायी और दर्शना पीपेवाल की हत्या का आरोपी।
मोनिका सान्याल जिससे नफरत करती है, पर फिर भी इसे कोर्ट में निर्दोष साबित करती है।
चरणदास पीपेवाला- कहानी के प्रारंभ में पीपेवाले का चित्रण जितना प्रभावशाली रूप से किया गया है, वह कुछ पृष्ठों के पश्चात कमजोर हो जाता है व अंत में तो मात्र उसका नाम ही रह जाता है।
"मेरे जैसा आदमी जब उल्टा-सीधा किया करता है तो वह अपना आगा-पीछा नहीं देखा करता। किसी की इज्जत का जनाजा निकालने से पहले वह यह नहीं सोचा करता की उस इज्जत की समाज में क्या कीमत है।"
एकदम  स्पष्टवादी आदमी है चरणदास।
अमन चुघ- खोजी पत्रकार। दर्शना पीपेवाले की हत्या की पहेली सुलझाता हुआ स्वयं भी मुजरिम बन कर रह जाता है।
चमनलाल- अमन चुघ का गुरु। एक खोजी पत्रकार। जो न्याय के लिए संघर्ष करता हुआ अपनी जान गवा बैठा। जिसके हत्यारों को पता नहीं चला।
शशि मेहता- अमन चुघ की सहयोगी । जो एक दिन स्वयं अमन को ही अपराधी के रूप में प्रस्तुत कर देती है।
"असफलता सफलता की पहली सीढी है अमन बाबू।"
भोलाराम व भीमसेन- दोनों पत्रकार हैं, अमन के सहयोगी । वास्तव में इनकी सत्यता कुछ और ही है।
मोनिका सान्याल- एक प्रसिद्ध वकील जो आज तक कोई केस नहीं हारी।
बुलाकी राम- मोनिका सान्याल का वाचाल नौकर। जिसकी सत्यता  भी कुछ और ही है।
"तू ही सारा विध्न पाया है"- बुलाकी गुस्से से बोला, -"तू मरीज नईं है, मरीज दे ना ते कलंक है।"
नीरा- मोनिका की सेक्रेटरी व अमन की प्रेमिका। 
इनके आलावा भी उपन्यास में बहुत से पात्र हैं।
इतने पात्रों के बावजूद भी लेखक सभी पात्रों में समन्वय बनाकर चला है। हालांकि इस वजह से कई पात्र उभर भी नहीं सके।
कथन - उपन्यास में पात्रों के कथन प्रभावशाली व पात्र के चित्रण को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने वाले हैं।
चमन लाल- "एक जर्नलिस्ट ही अगर गलत रास्ते पर चल पङे तो वह समाज को सही रास्ते पर कैसे लायेगा? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि एक अखबारनवीस का सबसे बङा दायित्व यह होता है कि समाज को सही रास्ते पर चलाने का प्रयास करता रहे।"
उपर्युक्त वाक्य से चमनलाल की  विचारधारा का पता चलता है।
चरणदास पीपेवाला- एक अखङ किस्म का व्यक्ति । इसकी यह विशेषता इसके शब्दों से ही झलकती है।
मोनिका सान्याल को भी स्पष्ट शब्दों में कहता है
"कोठारी के साथ आपका रिश्ता है।"-स्पाट स्वर में बोला पीपेवाला, "वह रिश्ता कच्चा है या पक्का?, कमजोर है या मजबूत? इस बारे में कुछ भी नहीं बोलुंगा। मैं तो सिर्फ इतना ही कहूँगा इस लिहाज से दर्शना के साथ आपका भी रिश्ता है।"
जैसे आसमान से गिरी मोनिका। चेहरा राख की तरफ से सफेद पङता चला गया। वह पीपेवाला की तरफ यूँ देखने लगी जैसे कुकर्म करती रंगे हाथों पकङी गयी हो।
"आप बेकार में ही परेशान हो रही हैं। यह बात में किसी को नहीं बताऊंगा।" - पीपेवाल ने कहा।
ऐसी भी बात नहीं के पीपेवाला स्वयं के बारे में सत्यता नहीं जानता, वह तो स्पष्ट कहता है- "जनाब, मैं गरीब आदमी हूँ । भूखा-नंगा आदमी हूँ । उपर से शराबी-कबाबी आदमी हूँ।   मेरी तो  समाज में धेले की भी ईज्जत नहीं है
कुछ कथन तो पीपेवाले के पाठक शायद ही भूलें।
जब वह वकील मोनिका सान्याल के कार्यालय में उससे मिलने जाता है। तब सेक्रेटरी नीरा कहती है-
"मैङम बिना अपाॅइंट किसी से नहीं मिलती।"
"मुझसे मिलेगी",- चरणदास पीपेवाला बङे आराम से बोला,-"इसलिए मिलेगी क्योंकि जब वह मेरे घर आयी थी तब मैं भी उनसे बिना अपाॅइंटमेंट के ही  मिला था।"
ऐसा पात्र उपन्यास के प्रारंभ में हर पात्र पर भारी पङता गया है पर जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढता है, चरणदास पीपेवाला उपन्यास के पृष्ठों से गायब हो जाता है।
अगर लेखक इस पात्र को आगे भी प्रस्तुत करता तो उपन्यास काफी रोचक बन जाता।  
उपन्यास के कुछ प्रसंग अनावश्यक प्रतीत होते हैं।
जैसे पीपेवाले के चार बच्चों का ज्यादा चित्रण करना और वह भी की चारों बच्चे दस साल की कम उम्र के हैं पर तीनों पत्रकारों पर भारी पङते हैं व उन्हें बांध देते हैं।
इसके अलावा उपन्यास में ज्यादा पात्रों को स्थान देना व बाद में उनके चरित्र के साथ इंसाफ न होना।
यह एक मर्डर मिस्ट्री है, कहानी अच्छी है, प्रारंभ भी बहुत अच्छा है लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढती गयी वैसे-वैसे लेखक कहानी पर से नियंत्रण खोता गया।
उपन्यास का शीर्षक - शीर्षक है 'कानून नहीं बिकने दूंगा' लेकिन लेखक स्वयं शीर्षक के साथ इंसाफ नहीं कर पाया। लेखक कहता है जब कानून के दोनों हाथ (पुलिस व वकील) बिक जाते हैं तब तीसरा हाथ (पत्रकार) कानून का रक्षक बनता है। लेकिन यहाँ तो स्वयं पत्रकार महोदय भी कानून की रक्षा करने की जगह कानून हाथ में ले लेता है।
उपन्यास का नायक भी असली मुजरिम को जानते हुए उस पर हाथ नहीं डाल पाता लेकिन नूतन जैसी निर्दोष महिला का कत्ल बेवजह कर देता है।
  लगता है जैसे लेखक महोदय उपन्यास लिखते-लिखते भूल गये की वह क्या लिखने बैठे थे।
कुल मिला कर उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।
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उपन्यास- कानून नहीं बिकने दूंगा।
लेखक- टाईगर
प्रकाशक- राजा पाॅकेट बुक्स- दिल्ली

Thursday, 26 January 2017

14. अपने कत्ल की सुपारी- वेदप्रकाश शर्मा

अपने कत्ल की सुपारी- वेदप्रकाश शर्मा।
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  वर्तमान लोकप्रिय उपन्यास के क्षेत्र में वेदप्रकाश शर्मा का वर्चस्व है। सस्पेंश स्थापित करने का जैसा कार्य वेदप्रकाश शर्मा करते है वैसा अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। पाठक की सांस भी सस्पेंश दृश्य पर रुक सी जाती है और वह एक ही सांस में पूरा दृश्य पढ जाना चाहता है।
  प्रस्तुत उपन्यास 'अपने कत्ल की सुपारी' तो अपने शीर्षक में ही भरपूर संस्पेश समाये हुये है की क्यों कोई अपने कत्ल  सुपारी किसी को देगा।
  आखिर क्या वजह रही होगी उसे अपनी सुपारी देने की। अगर वह मरना ही चाहता है, आत्महत्या जैसे असंख्य रास्ते उसके सामने हैं फिर सुपारी देने जैसा कार्य कोई क्यों करेगा।
 इस सस्पेंश का रहस्य को उपन्यास पढने के बाद ही खुलता है।
   उपन्यास का विस्तार ज्यादा नहीं है, उपन्यास ज्यादातर नायक के इर्द-गिर्द ही घूमता है, क्योंकि पूरा कथानक नायक से ही जुङा है।
  इस उपन्यास का नायक है त्रिवेन्द्रम। एक साधारण परिवार का शादीशुदा व नौकरी पेशा आदमी। जिसके परिवार में नायक के अतिरिक्त उसके माँ-बाप, पत्नी व युवा लङका-लङकी हैं।
  कहानी प्रारंभ होती है उपन्यास के नायक त्रिवेन्द्रम के घर से जहाँ एक रात उसके घर से पाँच लाख रुपये चोरी हो जाते हैं, और हैरानी की बात ये है  की ये चोरी स्वयं नायक त्रिवेन्द्रम करता है।
  यहाँ से उपन्यास में प्रवेश होता है इंस्पेक्टर बजरंगी का, जो की उपन्यास का एक दमदार पात्र है। हर पात्र पर भारी है।
जैसे की वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यासों में इंस्पेक्टर को दिखाया जाता है, वैसा ही है बजरंगी।
  इन चोरी के रुपयों से त्रिवेन्द्रम जट्टाशंकर नामक सुपारी किलर को अपने कत्ल की सुपारी देता है, पर अपना चेहरा व परिचय छुपा कर।
 जट्टाशंकर, जिसके बारे में प्रसिद्ध है की एक बार वह जिसकी सुपारी ले लेता है, उसे खुद भगवान भी अवतरित होकर नहीं बचा सकता।
पर यह क्या?
एक...दो....।
त्रिवेन्द्रम तो नहीं मरा पर उसके चक्कर में दो और व्यक्ति मारे गये।
और त्रिवेन्द्रम....।
त्रिवेन्द्रम घर से गायब है।
 कहां है!
न घर वाले जानते हैं, न पुलिस। 

Sunday, 15 January 2017

13. बस्तर पाति- पत्रिका

छतीसगढ से प्रकाशित 'बस्तर पाति' पत्रिका का अंक 9-10, जून-नवंबर पढने को मिला।
यह एक संयुक्त अंक है, जो की लघुकथा विशेषांक है।
प्रस्तुत अंक एक से बढकर एक लघुकथाएं हैं, इसके अलावा पत्रिका में कहानी, कविता, साक्षात्कार व नियमित स्तम्भ भी हैं।है।

लघुकथा का आरम्भ पृष्ठ संख्या 06 से नरेश कुमार उदास की दो लघुकथाओं से होता है। एक 'बाढ' व दूसरी 'विचार विमर्श' है। इस प्रकार की लघुकथाएं पाठक न जाने कितनी बार पढ चुके होंगे। वही प्रशासनिक भ्रष्ट्राचार व जातिगत भेदभाव को लेकर लिखी गयी रचनाएँ हैं। वही पुराना प्रस्तुतिकरण।

डाॅ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा गलतफहमी' दो भाईयों के बीच पनपी गलतफहमी पर आधारित कथा है और ऐसी परिस्थितियाँ घरों में अक्सर देखने को मिल जाती हैं। कथा का समापन सकारात्मक है।
ऐसी ही एक रचना है उषा अग्रवाल की 'मिस काॅल' जो पाठक के मन को अंदर तक छू जायेगी। रेल यात्रा के दौरान मित्र बनी एक सहयात्री के मिलन व वियोग की मार्मिक कथा है। श्रीमती बकुला पारेख की 'सुहागन' भी एक पारिवारिक सकारात्मक कथा है।
   ऐसी ही एक अन्य मार्मिक कथा लिखी है, उमेश शिवलिंग ने - 'हे! भगवान'।
एक मासूम बहन की कहानी। दूसरी कक्षा में पढने वाली एक लङकी की बहन की मृत्यु हो जाती है, लेकिन वह लङकी मृत्य बहन को अपने साथ महसूस करती है। ऐसी हृदय को छूने वाली कहानी लिखने वाले लेखक को धन्यवाद ।
'वसंत' व 'रिमझिम' पत्रिका के संपादक राज हरिमन द्वारा रचित पाँच लघुकथाएं इस पत्रिका का पूरा एक पृष्ठ ले गयी। इनकी लघुकथा आधा 'नोट' व 'प्रेशर कूकर' दोनों एक ही विषय पर लिखी गयी ऐसी दो निकृष्ट लघुकथाएं हैं जो लघुकथाओं का स्तर गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अगर लेखक को कोई उदाहरण प्रस्तुत करना था तो कम से कम ऐसा तो होता जो संभव होता।
जहां लघुकथा आधा नोट' में नेता जनता को वोटों से पूर्व आधा नोट देता है पर चुनाव जीतने के बाद शेष आधा नोट नहीं देता, यही किस्सा प्रेशरकूकर कथा में है।
आप स्वयं पढ लीजिए- "चुनावी अभियान के दौरान हजार-हजार रुपयों के नोट आधा-आधा फाङ कर एजेंट आठ लाख वोटरों में बांट चुके थे और बाकी का आधा, चुनाव जीतने के बाद देना तय हुआ था।"
लेखक की अन्य तीन लघुकथाएं भी कोई अच्छी नहीं हैं, लगता है 'बस्तर पाति' के संपादक महोदय ने मित्र धर्म निभाया है।
लेखक मधुदीप की दोनों रचनाएँ अच्छी हैं। जहाँ लघुकथा 'जागृति' वर्तमान नेताओं के झूठे वायदों की पोल खोलती है, वहीं 'मजहब' मानवता धर्म को श्रेष्ठ धर्म बताती है।
हालांकि इस प्रकार की बहुत लघुकथाएं लिखी गयी हैं, पर यहाँ लेखक का प्रस्तुतिकरण अच्छा है।
   अगर देखा जाये तो हिंदी लघुकथा लेखक कुछ चुनिंदा विषयों से आगे बढ ही नहीं पाये। हर दूसरे-तीसरे लेखक की रचनाएँ समान होती हैं और उसमें भी लेखक की हर दूसरी-तीसरी लघुकथा समान होती है।  इस समानता में कुछ अलग होता है तो वह है लेखक का प्रस्तुतिकरण।
  आखिर पाठक भी एक जैसी बात को कहां तक पढे।
  रउफ परवेज की 'वसीयत नामा' एक हास्य कथा के ज्यादा नजदीक है। एक ऐसे अमीर आदमी की कथा जो उधार न चुकाने के नये -नये बहाने प्रस्तुत करता है। अधिकतर लघुकथा लेखक पता नहीं क्यों नकारात्मक कहानियाँ लिखते हैं, इन नकारात्मक कहानियों में एक हास्य कथा अच्छी है।
   नेताओं की कथनी करनी को रेखांकित करती एक लघुकथा है, डाॅ. गजेन्द्र नामदेव की 'आईना' और वहीं  पवन तनय अग्रहरि अद्वितीय की 'दिये तले अँधेरा' जातिगत भेदभाव को रेखांकित करती है।

  अशफाक अहमद की 'राशन कार्ङ' एक बेबस माँ की कहानी है
   माँ को केन्द्र में रखकर लिखी गयी कहानी 'परिवर्तन' लेखिका हैं- डाॅ. शैलचन्द्रा। स्वयं लेखिका महोदय ने भी इस प्रकार की असंख्य लघुकथाएं पढ ली होंगी फिर भी अपना योगदान दिया है। लेकिन इनकी द्वितीय लघुकथा 'भाषाएँ' एक अच्छी लघुकथा है, जिसका निष्कर्ष है-"दुनिया की हर भाषा में दुख की भाषा एक होती है।"
ये इनकी सराहनीय लघुकथा है।
  मोहम्मद जिलानी की लघुकथा 'जल्लाद' व्यवसाय आधारित कथा है तो 'परिणाम' शराब के दुर्गुणों को दर्शाती है। कहानी में थोङा अनावश्यक विस्तार है। संपादक महोदय ने संपादकीय में कहा भी है कि अनावश्यक विस्तार कथा के प्रवाह को धीमा करता है।
ऐसा ही अनावश्यक विस्तार आपको संतोष श्रीवास्तव की 'एक समझौता' और पूर्णिमा विश्वकर्मा 'दु:खवा मैं कासे कहूँ'(आचार्य चतुरसेन शास्त्री की एक कहानी का  शीर्षक भी यही है) में भी मिलेगा।
प्रवेश सोनी की लघुकथा ' सीढियाँ' (पृष्ठ-45) में भी बहुत ज्यादा विस्तार है, क्योंकि यह लघुकथा मात्र इतनी है की एक गरीब परिवार का बेटा मेहनत कर सफल हो जाता है। पर इस कहानी में खास बात है वह है कुछ विशेष पंक्तियाँ जो लघुकथाकार कभी भी प्रयुक्त नहीं करते। आप भी पढ लीजिएगा-
"गरीब की गरीबी इतनी वफादार होती है की स्वप्न में भी उसका साथ नहीं छोङती।"
"उन्हें यह चिंता बाढ चढी नदी की तरह डरा रही थी।"

  वर्तमान सौदेबाजी को लेकर लिखी गयी कहानी है महेश राजा की 'खरगोश फिर हार गया'
हर बार की तरह इस बार भी खरगोश हारा है पर इस बार हारने का कारण है कछुए की 'फिक्सिंग'।
इसी प्रकार परम्परागत कहानी को आधार बनाकर लिखी गयी है दिनेश कुमार छाजेङ की 'चतुर कौआ'।
   शिवेन्द्र कुमार यादव की लघुकथा 'कार्यभार' को छोङ कर अन्य लघुकथाएं लघु तो हैं पर उनमें से कथा गायब है।
  शायद आजकल दौर चल पङा है की लघुकथा लिखी जाये और लेखक लिखता है। उसे शायद कथा तत्व से कुछ लेना देना नहीं है, बस लिखना है।
  और संपादक का कार्य है छापना, बस छापना। भारत में प्रतिमाह बहुत सी लघु पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, जिनमें असंख्य लघुकथाएं छपती हैं, अगर इस क्रम को साल भर के नजरीये से देखा जाये तो प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं की आप गिनती नहीं कर सकते। पर एक बात सब में समान मिलेगी वह है लघुकथा लेखक। वही लेखक हैं जो प्रत्येक जगह हैं छपते हैं और उनका कथानक भी वही होता है।
  अब पता नहीं लेखक महोदय सब एक जैसा ही क्यों लिख देते हैं।
प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं में आप अच्छी लघुकथाएं चंद ही चुन पाओगे।
जब किसी लेखक से पूछा जाये की भारतीय फिल्मों के प्रति आपकी क्या राय है? तब उसका उत्तर होता है, फिल्में तो बहुत बन रही हैं पर सार्थक फिल्में नहीं बनती ।
यही बात वर्तमान लघुकथा पर लागू होती है।
अरविंद अवस्थी की 'फर्क' कथा बताती है कि एक बहूँ भी एक अच्छी बेटी साबित हो सकती है। भरत गंगादित्य की 'उच्च शिक्षित' भी ऐसी ही कथा है।
राजस्थान के गोविन्द शर्मा अच्छे लेखक हैं। इनकी ' आचरण' लघुकथा परम्परागत विषयों से हटकर है। वर्तमान विज्ञापन युग में हम जाने-अनजाने गलत बातों का समर्थन करते हैं, इसी बात को लेखक ने उठाया है। धन्यवाद लेखक जी।
   वर्तमान मीडिया जगत में फैली चाटुकारिता को एक नेता के माध्यम से डाॅ. मोहम्मद साजिद खान ने 'मिडिया के लोग' लघुकथा के माध्यम से दिखाया है तो दूसरी लघुकथा नए संस्कार' में खोये सामाजिक मूल्यों का चित्रण है की कैसे हम अमूल्यों को जीवन के मूल्य समझ बैठे हैं।
  कृष्णधर शर्मा की लघुकथा ' बासी खाने का पुण्य' के अलावा अन्य दोनों लघुकथाएं 'लघु लेख' दृष्टिगत होती हैं।
  के.पी. सक्सेना दूसरे की लघुकथा ' होली मुबारक' एक बहुत ही अच्छी रचना है(पृष्ठ-46)।
मनुष्य अपनी खुशी के लिए दूसरे जीव की हत्या कर देता है। यह कैसी खुशी जो एक जीव को मृत्यु दे।
मुझे याद है एक बार मेरे एक  मित्र ने बकरा ईद पर मुझे बधाई दी। मैंने कहा भाई यह न तो तेरा त्योहार है न ही मेरा, दूसरा किसी जीव की हत्या जैसे निर्दय कार्य पर कैसी शुभकामनाएं।
  वीनु जमुआर अपनी लघुकथा 'स्वयंसिद्धा' के माध्यम से संतान के प्रति मोह, उत्तरदायित्व-बोध और दृढ निश्चय को तो रेखांकित करती है साथ-साथ उन युवावर्ग को भी शिक्षा देती है जो घर से भागकर शादी करते हैं। ऐसी ही एक लघुकथा श्रीमती अलका पाण्डे की 'पहल' है।(पृष्ठ-53)

  अगर बात करें सकारात्मक रचना की तो वह है प्रहलाद श्रीमाली की 'हजार आँखों वाला विश्वास'।
"यह अंधविश्वास की नहीं विश्वास की बात है।...पानी और बिजली की किल्लत के जमाने में इस जमाने में इस मान्यता के दम पर यदि थोङी बहुत बचत हो जाती है और वह जरूरतमंदों के काम आ जाती है तो यह अंधविश्वास नहीं बल्कि हजार आंखों वाला विश्वास है।"
जीवन को विषम परिस्थियों में जीना सीखाती है माधुरी राऊलकर की ' अपनी मंजिल' लघुकथा।
     हमारे जीवन पर दूरदर्शन के प्रभाव को ' दादाजी की आत्मा' लघुकथा के माध्यम से कमलेश चौरसिया ने दर्शाया है। वहीं इनकी दूसरी लघुकथा 'फैसला' में थोङा अजीब सा लगा किसी नाम को प्रयोग करना।
मिहिर ने कहा-"यह ले माँ! मेरे जीवन की प्रथम कमाई।"
लता गदगद हो गयी।
यहाँ 'लता' शब्द की जगह 'माँ' शब्द ज्यादा उपयुक्त था, लेकिन आजकल लेखकों में नाम देने का फैशन चल पङा।  जब डाॅक्टर को डाॅक्टर कहने से काम चलता है तब क्या जरूरत है, डाॅक्टर शर्मा, वर्मा, माथुर कहने की।
ऐसी ही गलती सुषमा झा 'गलती क्या' लघुकथा में भी करती हैं।
"आपकी टोका-टाकी से मीना भी परेशान हैं।"
अब पाठक भी परेशान है ये मीना कौन है?
  ये तो लेखिका या संपादक महोदय जाने की मीना कौन है।
  मृत्युभोज पर कटाक्ष किया है करमजीत कौर की लघुकथा 'अंतिम विदाई ने तो हेमंत बघेल ने 'परिधान' व 'भ्रष्ट्राचार की जङ' भी व्यंग्य के अच्छे उदाहरण हैं।
   हमारी मरती मानवता पर श्रीमती अलका पाण्डे ने 'नि: शब्द' में अच्छा लिखा है, मनुष्य अपनी वासनापूर्ति के लिए किस स्तर तक गिरता जा रहा है।
  श्रीमति रीना जैन की लघुकथा 'भगवान' दर्शाती है की भगवान तो हृदय में है। इस अंक की अंतिम लघुकथा 'पुरुस्कार' (पृष्ठ-58) रजनी साहू द्वारा लिखित अच्छी कथा है।
इस प्रस्तुत लघुकथा अंक में आपको कहानीकार कृष्ण शुक्ल का साक्षात्कार (पृष्ठ-09) व उनकी तीन कहानियां पढने को मिलेंगी।
  'कोई एक घर' कहानी स्त्री के जीवन की कठिनाईयों को दर्शाती है जो अपने पूर्व जीवन के कठिन दौर के चलते अपने भविष्य के प्रति शंकित हो उठती है।
      'डरा हुआ महानगर' में नायक का सामना एक ऐसी महत्वाकांक्षी लङकी से है जो खुद के जीवन को अपनी तरह से जीना चाहती है।
  'एक लङकी की हत्या' कृष्ण शुक्ल की एक बेहतरीन कहानी है जो नौकरी प्राप्त करने वाली एक लङकी की। कहानी है। वह लङकी नौकरी प्राप्ति हेतु अपना सर्वस्व समर्पण कर देती है‌।
  यह कहानी पाठक को अंदर तक झकझोर देगी।
'बस्तर पाति' का प्रस्तुत लघुकथा अंक एक‌अच्छा अंक है जिसमें पाठक को विभिन्न विषयों पर लघुकथाएं पढने को मिलेंगी।
संपादक मण्डली को धन्यवाद ।
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पत्रिका- बस्तर पाति।
अंक- 09-10, जून-नवंबर-2016(संयुक्त अंक)
प्रकाशन स्थल- जगदलपुर, बस्तर, छतीसगढ।
संपादक- सनत कुमार जैन।
सह संपादक- श्रीमति उषा अग्रवाल
     महेन्द्र कुमार जैन
     शंशाक श्रीधर
मूल्य-25₹- प्रस्तुत अंक।
पृष्ठ-70.
Email-paati.bastar@gmail.com
Site - www.paati.bastar.com

शिकारी का शिकार- वेदप्रकाश काम्बोज

गिलबर्ट सीरीज का प्रथम उपन्यास शिकारी का शिकार- वेदप्रकाश काम्बोज ब्लैक ब्वॉय विजय की आवाज पहचान कर बोला-"ओह सर आप, कहिए शिकार का क्या...