सत्य मेरा ईश्वर है, समग्र जगत् मेरा देश है।- स्वामी विवेकानंद
12 जनवरी स्वामी विवेकानंद जी का जन्म दिवस है जिसे युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। मेरी यह इच्छा रहती है की विवेकानन्द जी साहित्य यथासंभव पढा जाये। इसी क्रम में एक रचना हाथ लगी 'विवेकानंद की आत्मकथा' शीर्षक से।
इस रचना में विवेकानंद जी के जीवन को सहजता से समझना जा सकता है। युवा वर्ग के प्रेरणा पुरुष विवेकानंद जी ने अपने जीवन में जो परेशानियां देखी, जो संघर्ष किया और जिस सफलता के मुकाम पर वे पहुंचे वे सब तथ्य इस आत्मकथा में उपलब्ध हैं।
विवेकानन्द जी के बचपन से लेकर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस से होते हुये यह आत्मकथा शिकागो धर्म सम्मेलन और पुन: भारत यात्रा का लंबा वर्णन है।
विवेकानंद जी पर लिखना तो संभव नहीं है, हाँ, उनकी आत्मकथा की कुछ बाते यहाँ सांझा की जा सकती है जिससे उनके जीवन या उनकी रचना 'विवेकानंद की आत्मकथा' को समझा जा सके।
धर्म के विषय पर इस रचना में जो पंक्तियाँ मिलती है वे वास्तव में धर्म और धर्म के नाम पर अंधविश्वास को रेखांकित करती हैं।
"तरह जब तक तुम्हारा धर्म तुम्हें ईश्वर की उपलब्धि न कराए, तब तक वह व्यर्थ है! जो लोग धर्म के नाम पर सिर्फ ग्रंथ-पाठ करते हैं, उनकी हालत उस गधे जैसी है, जिसकी पीठ पर चीनी का बोझा लदा हुआ है, लेकिन वह उसकी मिठास की खबर नहीं रखता।’’
"धर्म सत्य है, इसकी अनुभूति की जा सकती है। हम सब जैसे यह जगत् प्रत्यक्ष कर सकते हैं, उससे ईश्वर के अनंत गुणों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष किया जा सकता है।’’
सच ही, ईश्वर में दृढ़ विश्वास और उन्हें पाने के लिए अनुरूप आग्रह को ही ‘श्रद्धा’ कहते हैं।
जीवन की कठिन परिस्थितियों से निकल कर वे एक दिन संन्यासी मार्ग पर चल दिये। संन्यासी किसे कहते हैं? -
"मैं जिस संप्रदाय में शामिल हूँ, उसे कहते हैं—संन्यासी संप्रदाय। संन्यासी शब्द का अर्थ है—‘जिस व्यक्ति ने सम्यक॒रूप से त्याग किया हो।’ यह अति प्राचीन संप्रदाय है। ईसा के जन्म से 560 वर्ष पहले महात्मा बुद्ध भी इसी संप्रदाय में शामिल थे। वे अपने संप्रदाय के अन्यतम संस्कारक भर थे। पृथ्वी के प्राचीनतम ग्रंथ ‘वेद’ में भी आप लोगों को संन्यासी का उल्लेख मिलेगा।
गुरु किसे कहते हैं? इस रचना में 'गुरु' शब्द की जो परिभाषा दी गयी है वह पठनीय और अनुकरणीय भी है।
भारत में ‘गुरु’ का हम क्या अर्थ लेते हैं, हमें यह भी याद रखना होगा। शिक्षक का अर्थ सिर्फ ग्रंथकीट नहीं होता। गुरु वे ही हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष की उपलब्धि की हो, जिन्होंने सत्य को साक्षात् जाना हो, किसी दूसरे से सुनकर नहीं।
"मैं एक ऐसे इंसान को जानता था, लोग जिसे पागल कहते थे, वे उत्तर देते थे, ‘‘बंधुगण, समस्त जगत् ही तो एक पागलखाना है। कोई सांसारिक प्रेम में उन्मत्त है, कोई नाम के लिए पगलाया हुआ है, कोई यश के लिए, कोई धन-दौलत के लिए और कोई स्वर्ग-लाभ के लिए पागल है। इस विराट् पागलखाने में मैं भी एक पागल हूँ। मैं भगवान् के लिए पागल हूँ। तुम अगर रुपए-पैसों के लिए पागल हो, मैं ईश्वर के लिए पागल हूँ। तुम भी पागल, मैं भी पागल! मुझे लगता है कि अंत में मेरा पागलपन ही सबसे ज्यादा खरा है।’’
'विवेकानंद की आत्मकथा' में बहुत से रोचक प्रसंग हैं। उन्हीं में से एक प्रसंग यहाँ उपलब्ध है।
-एक बार मैं काशी की किसी सड़क से होकर जा रहा था। उस सड़क के एक तरफ विशाल जलाशय था और दूसरी तरफ ऊँची दीवार! जमीन पर ढेरों बंदर थे। काशी के बंदर दीर्घकाय और बहुत बार अशिष्ट होते हैं। बंदरों के दिमाग में अचानक झख चढ़ी कि वे मुझे उस राह से नहीं जाने देंगे। वे सब भयंकर चीखने-चिल्लाने लगे और मेरे पास आकर मेरे पैरों को जकड़ लिया। सभी मेरे और नजदीक आने लगे। मैंने दौड़ लगा दी। लेकिन जितना-जितना मैं दौड़ता गया, उतना ही वे सब मेरे और करीब आकर मुझे काटने-बकोटने लगे। बंदरों के पंजों से बचना असंभव हो गया। ऐसे में अचानक किसी अपरिचित ने मुझे आवाज देकर कहा, ‘‘बंदरों का मु़काबला करो।’’
मैंने पलटकर जैसे ही उन बंदरों को घूरकर देखा, वे सब पीछे हट गए और भाग खड़े हुए। समस्त जीवन हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी होगी—जो कुछ भी भयानक है, उसका मु़काबला करना है, साहस के साथ उसे रोकना है। दुःख-कष्ट से डरकर भागने के बजाय उसका मु़काबला करना है। बंदरों की तरह वे सब भी पीछे हट जाएँगे।
हिंदू धर्म तो यह सिखाता है कि जगत् में जितने भी प्राणी हैं, सब तुम्हारी ही आत्मा के बहुरूप मात्र हैं।
जब मैंने ‘अमेरिकावासी बहनो और भाइयो’ कहकर सभा को संबोधित किया तो दो मिनट तक ऐसी तालियाँ बजीं कि कान बहरे हो आए। उसके बाद मैंने बोलना शुरू किया। जब मेरा बोलना खत्म हुआ तो हृदय के आवेग के मारे अवश होकर मैं एकदम से बैठ गया।
शिकागो, सितंबर 1894
इन दिनों मैं इस देश में सर्वत्र घूमता फिर रहा हूँ और सबकुछ देख रहा हूँ और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि समग्र पृथ्वी में एकमात्र एक ही देश है, जहाँ लोग समझते हैं कि धर्म क्या चीज है! वह देश है—भारतवर्ष! हिंदुओं में तमाम दोष-त्रुटियाँ हों, इसके बावजूद नैतिक चरित्र और आध्यात्मिकता में अन्य जाति से भी काफी ऊर्ध्व हैं।
"लंदन में जब मैं व्याख्यान देता था, तब एक सुपंडित मेधावी मित्र अकसर ही मुझसे बहस किया करते थे। उनके तरकश में जितने भी तीर थे, सब-के-सब मुझ पर निक्षेप करने के बाद एक दिन अचानक तार-स्वर में बोल उठे, ‘‘तो फिर आप लोगों के ऋषि-मुनि हमें इंग्लैंड में शिक्षा देने क्यों नहीं आए?’’ जवाब में मैंने कहा, ‘‘क्योंकि उस जमाने में इंग्लैंड नामक कोई जगह थी ही नहीं, जहाँ वे आते। वे क्या अरण्य में पेड़-पौधों में प्रचार करते?’’
शीर्षक- विवेकानंद की आत्मकथा
विधा- आत्मकथा
लेखक- स्वामी विवेकानंद
प्रकाशक- प्रभात पैपरबैक्स
12 जनवरी स्वामी विवेकानंद जी का जन्म दिवस है जिसे युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। मेरी यह इच्छा रहती है की विवेकानन्द जी साहित्य यथासंभव पढा जाये। इसी क्रम में एक रचना हाथ लगी 'विवेकानंद की आत्मकथा' शीर्षक से।
इस रचना में विवेकानंद जी के जीवन को सहजता से समझना जा सकता है। युवा वर्ग के प्रेरणा पुरुष विवेकानंद जी ने अपने जीवन में जो परेशानियां देखी, जो संघर्ष किया और जिस सफलता के मुकाम पर वे पहुंचे वे सब तथ्य इस आत्मकथा में उपलब्ध हैं।
विवेकानन्द जी के बचपन से लेकर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस से होते हुये यह आत्मकथा शिकागो धर्म सम्मेलन और पुन: भारत यात्रा का लंबा वर्णन है।
विवेकानंद जी पर लिखना तो संभव नहीं है, हाँ, उनकी आत्मकथा की कुछ बाते यहाँ सांझा की जा सकती है जिससे उनके जीवन या उनकी रचना 'विवेकानंद की आत्मकथा' को समझा जा सके।
धर्म के विषय पर इस रचना में जो पंक्तियाँ मिलती है वे वास्तव में धर्म और धर्म के नाम पर अंधविश्वास को रेखांकित करती हैं।
"तरह जब तक तुम्हारा धर्म तुम्हें ईश्वर की उपलब्धि न कराए, तब तक वह व्यर्थ है! जो लोग धर्म के नाम पर सिर्फ ग्रंथ-पाठ करते हैं, उनकी हालत उस गधे जैसी है, जिसकी पीठ पर चीनी का बोझा लदा हुआ है, लेकिन वह उसकी मिठास की खबर नहीं रखता।’’
"धर्म सत्य है, इसकी अनुभूति की जा सकती है। हम सब जैसे यह जगत् प्रत्यक्ष कर सकते हैं, उससे ईश्वर के अनंत गुणों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष किया जा सकता है।’’
सच ही, ईश्वर में दृढ़ विश्वास और उन्हें पाने के लिए अनुरूप आग्रह को ही ‘श्रद्धा’ कहते हैं।
जीवन की कठिन परिस्थितियों से निकल कर वे एक दिन संन्यासी मार्ग पर चल दिये। संन्यासी किसे कहते हैं? -
"मैं जिस संप्रदाय में शामिल हूँ, उसे कहते हैं—संन्यासी संप्रदाय। संन्यासी शब्द का अर्थ है—‘जिस व्यक्ति ने सम्यक॒रूप से त्याग किया हो।’ यह अति प्राचीन संप्रदाय है। ईसा के जन्म से 560 वर्ष पहले महात्मा बुद्ध भी इसी संप्रदाय में शामिल थे। वे अपने संप्रदाय के अन्यतम संस्कारक भर थे। पृथ्वी के प्राचीनतम ग्रंथ ‘वेद’ में भी आप लोगों को संन्यासी का उल्लेख मिलेगा।
गुरु किसे कहते हैं? इस रचना में 'गुरु' शब्द की जो परिभाषा दी गयी है वह पठनीय और अनुकरणीय भी है।
भारत में ‘गुरु’ का हम क्या अर्थ लेते हैं, हमें यह भी याद रखना होगा। शिक्षक का अर्थ सिर्फ ग्रंथकीट नहीं होता। गुरु वे ही हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष की उपलब्धि की हो, जिन्होंने सत्य को साक्षात् जाना हो, किसी दूसरे से सुनकर नहीं।
"मैं एक ऐसे इंसान को जानता था, लोग जिसे पागल कहते थे, वे उत्तर देते थे, ‘‘बंधुगण, समस्त जगत् ही तो एक पागलखाना है। कोई सांसारिक प्रेम में उन्मत्त है, कोई नाम के लिए पगलाया हुआ है, कोई यश के लिए, कोई धन-दौलत के लिए और कोई स्वर्ग-लाभ के लिए पागल है। इस विराट् पागलखाने में मैं भी एक पागल हूँ। मैं भगवान् के लिए पागल हूँ। तुम अगर रुपए-पैसों के लिए पागल हो, मैं ईश्वर के लिए पागल हूँ। तुम भी पागल, मैं भी पागल! मुझे लगता है कि अंत में मेरा पागलपन ही सबसे ज्यादा खरा है।’’
'विवेकानंद की आत्मकथा' में बहुत से रोचक प्रसंग हैं। उन्हीं में से एक प्रसंग यहाँ उपलब्ध है।
-एक बार मैं काशी की किसी सड़क से होकर जा रहा था। उस सड़क के एक तरफ विशाल जलाशय था और दूसरी तरफ ऊँची दीवार! जमीन पर ढेरों बंदर थे। काशी के बंदर दीर्घकाय और बहुत बार अशिष्ट होते हैं। बंदरों के दिमाग में अचानक झख चढ़ी कि वे मुझे उस राह से नहीं जाने देंगे। वे सब भयंकर चीखने-चिल्लाने लगे और मेरे पास आकर मेरे पैरों को जकड़ लिया। सभी मेरे और नजदीक आने लगे। मैंने दौड़ लगा दी। लेकिन जितना-जितना मैं दौड़ता गया, उतना ही वे सब मेरे और करीब आकर मुझे काटने-बकोटने लगे। बंदरों के पंजों से बचना असंभव हो गया। ऐसे में अचानक किसी अपरिचित ने मुझे आवाज देकर कहा, ‘‘बंदरों का मु़काबला करो।’’
मैंने पलटकर जैसे ही उन बंदरों को घूरकर देखा, वे सब पीछे हट गए और भाग खड़े हुए। समस्त जीवन हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी होगी—जो कुछ भी भयानक है, उसका मु़काबला करना है, साहस के साथ उसे रोकना है। दुःख-कष्ट से डरकर भागने के बजाय उसका मु़काबला करना है। बंदरों की तरह वे सब भी पीछे हट जाएँगे।
हिंदू धर्म तो यह सिखाता है कि जगत् में जितने भी प्राणी हैं, सब तुम्हारी ही आत्मा के बहुरूप मात्र हैं।
जब मैंने ‘अमेरिकावासी बहनो और भाइयो’ कहकर सभा को संबोधित किया तो दो मिनट तक ऐसी तालियाँ बजीं कि कान बहरे हो आए। उसके बाद मैंने बोलना शुरू किया। जब मेरा बोलना खत्म हुआ तो हृदय के आवेग के मारे अवश होकर मैं एकदम से बैठ गया।
शिकागो, सितंबर 1894
इन दिनों मैं इस देश में सर्वत्र घूमता फिर रहा हूँ और सबकुछ देख रहा हूँ और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि समग्र पृथ्वी में एकमात्र एक ही देश है, जहाँ लोग समझते हैं कि धर्म क्या चीज है! वह देश है—भारतवर्ष! हिंदुओं में तमाम दोष-त्रुटियाँ हों, इसके बावजूद नैतिक चरित्र और आध्यात्मिकता में अन्य जाति से भी काफी ऊर्ध्व हैं।
"लंदन में जब मैं व्याख्यान देता था, तब एक सुपंडित मेधावी मित्र अकसर ही मुझसे बहस किया करते थे। उनके तरकश में जितने भी तीर थे, सब-के-सब मुझ पर निक्षेप करने के बाद एक दिन अचानक तार-स्वर में बोल उठे, ‘‘तो फिर आप लोगों के ऋषि-मुनि हमें इंग्लैंड में शिक्षा देने क्यों नहीं आए?’’ जवाब में मैंने कहा, ‘‘क्योंकि उस जमाने में इंग्लैंड नामक कोई जगह थी ही नहीं, जहाँ वे आते। वे क्या अरण्य में पेड़-पौधों में प्रचार करते?’’
शीर्षक- विवेकानंद की आत्मकथा
विधा- आत्मकथा
लेखक- स्वामी विवेकानंद
प्रकाशक- प्रभात पैपरबैक्स
Valuable information provided by you. Please share more about Swami Vivekananda Life.
ReplyDelete