Friday, 15 April 2022

513. आतंक - नरेन्द्र कोहली

आम आदमी के भय की कथा
आतंक - नरेन्द्र कोहली

मेरे प्रिय कथाकारों में से एक हैं नरेन्द्र कोहली। नरेन्द्र कोहली जी पौराणिक कथाओं को आधार बना, पौराणिक कथाओं पर जो साहित्य रचना करते हैं वह मेरी दृष्टि में अनुपम है। 'महासमर', 'हिडिम्बा', 'वरुणपुत्री' ऐसी ही रचनाएँ हैं जो पाठक को प्रभावित और सोचने के लिए विवश करती हैं।
     किंडल अनलिमिटेड पर नरेन्द्र कोहली जी का उपन्यास 'आतंक' पढा। यह कहानी है आम आदमी की, उस मनुष्य की जो शांति पसंद है, जो अपने परिवार को पालना चाहता है, कानून की पालना करता है लेकिन कुछ समाजिक तत्वों के चलते सीदे-सादे मनुष्य को कैसे आतंक में जीना पड़ता है।             उपन्यास के मुख्य पात्र डाॅक्टर कपिला (प्रोफेसर), बलराम हैं। दोनों ही कानून की अनुपालना करने वाले, शिक्षित और सभ्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों ही चाहते हैं की समाज में शांति और व्यवस्था बनी रहे। जहाँ डाॅक्टर कपिला अपने आदर्शों के साथ जीना चाहते, वहीं बलराम भी उनके आदर्शों का सम्मान करता है। डाॅक्टर अपने विद्यार्थियों को भी सभ्यता, अनुशासन और सम्मानजनक जीवन जीने का प्रेरित करते हैं। लेकिन बदलती परिस्थितियों में वह अपने आदर्शों के साथ समझौता करने का विवश हो जाते हैं।
     यहाँ सिर्फ एक व्यक्ति के बदलते चरित्र को चित्रित करना लेखक का उद्देश्य नहीं है, वह यह भी स्पष्ट करते हैं‌ की यह परिस्थितियाँ क्यों बनी, एक कपिला जैसे शिक्षक को भी समझौता करना पड़ा।
  क्योंकि हमारे समाज में असुरक्षा और अव्यवस्था इस हद तक व्यापत हो चुकी है की सामान्य मनुष्य इन परिस्थितियां से लड़ नहीं सकता।
  वहीं मक्खन लाल जैसे व्यक्ति हैं जो अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी हत्या कर दे। खैरू जैसे लोग हैं जो छोटी सी बात पर, बच्चों के झगड़े पर मारपीट पर उतर आते हैं।
     उपन्यास में चाहे चंद पात्र हैं, सीमित घटनाएं हैं पर जो समाज की वास्तविकता व्यक्त की गयी है वह इतनी निर्मम है की हृदय को चीर जाती है। यह कल्पना करना भी भयावह है कि कैसे एक सामान्य मनुष्य उदण्ड किस्म के लोगों से जूझता है।
   
उपन्यास में कानून के रक्षक, नेता आदि का भ्रष्ट चित्रण दर्शाया गया है।
उपन्यास के कुछ रोचक कथन-
- यह भीड़ तमाशा देखने के काम में आती है। संघर्ष और विरोध में यह किसी काम की नहीं होती।
- खाकी वर्दी से कौन सिर मारे, लोहे की बनी होती है। सिर तो अपना ही फूटना होता है। इन सालों को सरकार ने लाइसेंस दे रखा है, शिकार फाँसने का।

उपन्यास को अतियथार्थवादी कह सकते हैं। उपन्यास में कहीं भी सकारात्मक नहीं है, हर समय एक डर बना रहता है और उसी डर कॆ साये के साथ उपन्यास खत्म हो जाता है।
     देखा जाये तो यह एक सत्य भी है, बहुत से लोग आतंक के साये में ही अपना जीवन बीता देते हैं। क्योंकि असामाजिक तत्व सर्वदा ही सविधान का उल्लघंन करते हैं और सामान्य मनुष्य का जीना मुश्किल कर देते हैं।
     उपन्यास अतियथार्थवादी होने के कारण नीरस सा प्रतीत होता है, अनावश्यक विस्तार भी लगता है।
उपन्यास- आतंक
लेखक  -  नरेन्द्र कोहली
नरेन्द्र कोहली जी के अन्य उपन्यासों की समीक्षा


1 comment:

  1. उपन्यास के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख। जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी।

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