Wednesday, 26 February 2020

271. लक्ष्मण रेखा- दत्त भारती

खत्म होने नैतिक मूल्यों की कथा
लक्ष्मण रेखा- दत्त भारती, उपन्यास

       उपन्यास जगत में दत्त भारती जी काफी चर्चित लेखक रहे हैं, मुझे पहली बार उनका कोई उपन्यास पढने को मिला। जैसा की उनके बारे में सुना था वैसा ही उनका यह उपन्यास मुझे लगा।
       समाज में धीरे-धीरे शामिल हो रही कुरीतियों को आधार बना कर लिखा गया 'लक्ष्मण रेखा' नामक उपन्यास पाठक को सोचने के लिए विवश करता है और साथ ही गर्त की ओर अग्रसर समाज का यथार्थवादी चित्रण करता है।
       यह उपन्यास स्वयं में एक प्रयोग है। प्रयोग इस दृष्टि से है यह उपन्यास मुख्यतः नायक शेखर के दृष्टिकोण से लिखा गया है और दूसरा सारा घटनाक्रम एक पार्टी का है। तथाकथित सभ्य समाज की एक ऐसी पार्टी जहाँ मान-मर्यादा कुछ महत्व नहीं रखती, अगर वहाँ कुछ महत्व रखता है तो वह है धन।
धन के लिए मनुष्य किस स्तर तक गिर सकता है यह इस उपन्यास में विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।
लेखक लिखता है-
'ऐसी पार्टियों को देखकर तो अनुभव होता है कि कौमार्य नाम की कोई वस्तु नहीं होती।'(पृष्ठ-57)
       कारण यह है की कुछ माँ-बाप ऐसी फिल्मी पार्टियों में अपनी बेटियाँ को लाते ही इसलिए हैं की वे धन कमा सके।- यह सब ऊँचे घराने के लोग है, और लड़कियाँ हैं जिनके माता-पिता उन्हें सजाकर लाए हैं। यह जवान लड़कियों‌ की नुमाइश करना चाहते हैं। शायद किसी प्रोडयूसर या डायरेक्टर की दृष्टि इन पर पड़ जाये और वह इन्हें हिरोईन के रोल के लिए चुन लें। (पृष्ठ-56)
      और कुछ शरीर का सौदा भी करती नजर आती हैं उनके लिए मर्यादा और समाज तुच्छ हैं। एक उदाहरण देखें-
"सैक्स शरीर की आवश्यकता है।"
"लेकिन मान मर्यादा, समाज?"
" वह गरीब, निम्नवर्ग और मध्यम वर्ग के लिए रह गया है।"
(पृष्ठ-116)
      धन का इतना महत्व हो गया है की अब लोग मनुष्य के गुणों का महत्व न समझ कर मात्र धन को महत्व देते हैं। विशेष फिल्मी क्षेत्र में तो आजकल बदनाम लोगों को आगे लाया ज रहा है। फिल्म जगत जिसका समाज पर सर्वाधिक प्रभाव है वह कुछ अच्छा करने की बजाय समाज को गलत रास्ता ही दिखा रहा है। कभी-कभी तो इतिहास और वर्तमान समाज के बदनाम पौत्र को अच्छा दिखाने की कोशिश नजर आती है।
अब तो समाज भी ऐसे लोगों को एक तरह से पूजने लगा है।- पहले सजा पाए लोगों से दूर रहते थे। इनका किसी अच्छे घराने में विवाह न हो सकता था.....लेकिन अब चोरी, स्मग्लिंग, घूस घोरी, हेरा फेरी, चार सौ बीस, गबन के सिलसिले में सजा पाने के उपरांत यदि आपके पास कार है, कोठी है, धन है, तो आप सभ्य नागरिक समझे जाते हैं।(पृष्ठ-80)
      लेखक ने और भी बहुत से विषयों को उपन्यास में स्थान दिया है। जैसे कांग्रेस पार्टी द्वारा किया जा रहा भ्रष्टाचार, आत्मा की आवाज के नाम पर उच्छृंखलता, पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव और खत्म होता अनुशासन इत्यादि।
साहिब जिस देश और जाति में डिसिप्लिन न रहे वह जाति जाति नहीं रहती और वह देश देश नहीं रहता। (पृष्ठ-13)

     इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 1970 में हुआ था यह वह दौर था जहां एक तरफ भारतीय संस्कृति और दूसरी तरफ पाश्चात्य सभ्यता दोनों भारतीय जनमासन का मंथन कर रही थी। जहां एक तरफ भारतीय लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति को त्याग नहीं पाये और पाश्चात्य सभ्यता को भी पूर्णतः आत्मसात् नहीं कर पाये और इस चक्कर में हम कहीं के नहीं रहे- यहा एक नई सभ्यता और नई संस्कृति थी जो न भारतीय थी और न पश्चिमीय। (पृष्ठ-60)
कहने को यह कहानी/पार्टी फिल्मी लोगों की है पर यह सच पूरे समाज का है, जो धीरे-धीरे सभी जगह पैर पसार रहा है। इस सच को लेखक ने कथा वाचक शेखर के माध्यम से उजागर किया है।

एक विशेष पंक्ति के साथ समीक्षा को विराम।-
सीता ने लक्ष्मण रेखा पार की थी तो बहुत दुख पाया था।...भारत की सभ्यता और संस्कृति भी लक्ष्मण रेखा पार कर चुकी है। देखिए क्या होता है..... 


उपन्यास- लक्ष्मण रेखा
लेखक-    दत्त भारती
प्रकाशक-  कलाकार प्रकाशन, नई दिल्ली

पृष्ठ-          136
प्रकाशन- 1970

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