मौत की गाड़ी...
जंक्शन बलारा- अकरम इलाहाबादी
बलारा जंक्शन
बलारा ढाई-तीन सौ छोटे बड़े मकानों का एक औसत दर्जे का कस्बा था। यहाँ कि आबादी किसानो, जमींदारों और मजदूरों और देहाती महाजनों पर निर्भर थी। लेकिन इस छोटे से कस्बे की शांति को भंग करती थी एक ट्रेन। - बलारा जंक्शन से आधी रात के सन्नाटे में एक भयंकर मौत की रेल गुजरती थी। बिलकुल काली और भयानक जो कहां से आती और कहां जाती है किसी को नहीं मालूम स्टेशन मास्टर और स्टेशन का स्टाफ भी इस रात आठ बजे ही स्टेशन छोड़कर भाग जाते और स्टेशन से दूर दूर तक की सीमा में आदमी तो क्या जानवर तक दिखाई नहीं पड़ते। इस विचित्र रेल के बारे में यहाँ प्रसिद्ध था कि जो कोई उसे देख लेता है तुरंत मर जाता है। जब वह आने लगती है तो वातावरण में एक भयानक सी सीटी गूंजती है। सिग्नल अपने आप गिर जाता है, प्लेटफार्म की घण्टी अपने आप बजने लग जाती है। ...बलारा स्टेशन का मास्टर कहता है कि उसमे केवल एक बार इस गाड़ी को बंद कमरे की खिड़की से देखा था। पच्चीस वर्ष पहले की दुर्घटना में मरे हुये मुर्दे चलाते हैं। वह मुर्दा की रेल है। जिसके इंजन के सिर पर हैडलाइट की जगह मुर्दे की खोपड़ी दिखाई पड़ती है। दूसरी तरफ एक शहर में कुछ घटनाएं घटित होती है और मरने वाले के उपर खतरे का निशान छोड़ जाती हैं।- ....की गर्दन के पीछे एक रहस्यपूर्ण गोल निशान बना हुआ था। जिसके बीच में दो हड्डियां और मुर्दे की एक की तस्वीर बनी थी।
इन रहस्यमय घटनाओं को सुलझाने के लिए जासूस मधुलकर और उसका साथी जा पहुंचते है बिलाड़ा जक्शन जहाँ उनका सामना होता है एक रहस्य से।
"मिस्टर मधुलकर"- वह आवाज फिर गूंजी -" आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई, दर असल मैं यहाँ की पुलिस और उसकी कार्यवाही को बच्चे और बच्चों का खेल समझ कर आनंद प्राप्त करता रहता हूँ। वरना आप जैसा जासूस तो समझ ही सकता है कि मुझसे टक्कर लेना सिर्फ मुश्किल ही नहीं मौत को दावत देता ही है।"
जासूस मित्र कैसे इस रहस्यमय घटनाओं की हकीकत पता लगाते हैं और कैसे जूझते हैं मौत की ट्रेन से। यह उपन्यास पढने पर जाना जा सकता है।
यह उस दौर का उपन्यास है जब उपन्यासों में रहस्य-रोमांच का समय था। उपन्यास में तार्किकता नहीं होती थी कहानी पाठक को आश्चर्यचकित करने की दृष्टि से लिखी जाती थी। 'जंक्शन बलारा' भी एक ऐसा ही उपन्यास है जिसे आप मात्र मनोरंजन की दृष्टि से पढने तो आपके रोंगटे खड़े हो सकते हैं। लेकिन आप इस तार्किक दृष्टि से पढेंगे तो....तो आप रहने ही दीजिएगा,आप शुद्ध रहस्य और मनोरंजन को खो सकते हैं।
उपन्यास में कुछ हास्य घटनाएं है। जो आपको बहुत रुचिकर लगेगी।
हां उपन्यास का अंत कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं देता यह पाठक के विवेक पर है की वह उपन्यास के घटनाक्रम को जिस तरह से व्यवस्थित करता है और उनके उत्तर प्राप्त करता है। हां, उपन्यास को तार्किक दृष्टि से न पढे सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से पढे तो ज्यादा मनोरंजक लगेगी।
प्रस्तुत उपन्यास पठनीय और रोचक रचना है, जो आपका मनोरंजन करने में सक्षम है।
उपन्यास- जंक्शन बलारा
लेखक- अकरम इलाहाबादी
जंक्शन बलारा- अकरम इलाहाबादी
बलारा जंक्शन
बलारा ढाई-तीन सौ छोटे बड़े मकानों का एक औसत दर्जे का कस्बा था। यहाँ कि आबादी किसानो, जमींदारों और मजदूरों और देहाती महाजनों पर निर्भर थी। लेकिन इस छोटे से कस्बे की शांति को भंग करती थी एक ट्रेन। - बलारा जंक्शन से आधी रात के सन्नाटे में एक भयंकर मौत की रेल गुजरती थी। बिलकुल काली और भयानक जो कहां से आती और कहां जाती है किसी को नहीं मालूम स्टेशन मास्टर और स्टेशन का स्टाफ भी इस रात आठ बजे ही स्टेशन छोड़कर भाग जाते और स्टेशन से दूर दूर तक की सीमा में आदमी तो क्या जानवर तक दिखाई नहीं पड़ते। इस विचित्र रेल के बारे में यहाँ प्रसिद्ध था कि जो कोई उसे देख लेता है तुरंत मर जाता है। जब वह आने लगती है तो वातावरण में एक भयानक सी सीटी गूंजती है। सिग्नल अपने आप गिर जाता है, प्लेटफार्म की घण्टी अपने आप बजने लग जाती है। ...बलारा स्टेशन का मास्टर कहता है कि उसमे केवल एक बार इस गाड़ी को बंद कमरे की खिड़की से देखा था। पच्चीस वर्ष पहले की दुर्घटना में मरे हुये मुर्दे चलाते हैं। वह मुर्दा की रेल है। जिसके इंजन के सिर पर हैडलाइट की जगह मुर्दे की खोपड़ी दिखाई पड़ती है। दूसरी तरफ एक शहर में कुछ घटनाएं घटित होती है और मरने वाले के उपर खतरे का निशान छोड़ जाती हैं।- ....की गर्दन के पीछे एक रहस्यपूर्ण गोल निशान बना हुआ था। जिसके बीच में दो हड्डियां और मुर्दे की एक की तस्वीर बनी थी।
इन रहस्यमय घटनाओं को सुलझाने के लिए जासूस मधुलकर और उसका साथी जा पहुंचते है बिलाड़ा जक्शन जहाँ उनका सामना होता है एक रहस्य से।
"मिस्टर मधुलकर"- वह आवाज फिर गूंजी -" आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई, दर असल मैं यहाँ की पुलिस और उसकी कार्यवाही को बच्चे और बच्चों का खेल समझ कर आनंद प्राप्त करता रहता हूँ। वरना आप जैसा जासूस तो समझ ही सकता है कि मुझसे टक्कर लेना सिर्फ मुश्किल ही नहीं मौत को दावत देता ही है।"
जासूस मित्र कैसे इस रहस्यमय घटनाओं की हकीकत पता लगाते हैं और कैसे जूझते हैं मौत की ट्रेन से। यह उपन्यास पढने पर जाना जा सकता है।
यह उस दौर का उपन्यास है जब उपन्यासों में रहस्य-रोमांच का समय था। उपन्यास में तार्किकता नहीं होती थी कहानी पाठक को आश्चर्यचकित करने की दृष्टि से लिखी जाती थी। 'जंक्शन बलारा' भी एक ऐसा ही उपन्यास है जिसे आप मात्र मनोरंजन की दृष्टि से पढने तो आपके रोंगटे खड़े हो सकते हैं। लेकिन आप इस तार्किक दृष्टि से पढेंगे तो....तो आप रहने ही दीजिएगा,आप शुद्ध रहस्य और मनोरंजन को खो सकते हैं।
उपन्यास में कुछ हास्य घटनाएं है। जो आपको बहुत रुचिकर लगेगी।
हां उपन्यास का अंत कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं देता यह पाठक के विवेक पर है की वह उपन्यास के घटनाक्रम को जिस तरह से व्यवस्थित करता है और उनके उत्तर प्राप्त करता है। हां, उपन्यास को तार्किक दृष्टि से न पढे सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से पढे तो ज्यादा मनोरंजक लगेगी।
प्रस्तुत उपन्यास पठनीय और रोचक रचना है, जो आपका मनोरंजन करने में सक्षम है।
उपन्यास- जंक्शन बलारा
लेखक- अकरम इलाहाबादी
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