Thursday, 26 October 2017

75. गोली तेरे नाम की - नाना पण्डित

तीन माह और तीस हत्याएं
गोली तेरे नाम की, थ्रिलर उपन्यास, मध्यम स्तरीय।
केशव पण्डित को लेकर जितने हिंदी लोकप्रिय उपन्यास जगत में उपन्यास लिखे गये हैं उतने शायद ही किसी और पात्र को लेकर लिखे गयें हों।
लेकिन अफसोसजनक बात यह है की इस पात्र को लेकर अच्छे और सदाबहार उपन्यास किसी भी लेखक ने नहीं लिखे।
केशव पण्डित उपन्यास जगत में वह बहती गंगा थी जिसमें सभी प्रकाशकों ने अपने हाथ धोये।
   जुर्म के बाद जुर्म....हत्या के बाद हत्या.....।
आतंक की कोख से सर उठाता नया जुर्म हर बार....खून की स्याही से लिखी जाने वाली एक ऐसी पेचीदा अनसुलझी दास्तान......जिसका आदि था अंत.....।

  उपर्युक्त पंक्तियाँ उपन्यास के प्रथम कवर पृष्ठ के अंदर दी गयी है। हालांकि यह कोई अनसुलझी दास्तान नहीं है और इसका अंत भी है। बस प्रकाशन ने ऐसा ही लिख दिया।
       रायगढ़ रियासत में तीन महिनों में तीस युवकों की हत्या कर दी गयी। सभी नौजवान लगभग बीस साल के हैं। उनकी लाशें नग्न अवस्था में पायी जाती हैं। उनके साथ बेरहमी से अत्याचार किया जाता है और उनका अंग विशेष काट दिया जाता है। 

   वहाँ के राजा (जो पहले कभी थे) संदीप सिंह इस रहस्य को सुलझाने के लिए  अधीर भारत समाचार पत्र के संपादक रवि कपूर को केशव पण्डित के पास भेजते हैं।
  केशव पण्डित अपने साथी बलवंत राॅय और चतुर्वेदी के साथ रायगढ़ रियासत पहुंचते हैं और इस रहस्य को खोलते हैं।
      उपन्यास की कहानी काफी रोचक व दिलचस्प है। पाठक प्रारंभिक पृष्ठों से ही रोचकता के बहाव में बहने लगता है और पल-पल यह जानने को उत्सुक रहता है की आखिर इस रहस्यमय हत्याओं का कारण क्या है और हत्यारा कौन है।
    पाठक जैसे -जैसे आगे बढता है उसका रोमांच यथावत बरकरार रहता है।
संवाद-
उपन्यास में कहीं कोई उल्‍लेखनीय संवाद नहीं है, पर कहीं कहीं अनावश्यक लंबे व बोरियत भरे कथन अवश्य मिल जायेंगे।
कई जगह तो पाठक को समझ में भी नहीं आयेगा की कौन, किसके साथ क्या बात कर रहा है।
उपन्यास में गलतियों की बात करें तो एक नहीं अनेक गलतियाँ बुरी तरह से बिखरी पङी हैं।
लेखक ने लगता है उपन्यास को अच्छी कहानी होने के बाद भी जबरदस्ती से सस्पेंशफुल बनाने की कोशिश की है।
धङाम....धङाक....तभी...अचानक जैसे शब्दों की उपन्यास में भरमार है।
हद तो तब हो गयी जब कोई चाय का कप लेकर भी आया तो लेखक ने लिखा
और ...और...।
चीफ ने संकोच के साथ अपना सवाल जाहिर किया।
अचानक ...
तो काॅफी आ गयी
। (पृष्ठ -11)
अरे! भाई सिर्फ अचानक..तभी जैसे शब्दों से उपन्यास में सस्पेंश पैदा नहीं होता।
एक और शब्द है - प्लीज।
प्लीज शब्द इतनी बार लिखा है की पाठक पढते-पढते  उकता जाता है।
उपन्यास में कुछ दृश्य भी ऐसे हैं जो एक बार तो आ गये पर बाद में उनका कहीं वर्णन नहीं। ऐसा ही एक केशव पण्डित का साथी है तिवारी।
वह पता नहीं कब-कहां से उपन्यास में शामिल हुआ और कब -कहां से अलग हो गया।
  
        उपन्यास कहानी के स्तर पर बहुत अच्छा है लेकिन लेखक और मुद्रण की गलती से उपन्यास का स्वाद ही खत्म हो जाता है। कहीं-कहीं तो इन गलतियों के कारण खीज सी पैदा हो जाती है।
    यह एक मध्य स्तरीय उपन्यास है जो एक बार पढा जा सकता है।
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उपन्यास- गोली तेरे नाम की
लेखक- नाना पण्डित (जितेन्द्र मिश्र)
प्रकाशक- दुर्गा पॉकेट बुक्स
पृष्ठ-256.
मूल्य-25₹
  लेखक का पता-
नाना पण्डित
मो. मुन्नूगंज गाँधी विद्यालय के पीछे,
गोला गोकरन नाथ,
जिला- लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश- 262802
     

1 comment:

  1. रोचक समीक्षा। वैसे तो इन उपन्यासों के मिलने की सम्भावना अब न के बराबर है। कभी मिलेगा तो देखूँगा। कई बार तो मुझे लगता है कि लेखक को हिदायत दी जाती है कि कहानी को इतने पृष्ठों तक ले जाओ और इसलिए वो उसमे बेफालतू की चीजें ठूंसता जाता है। यहाँ भी शायद यही हुआ लगता है।

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