नसीब और कर्म की टक्कर
नसीब मेरा दुश्मन- वेदप्रकाश शर्मा, उपन्यास
वह A की हत्या के जुर्म में पकड़ा गया था।
और B के मर्डर की सफाई देने जा रहा था
और उसे C का कातिल साबित कर दिया।
क्या यह संभव है?
एक अविस्मरणीय कथानक।
क्या किसी शख्स नसीब इतना बुरा हो सकता है की वह हर जगह मात खा जाये, हर जगह उसे हार मिले, हर काम में उसे असफलता मिले।
क्या वास्तव में किसी आदमी का नसीब बुरा हो सकता है। लेकिन वेदप्रकाश शर्मा जी का उपन्यास 'नसीब मेरा दुश्मन' पढा तो पता चला की ऐसा भी कुछ हो सकता है।
'नसीब मेरा दुश्मन' कहानी है एक चोर-उच्चके मुकेश उर्फ मिक्की की। मिक्की का मानना है की उसका नसीब उसे हर बार धोखा देता है।- "यह साला बचपन से मुझे धोखा देता चला आ रहा है—सोने की खान में हाथ डालता हूं तो राख के ढेर में तब्दील हो जाती है, हाथ पर हीरा रखकर मुट्ठी बंद करूं तो खोलने तक कोयले में बदल चुका होता है।"
वेदप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास में इतना घूमाव होता है पाठक समझ भी नहीं सकता की आगे क्या होगा। सस्पेंश तो इस कदर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है जैसे पाठक को हार्ट अटैक आ जाये (क्या थोड़ा ज्यादा हो गया)
प्रस्तुत उपन्यास की कहानी की बात करें तो यह कहानी एक ऐसे युवक की है जिसका मानना है की उसका नसीब कभी साथ नहीं देता। उसे हर बार नसीब की वजह से असफलता हासिल होती है। कहानी है मुकेश उर्फ मिक्की की जो छोटी-मोटी चोरी कर के अपना जीवनयापन करता है। लेकिन मिक्की को अपने नसीब से बहुत शिकायत है। यह शिकायत तो यहा तक बढ जाती है की वह कहता है- यदि मेरा नसीब इंसान के रूप में सामने आ जाए तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर दूं। शक्ल इतनी बिगाड़ दूं कि खुद को पहचान न सके।
मिक्की अपनी हर बात दोस्त हरटू से शेयर करता है। रहटू भी जानता है की मिक्की का नसीब उसका साथ नहीं देता।
"फिर?"
"फिर क्या?"
"क्या रहा?"
"रहना क्या था, वही हुआ जो मेरे साथ हमेशा होता आया है।" मैं टूटे स्वर में कह उठा—"वह साला फिर धोखा दे गया।"
"क.....कौन?"
"वही.....मेरा पुराना दुश्मन।"
"नसीब?" रहटू ने पूछा।
इस बार मिक्की ने बनाया एक जबरदस्त प्लान। प्लान भी ऐसा की जिसकी सफलता ही मिक्की के लिए मौत का कारण बनने को तैयार हो जाती है। मिक्की को सफलता के बाद भी मौत नजर आती है।
"यही तो मुसीबत है, मेरे तो एक तरफ खाई, दूसरी तरफ कुआं—चाहे जिस तरफ बढूं.....रास्ता मौत तक ही जाता है।"
"और ये खाई और कुंआ अपने दोनों तरफ भी तुमने खुद खोदा है।"
"जाने-अनजाने मुजरिम से हमेशा ऐसा ही होता है।"
"फिर भी, तू फिक्र मत कर मिक्की—दांए-बांए कुआं भले ही सही, मगर तेरे आगे-पीछे मैं हूं—तेरा यार इन सारी मुसीबतों से तुझे निकालकर साफ ले जाएगा।"
यहा चर्चा उन्हीं पात्रों की है जिससे कहानी का प्रभाव खत्म न हो असली कहानी तो बहुत आगे की है। सभी पात्र ऐसे -ऐसे किरदार निभा रहे हैं की समझ से बाहर हो जाता है की वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। पाठक ही नहीं उपन्यास पात्र भी हैरान है-
एक उदाहरण देखें, ऐसे आदमी का जो बिना अपराध किये अपराध को स्वीकार कर लेता है। तब हैरानी तो होगी ही।
"और वह स्वीकार भी कर रहा है, जो उसने किया ही नहीं, उसे मान रहा है—सोचने वाली बात तो ये है कि आखिर क्यों है, क्या चक्कर है ये?"
सबसे बड़ी बात क्या मिक्की अपने नसीब से टक्कर ले पाया या फिर इस बार भी वह नसीब से हार गया।
रहटू ने उसका साथ कहा तक दिया या रहटू भी नसीब के सामने हार मान गया।
क्या आदमी का नसीब बड़ा है या उसका कर्म?
ऐसे उलझे हुए प्रश्नों का उत्तर यह उलझा हुआ उपन्यास ही दे सकता है।
वेद जी के उपन्यासों के कुछ पात्र चिरपरिचित अंदाज में प्रस्तुत होते हैं। ऐसे ही कुछ पात्र इस उपन्यास में भी उपस्थित हैं। ऐसे पात्र चाहे हर उपन्यास में मिल जायेंगे लेकिन अपनी दमदार प्रस्तुति के कारण अपनी अमिट उपस्थित दर्ज करवा ही जाते हैं।
रहटू- यह एक छोटा-मोटा गुण्डा है जो मिक्की का दोस्त है। वेद जी के उपन्यासों में अक्सर गुण्डों के ऐसे ही नाम मिलते हैं।
वह गिट्ठा था मगर इतना ज्यादा फुर्तीला कि सामने वाले के छक्के छुड़ा देता—लड़ाई के वक्त वह गेंद की तरह उछल-उछलकर वार करता।
इंस्पेक्टर महात्रे- पुलिस विभाग का तेजतर्रार आॅफिसर। जिस काम में हाथ डाल ले उसे पूरा करके ही मानता है।
म्हात्रे ने मोहक मुस्कराहट के साथ कहा-आप उसका सर्विस रिकॉर्ड देख लें और मेरे सर्विस रिकॉर्ड में ये पंक्तियां अण्डरलाइन हैं कि इंस्पेक्टर गोविन्द म्हात्रे एक ऐसी शख्सियत है जिसे कम-से-कम खरीदा नहीं जा सकता।"
"आप मुझे उन पुलिस वालों में से न समझें, मिस्टर.... जो सबूत न मिलने पर मुजरिम को सारी जिन्दगी सड़कों पर दनदनाता देखते रहते हैं, निराश होकर जो हथियार डाल देते हैं।"
उपन्यास में कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ है जो यादगार हैं। वैसे उपन्यास के संवाद ही पात्र के चरित्र को सही ढंग से व्यक्त करने में सक्षम होते हैं। जैसा की उपर इंस्पेक्टर महात्रे के कथन उसके स्वभाव को व्यक्त करते हैं।
ऐसी कुछ और पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत है।
- जम गई कि नसीब उसका सबसे बड़ा दुश्मन है और जिसके दिमाग में यह बात बैठ जाए, वह अपने जीवन में कम ही सफल हो पाएगा—कुण्ठाग्रस्त
- "वह पति खुशनसीब होता है भइया जिसकी पत्नी, पति के एक रात गायब होने पर नाराज हो जाए क्योंकि यह नाराजगी इस बात का द्योतक होती है कि उसकी पत्नी उससे बहुत प्यार करती है।"
इस उपन्यास को पढने के पश्चात मैं कह सकता हूँ की यह थ्रिलर-सस्पैंश उपन्यास पाठक का भरपूर मनोरंजन करने में सक्षम है। इसका कथानक पाठक नहीं भूल पायेगा।
उपन्यास- नसीब मेरा दुश्मन
लेखक- वेदप्रकाश शर्मा
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स
पृष्ठ- 234 (ebook)
उपन्यास लिंक- एमेजन नसीब मेरा दुश्मन
नसीब मेरा दुश्मन- वेदप्रकाश शर्मा, उपन्यास
वह A की हत्या के जुर्म में पकड़ा गया था।
और B के मर्डर की सफाई देने जा रहा था
और उसे C का कातिल साबित कर दिया।
क्या यह संभव है?
एक अविस्मरणीय कथानक।
क्या किसी शख्स नसीब इतना बुरा हो सकता है की वह हर जगह मात खा जाये, हर जगह उसे हार मिले, हर काम में उसे असफलता मिले।
क्या वास्तव में किसी आदमी का नसीब बुरा हो सकता है। लेकिन वेदप्रकाश शर्मा जी का उपन्यास 'नसीब मेरा दुश्मन' पढा तो पता चला की ऐसा भी कुछ हो सकता है।
'नसीब मेरा दुश्मन' कहानी है एक चोर-उच्चके मुकेश उर्फ मिक्की की। मिक्की का मानना है की उसका नसीब उसे हर बार धोखा देता है।- "यह साला बचपन से मुझे धोखा देता चला आ रहा है—सोने की खान में हाथ डालता हूं तो राख के ढेर में तब्दील हो जाती है, हाथ पर हीरा रखकर मुट्ठी बंद करूं तो खोलने तक कोयले में बदल चुका होता है।"
वेदप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास में इतना घूमाव होता है पाठक समझ भी नहीं सकता की आगे क्या होगा। सस्पेंश तो इस कदर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है जैसे पाठक को हार्ट अटैक आ जाये (क्या थोड़ा ज्यादा हो गया)
प्रस्तुत उपन्यास की कहानी की बात करें तो यह कहानी एक ऐसे युवक की है जिसका मानना है की उसका नसीब कभी साथ नहीं देता। उसे हर बार नसीब की वजह से असफलता हासिल होती है। कहानी है मुकेश उर्फ मिक्की की जो छोटी-मोटी चोरी कर के अपना जीवनयापन करता है। लेकिन मिक्की को अपने नसीब से बहुत शिकायत है। यह शिकायत तो यहा तक बढ जाती है की वह कहता है- यदि मेरा नसीब इंसान के रूप में सामने आ जाए तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर दूं। शक्ल इतनी बिगाड़ दूं कि खुद को पहचान न सके।
मिक्की अपनी हर बात दोस्त हरटू से शेयर करता है। रहटू भी जानता है की मिक्की का नसीब उसका साथ नहीं देता।
"फिर?"
"फिर क्या?"
"क्या रहा?"
"रहना क्या था, वही हुआ जो मेरे साथ हमेशा होता आया है।" मैं टूटे स्वर में कह उठा—"वह साला फिर धोखा दे गया।"
"क.....कौन?"
"वही.....मेरा पुराना दुश्मन।"
"नसीब?" रहटू ने पूछा।
इस बार मिक्की ने बनाया एक जबरदस्त प्लान। प्लान भी ऐसा की जिसकी सफलता ही मिक्की के लिए मौत का कारण बनने को तैयार हो जाती है। मिक्की को सफलता के बाद भी मौत नजर आती है।
"यही तो मुसीबत है, मेरे तो एक तरफ खाई, दूसरी तरफ कुआं—चाहे जिस तरफ बढूं.....रास्ता मौत तक ही जाता है।"
"और ये खाई और कुंआ अपने दोनों तरफ भी तुमने खुद खोदा है।"
"जाने-अनजाने मुजरिम से हमेशा ऐसा ही होता है।"
"फिर भी, तू फिक्र मत कर मिक्की—दांए-बांए कुआं भले ही सही, मगर तेरे आगे-पीछे मैं हूं—तेरा यार इन सारी मुसीबतों से तुझे निकालकर साफ ले जाएगा।"
यहा चर्चा उन्हीं पात्रों की है जिससे कहानी का प्रभाव खत्म न हो असली कहानी तो बहुत आगे की है। सभी पात्र ऐसे -ऐसे किरदार निभा रहे हैं की समझ से बाहर हो जाता है की वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। पाठक ही नहीं उपन्यास पात्र भी हैरान है-
एक उदाहरण देखें, ऐसे आदमी का जो बिना अपराध किये अपराध को स्वीकार कर लेता है। तब हैरानी तो होगी ही।
"और वह स्वीकार भी कर रहा है, जो उसने किया ही नहीं, उसे मान रहा है—सोचने वाली बात तो ये है कि आखिर क्यों है, क्या चक्कर है ये?"
सबसे बड़ी बात क्या मिक्की अपने नसीब से टक्कर ले पाया या फिर इस बार भी वह नसीब से हार गया।
रहटू ने उसका साथ कहा तक दिया या रहटू भी नसीब के सामने हार मान गया।
क्या आदमी का नसीब बड़ा है या उसका कर्म?
ऐसे उलझे हुए प्रश्नों का उत्तर यह उलझा हुआ उपन्यास ही दे सकता है।
वेद जी के उपन्यासों के कुछ पात्र चिरपरिचित अंदाज में प्रस्तुत होते हैं। ऐसे ही कुछ पात्र इस उपन्यास में भी उपस्थित हैं। ऐसे पात्र चाहे हर उपन्यास में मिल जायेंगे लेकिन अपनी दमदार प्रस्तुति के कारण अपनी अमिट उपस्थित दर्ज करवा ही जाते हैं।
रहटू- यह एक छोटा-मोटा गुण्डा है जो मिक्की का दोस्त है। वेद जी के उपन्यासों में अक्सर गुण्डों के ऐसे ही नाम मिलते हैं।
वह गिट्ठा था मगर इतना ज्यादा फुर्तीला कि सामने वाले के छक्के छुड़ा देता—लड़ाई के वक्त वह गेंद की तरह उछल-उछलकर वार करता।
इंस्पेक्टर महात्रे- पुलिस विभाग का तेजतर्रार आॅफिसर। जिस काम में हाथ डाल ले उसे पूरा करके ही मानता है।
म्हात्रे ने मोहक मुस्कराहट के साथ कहा-आप उसका सर्विस रिकॉर्ड देख लें और मेरे सर्विस रिकॉर्ड में ये पंक्तियां अण्डरलाइन हैं कि इंस्पेक्टर गोविन्द म्हात्रे एक ऐसी शख्सियत है जिसे कम-से-कम खरीदा नहीं जा सकता।"
"आप मुझे उन पुलिस वालों में से न समझें, मिस्टर.... जो सबूत न मिलने पर मुजरिम को सारी जिन्दगी सड़कों पर दनदनाता देखते रहते हैं, निराश होकर जो हथियार डाल देते हैं।"
उपन्यास में कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ है जो यादगार हैं। वैसे उपन्यास के संवाद ही पात्र के चरित्र को सही ढंग से व्यक्त करने में सक्षम होते हैं। जैसा की उपर इंस्पेक्टर महात्रे के कथन उसके स्वभाव को व्यक्त करते हैं।
ऐसी कुछ और पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत है।
- जम गई कि नसीब उसका सबसे बड़ा दुश्मन है और जिसके दिमाग में यह बात बैठ जाए, वह अपने जीवन में कम ही सफल हो पाएगा—कुण्ठाग्रस्त
- "वह पति खुशनसीब होता है भइया जिसकी पत्नी, पति के एक रात गायब होने पर नाराज हो जाए क्योंकि यह नाराजगी इस बात का द्योतक होती है कि उसकी पत्नी उससे बहुत प्यार करती है।"
इस उपन्यास को पढने के पश्चात मैं कह सकता हूँ की यह थ्रिलर-सस्पैंश उपन्यास पाठक का भरपूर मनोरंजन करने में सक्षम है। इसका कथानक पाठक नहीं भूल पायेगा।
उपन्यास- नसीब मेरा दुश्मन
लेखक- वेदप्रकाश शर्मा
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स
पृष्ठ- 234 (ebook)
उपन्यास लिंक- एमेजन नसीब मेरा दुश्मन
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