Tuesday, 10 March 2020

274. रुद्रगाथा- साहित्य सागर पाण्डेय


 एक प्रतिशोध कथा
रुद्रगाथा- साहित्य सागर पाण्डेय, उपन्यास

हिन्दी साहित्य का आदिकाल अपनी वीरगाथाओं के लिए जाना जाता है, इसलिए तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने आदिकाल का नामकरण 'वीरगाथा काल' किया था।
इंटरनेट पर मुझे एक किताब नजर आयी 'रुद्रगाथा'। गाथा शब्द ने मुझे आकृष्ट किया, मेरे दिमाग में तुरंत आदिकाल की वीरगाथाएं चकराने लगी। इसी चक्कर में 'रुद्रगाथा' नामक उपन्यास पढा गया।
       रुद्रगाथा शीर्षक उपन्यास के लेखक है 'साहित्य सागर पाण्डेय', लेखक का नाम भी स्वयं में आकर्षण का केन्द्र है। साहित्य का सागर जब रुद्र गाथा जैसी रचना रचेगा तो यकीनन पाठक शीर्षक से प्रभावित होगा, जैसा की मैं हुआ।
      अब बात करते हैं उपन्यास कथा की। - बात तब की है, जब भारतवर्ष कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था। पूरब- पश्चिम, उत्तर- दक्षिण, चारों दिशाओं में कई छोटे-छोटे राज्य बँटे हुए थे। उनमें से कई राज्यों में क्षत्रिय राजा ही शासन करते थे; केवल दक्षिण के कुछ राज्य अपवाद थे। भारत के सभी राज्यों में सबसे विशाल राज्य था वीरभूमि; और वीरभूमि में ही रहते थे एक ब्राह्मण, जिनका नाम था भद्र। अन्य ब्राह्मणों की तरह भद्र भी पूजा-पाठ करके अपना जीवन यापन करते थे। शास्त्रों के प्रकांड ज्ञाता थे भद्र। भद्र के परिवार में उनके अतिरिक्त केवल उनकी पत्नी रुक्मिणी ही थी। भद्र के लिये उनका कर्म ही उनकी पूजा थी। माँगलिक उत्सवों में पूजा-पाठ करके भद्र अपनी जीविका चला रहे थे।


इन्हीं भद्र और रुक्मिणी की कोख से रुद्र का जन्म हुआ। कुछ परिस्थितियों के चलते रुद्र ने व्यक्तिगत प्रतिशोध लेने की कसम खाई। ‘मैं उस राजा के पूरे वंश का नाश कर दूँगा; मैं ये प्रतिज्ञा लेता हूँ कि मैं पूरी धरती को क्षत्रिय विहीन कर दूँगा।’’ रुद्र, अपना पूरा ज़ोर लगाकर चीखा।
और उसी प्रतिशोध को पूर्ण करने के वह युद्ध पर युद्ध करता गया।
मुख्यतः इस उपन्यास की कहानी प्रतिशोध पर आधारित है। कैसे एक गरीब ब्राह्मण का पुत्र अपने समय के शक्तिशाली राजा से टकराता है और अपना प्रतिशोध पूरा करता है।
- क्या था वह प्रतिशोध?
- क्या रुद्र वह प्रतिशोध पूर्ण कर पाया?

यही दो मुख्य प्रश्न है जो उपन्यास को आगे बढाते हैं। पाठक इस प्रतिशोध को देखने के लिए पृष्ठ दर पृष्ठ उपन्यास को पढता चला जाता है।

उपन्यास में कुछ संवाद यादगार और प्रेरक भी हैं। उन्हीं में से एक देखें- आप सब एक बात की गाँठ बाँध लीजिये की, हम कोई भी युद्ध संख्याबल से नहीं जीतते अपितु हम जीतते हैं अपने मजबूत इरादों और दृढ़ इच्छाशक्ति से।''

उपन्यास में गलतियां काफी हैं जो उपन्यास को प्रभावित भी करती है। उदाहरण देखें-

उपन्यास में रुद्र का नामकरण अपनी माँ 'रुक्मिणी' के प्रथम अक्षर और पिता 'भद्र' के अंतिम शब्द से मिलकर बना है। वहीं रुद्र अपने पुत्र का नामकर भी अपनी पत्नी 'पूर्णिमा' के प्रथम अक्षर और अपने नाम 'रुद्र' के अंतिम अक्षर से रखता है। इस दृष्टि से रुद्र के पुत्र का नाम हुआ पूद्र लेकिन उपन्यास में नाम है 'पुरु'।
पूर्णिमा, इस शिशु का जन्म हम दोनों के मिलन से हुआ है और इसीलिये इसका नाम भी हम दोनों के नामों से मिलकर होगा।’’ रुद्र ने कहा।
‘‘तुम्हारे नाम के प्रथम अक्षर और मेरे नाम के अन्तिम अक्षर से होगा इसका नाम।’’ रुद्र ने हर्षित होकर कहा।
‘पुरु?’ पूर्णिमा ने हर्षित होकर कहा।



      उपन्यास में कहीं-कहीं चर्चित फिल्म बाहुबली का स्मरण भी हो जाता है।
जैसे बाहुबली फिल्म का नायक था प्रभास। यहा पूर्णिमा का भाई है प्रभास।
- बाहुबली में त्रिशूल व्यूह रचना की जाती है, उपन्यास में भी की जाती है।
- फिल्म का एक विशेष संवाद '...उसकी काटी जाती है गरदन' से मिलता संवाद भी उपन्यास में है।
हालांकि यह कोई विशेष बात नहीं है, बस मेरी दृष्टि में ये बाते आयी तो यहाँ लिख दी।
एक बात जो खटकती है। जब भी युद्ध लड़ता है तो  वह अपने लंबे बाल बांध कर युद्ध करता है ताकी युद्ध के दौरान बाल उसे परेशान न करें लेकिन यहा नायक रुद्र फिल्मों की तरह बाल खोल कर युद्ध लड़ता है।- रुद्र ने आज अपने केश खोल दिये थे।


एक दृश्य जो मुझे अजीब लगा। वह है रुद्र का 'फरसा' जो शेर के गले में फंस जाता है, उसे निकालने में छह घण्टे लग जाते हैं, हालांकि शेर मरा हुआ है।

जी हाँ, पर इसको उस शेर के गले से निकालने के लिये कौस्तुभ को कड़ी मेहनत करनी पड़ी अधिपति; उसे आपके फरसे को उस शेर के गले से निकालने में पूरे दो पहर लगे, और तब जाकर कहीं वो इस फरसे को शेर की गर्दन से निकाल पाया।

सबसे महत्वपूर्ण बात वह पता नहीं लेखक ने क्या सोच कर लिख दी। उपन्यास का मुख्य खल पात्र है राजा कर्णध्वज जिसे तक पहुंचने के लिए रुद्र को लंबा संघर्ष करना पड़ा, अनेकों युद्ध करने पड़े। राजा कर्णध्वज जिसके पास आठ लाख सैन्य बल है, जिसे क्षत्रिय राजा अपना प्रमुख मानते हैं। जिसके सामने सिर उठाने की कोई सोच नहीं सकता। उसके बारे में लेखक लिखता है-
कर्णध्वज, शिकार करने के लिये अपने साथ 1000 सैनिकों को लेकर आया था। वो स्वयं से शिकार भी नहीं कर पाता था। उसका कोई भी तीर निशाने पर नहीं लगता था। अपने जीवन में उसने कभी एक खरगोश का भी शिकार नहीं किया था, किन्तु प्रचारित तो उसने ये किया था कि वो शेरों का भी शिकार कर चुका है। सैनिकों के द्वारा मारे गये जानवर को राज्य में ये कहकर प्रचारित करवाता था कि इस जानवर का शिकार राजा कर्णध्वज ने किया है... अपनी वीरता की झूठी शान बघारता था। वो एक अयोग्य राजा था।
     इतना विरोधाभास। इस राजा को मारने के लिए रुद्र ने इतना संघर्ष किया। क्या कोई इतना डरपोक राजा हो सकता है जिसे अन्य राजा अपना प्रमुख मान ले। मुझे बहुत अजीब सा लगा।
    उपन्यास का आवरण चित्र प्रशंसनीय है

    उपन्यास का कथानक कोई विशेष रुचिकर नहीं है। सामान्य घटनाक्रम से भरी एक रक्तरंजित बदला प्रधान कहानी है जिसे अनावश्यक विस्तार दिया गया है जो उपन्यास को नीरस बनाता है।

उपन्यास - रुद्रगाथा
लेखक-    साहित्य सागर पाण्डेय
प्रकाशक-  redgrab

वेबसाइट- www.redgrabbooks.com
ईमेल- contact@redgrabbooks.com
आई एस बी एन : 978-93-87390-24-9
 आवरण : श्री कम्प्यूटर्स, इलाहाबाद

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