Sunday, 21 December 2025

696. पिंजरा- कुमार कश्यप

चल उड़ जा रे पंछी...
 पिंजरा- कुमार कश्यप

एक युवा लड़की जो एक पिंजरे में कैद थी । सिर्फ कैद ही नहीं उस पर अमानवीय अत्याचार भी होते थे और अत्याचारी था उसका परिवार । भाई की हरकतें सुन कर तो मानवता भी शरमा जाये।
एक दिन एक अजनबी ने बंद में पक्षी को हिम्मत दी और कहा - चल उड़ जा रे पंछी...

  आज हम यहां चर्चा कर रहे हैं कुमार कश्यप जी के एक सामाजिक उपन्यास 'पिंजरा' की ।

बादलों से घिरी अंधेरी शाम । ठंड और उस पर गरजते हुये बादल । जैसे कोढ़ में खाज । रात होने से पहले ही घटा-टोप अंधकार छा गया था, पूरे आसार थे कि पानी अब बरसा तब बरसा । सड़कों पर एकदम सन्नाटा था। ठिठुरती ठण्ड की वर्षा से कौन नहीं डरता । बार-बार बिजली चमक उठती थी उसकी कार तेज गति से ढलान से उतर कर सामने दिखाई देते नगर में प्रवेश करने को उतावली होती जा रही थी । कार की खिड़कियों के शीशे चढ़े हुये थे तथा कार की पिछली सीट पर एक गम्भीर व्यक्तित्व की गोर्ण स्त्री बैठी थी। उम्र यही चालीस की रही होगी। आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा, जिनसे झांकती हुई पत्थर सी कठोर आंखें । गम्भीर और चुप।


       ऐसी ही एक रात थी विनोद अपने अतीत के बारे में सोचने लगा । जब बिजली बादलों की तेज गरज के साथ चमक-चमक उठती थी । तब अन्धकार में ऐसा प्रतीत होता था जैसे प्रकृति के वक्ष से बार-बार आंचल फिसल जाता है। वह पैदल ही चला आ रहा था, थका मांदा। आज भी उसे नौकरी नहीं मिली थी रोज की तरह सड़क नापने और द्वार-द्वार घूमने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला था। उसका साहस जवाब दे गया था । उसका स्वाभिमान टूट गया था, उसे लगा जैसे उसने घर छोड़कर बहुत बुरा किया है
। (पिंजरा, कुमार कश्यप, प्रथम पृष्ठ)
  यह कहानी है विनोद नामक एक युवक की जो घर परिवार से दूर स्वयं के बल पर कुछ कर दिखाने की हिम्मत लिए घर से निकलता है लेकिन शीघ्र ही वह एक ऐसे जाल में फंस जाता है जो किसी के लिए 'पिंजरा' था । उस पिंजरे में से विनोद उस 'शख्स' को कैसे निकालता है यह उपन्यास पढने पर ही पता चलता है।
   विनोद की मुलाकात एक स्त्री से होती है जिसे एक कार्मिक की जरूरत थी और विनोद को काम की । लेकिन शीघ्र ही विनोद को उस स्त्री का घर परिवार रहस्यमयी नजर आने लगता है। कारण था उस घर की एक लड़की । जिसकी चीखें, उसके साथ व्यवहार आदि विनोद की नींद उड़ा रहे थे । वह लड़की थी चंदा और चंदा एक पिंजरे की पक्षी थी। वह चाहे सोने के पिंजरे में कैद थी पर उस पर अमानवीय अत्याचार होते थे ।
'हां मैं जानती हूं। अगर तुम मुझे मार डालना हो चाहती हो तो मुझे जहर क्यों नहीं दे देतीं, मेरा गला क्यों नहीं दबा देती ? यह जुल्म कब तक जहर बनकर मेरे घावों पर गिरता रहेगा । मैं लाश हूं. लाश सब कुछ होकर भी लाश हूं ! इस बन्द कमरे की चहारदीवारी मेरा जीवन है मेरा संसार है, मेरी घुटती हुई दम तोड़ती हुई सांसों पर तरस खाओ मम्मी !'
      यही अत्याचार विनोद को सोने नहीं देते थे। विनोद उस घर का कार्मिक था, घर की मालकिन के आगे बोल नहीं सकता था। पर पक्षी को पिंजरे आजाद तो करवाना ही था।
और एक दिन विनोद ने चंदा को हिम्मत दी-
विनोद ने एकदम विषय बदल दिया- 'आंसू पोंछ लो । जुल्म से टकराने के लिये कभी-कभी सिर उठाना पड़ता है। सिर झुकाये रहने वाला न जी सकता है और न मर सकता है । जमाने में जीने के लिये संघर्ष करना होता है । आओ शिकारे पर बैठकर अपने प्यार को नग्मों से सजायें, प्यार के सीने में इतना अपनापन भर दें कि अमीर गरीब, नौकर मालिक की सारी दीवारें टूट जायें ।'(पृष्ठ-70)

विनोद का प्यार और हिम्मत ने चंदा को एक नया जीवन दिया, उसॆ शक्ति दी ताकि वह उस पिंजरे से उड़ान भर सके जहां उसके परिवार वाले ही उस फूल से पक्षी पर अमानवीय अत्याचार कर रहे थे लेकिन पक्षी के लिए उडान भरना इतना आसान न था क्योंकि जो पिंजरे बंद है वह जब बाहर आता है तो 'अन्य' उसकी उड़ान को सहन नहीं कर सकते ।
" पिजरे से बाहर आये हुये पंछी को बाहरी पंछी कभी सुख चैन से नहीं रहने देते । ठीक उस तोते की तरह जो पिंजरे से निकलकर खुशी-खुशी उड़ तो जाता है परन्तु उसी के साथी उसे जान से मार देते हैं । चन्दा के हाथ में सुख और खुशी की लकीरें नहीं ।'(पृष्ठ-130)
    चंदा पिंजरे से मुक्त थी, सामने अनंत आसमान था और एक मनचाहा साथी भी। वह लम्बी उड़ान भर सकती थी, उसकी इच्छा भी थी। लेकिन शिकारी अपने शिकार को इतनी आसानी से कहां जाने देता है और यहां तो चंदा की किस्मत ही इतनी खराब थी की वह...।
     उपन्यास का आरम्भ सत्तर के दशक के जासूसी उपन्यासों जैसा था । एक बेरोजगार और राह चलते युवक को एक रहस्यमयी महिला नौकरी देती और वह भी मैनेजर की। लेकिन विनोद एक काम दिया जाता है एक मासूस युवती के हाथ-पैर बांधकर उसे 'टिम्बर एस्टेट' तक लेकर जाना  और वहां से वापस लाना।
यहां तक तो उपन्यास पूरा थ्रिलरमय था लेकिन शीघ्र ही उपन्यास में घेरलू  हिंसा, स्वार्थ आदि शामिल हो जाते हैं और कहानी बिलकुल नीरस और पारिवारिक हो जाती है। कहानी में सिर्फ एक रहस्य बचता है कि आखिर चंदा की मां और भाई उस पर अमानवीय अत्याचार क्यों कर रहे हैं। यह रहस्य कुछ समय तक चलता है।
    उपन्यास का अंत मेरी कल्पना से काफी अलग निकला था जो मन की गहराइयों तक छू जाता है।
कुमार कश्यप मूलतः एक जासूसी उपन्यासकार हैं लेकिन उन्होंने कुछ सामाजिक उपन्यास भी लिखे हैं जैसा की प्रस्तुत उपन्यास है।
यह उपन्यास न तो पूरा सामाजिक बन सका और न ही थ्रिलर । उपन्यास का अनावश्यक विस्तार भी पाठक को काफी अखरता है। उपन्यास में पढने को कुछ विशेष है नहीं जिसके आधार पर इसे याद रखा जा सके।
अंततः कुमार कश्यप जी का 'पिंजरा' उपन्यास एक लड़की चंदा की कहानी है जिस पर उसके परिवार द्वारा अत्याचार किया जा रहा है। वह उस पिंजरे से विनोद की मदद से आजाद होती है।
यह कहानी मानव की अत्यंत घृणित स्वार्थ की कहानी है। जहां परिवार के ही सदस्य धन के लोभ में परिवार के सदस्यों के दुश्मन बन जाते हैं।

उपन्यास- पिंजरा
लेखक -   कुमार कश्यप
पृष्ठ -       150
प्रकाशक - नीलम पॉकेट बुक्स, मेरठ

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