Wednesday, 21 August 2019

216. महाभारत के बाद- भुवनेश्वर उपाध्याय

महाभारत के पात्रों का चिंतन
महाभारत के बाद- भुवनेश्वर उपाध्याय
  
महाभारत के बाद भुवनेश्वर उपाध्याय की एक वैचारिक रचना है। यह मंथन है महाभारत के बाद जीवित बचे पात्रों का। उनका दृष्टिकोण है जो हुआ (महाभारत युद्ध) क्या वह उचित है, क्या वह आवश्यक था, क्या उसे टाला नहीं जा सकता था?
भारतवर्ष के इतिहास में सबसे बड़ा नरसंहार 'कौरव- पाण्डव युद्ध' रहा है।
        क्या यह युद्ध उचित था, क्या यह मात्र अपनी विजयार्थ लड़ा गया एक संग्राम मात्र था या इसके कोई और कारण भी रहे हैं। यह कोई सामान्य युद्ध न था यह तो महायुद्ध था यह तो धर्मयुद्ध था। जैसा की लेखक महोदय लिखते हैं- धर्मयुद्ध, धन-सम्पत्ति और सत्तात्मक अधिकारों‌ के‌ लिए नहीं होते, बल्कि दो मानसिकताओं के मध्य होते हैं; मानवीय मूल्यों और महत्वाकाक्षाओं के मध्य होते हैं।
वास्तव में यह दो मानिकताओं दो मूल्यों का द्वंद्व था। 



      सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर दू की इस किताब पर 'टिप्पणी' करना वास्तव में एक असाध्य कार्य है। क्योंकि यह कोई कथा-कहानी नहीं है, यह तो विचारों का संग्रह है। जिसे लिखने में लेखक को कठिन श्रम से गुजरना पड़ा है और उस रचना को एक दिन में पढकर उस पर टिप्पणी करना उचित नहीं है। यह रचना मात्र पढने के लिए बल्कि विचार करने के लिए है।

         फिर भी एक छोटा सा प्रयास है इस रचना के बारे में कुछ लिखने का। वह भी इसलिए की अन्य पाठक मित्र इस रचना की महता को समझ सके।
हर व्यक्ति का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। 'कौरव-पाण्डव युद्ध' के पश्चात यही दृष्टिकोण इस रचना में दृष्टिगत होता है।
      मैं यहाँ कुछ तथ्यों पर ही चर्चा करना चाहुंगा। सबसे पहले यह एक वैचारिक रचना है और चाहे यह विचार पात्रों के हैं लेकिन यह मंथन आलेख का है उसी मंथन से से जो विचार उत्पन्न हुये वह महाभारत के पात्रों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचे हैं।
       दूसरा इस किताब को वास्तव में पढकर जाना जा सकता है, उस पर तर्क-विर्तक हो सकता है। क्योंकि तभी हम उस पात्र की मनोस्थिति को समझ सकते हैं।
       रचना की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत है जो पात्रों के मनोभाव और इस रचना की विषयवस्तु प्रकाश डालती हैं।
- वो धर्म, वो जड़ता, वो ज्ञान और वो सभी कुछ त्याग दो, जो मनुष्य बने रहने में बाधक हो, अनिष्टकारी हो....केवल प्रेम का वरण करो; उससे अधिक सुंदर और सच्ची वस्तु इस संसार में दूसरी नहीं है।
- काम वासनाएँ आदमी को भीतर से खोखला और बुद्धि से विकेकहीन बाम देती हैं।
(पृष्ठ-19)
- धर्म और ज्ञान के बिना मनुष्य का कल्याण हो ही नहीं सकता।
- युयुत्सु ने धर्म का मार्ग, स्वय विवेक अपने विवेक से चुना और वह आज जीवित है। (पृष्ठ-36)
धर्म में अगर लचीलापन न हो तो वह अनर्थकारी बन जाता है। (पृष्ठ-74)
- क्षमा, भूल के लिए होती है और अपराध के लिए दण्ड। (पृष्ठ- 74) द्रोपदी

कुछ पात्रों को बहुत कम शब्दों में समेट दिया और कुछ का विस्तार भी है।
जैसा की महाभारत में नकुल और सहदेव का वर्णन कम मिलता है वैसा ही इस रचना में है। दोनों को एक अध्याय में ही समेट दिया।
इस रचना में अभी भी इतनी जगह रिक्त है की लेखक और भी पात्रों को जगह दे सकता था।
हां, एक बात जो मुझे थोड़ी महसूस हुयी वह है की रचना को वैज्ञानिक तथ्यों पर नहीं परखा गया। वर्तमान में यह आवश्यक भी है।
हर पात्र को अलग-अलग अध्याय दिया गया है लेकिन वहाँ प्रत्येक अध्याय की एक संख्या दी गयी है अगर संख्या की जगह अध्याय का शीर्षक पात्र के नाम से होता तो ज्यादा सही था।
जैसे-
3- धृतराष्ट्र
4- गांधारी
6- द्रौपदी
7-भीम
यहाँ तृतीय अध्याय में धृतराष्ट्र के विचार व्यक्त हैं तो इस अध्याय का नाम धृतराष्ट्र होना चाहिए था न की संख्या- '3'
यह एक पठनीय रचना है। महाभारत के पात्रों का युद्ध के पश्चात, युद्ध और अन्य परिस्थितियों पर विचार करना और अपने मनोभावों को प्रकट करना पठनीय है।

पुस्तक- महाभारत के बाद
लेखक- भुवनेश्वर उपाध्याय
प्रकाशक- रैडग्रैब बुक्स
पृष्ठ- 120

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