Friday, 15 March 2019

178. देवताओं की धरती- साधना प्रतापी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद की कथा।


        भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर बहुत सी रचनाएँ लिखी गयी हैं। इसी क्रम में एक उपन्यासकार साधना प्रतापी का उपन्यास 'देवताओं की धरती' विद्यालय पुस्तकालय से प्राप्त हुआ।
          इस उपन्यास की कहानी मुख्यतः दो भागों में विभक्त है। एक स्वतंत्रता से पूर्व और दूसरी स्वतंत्रता के पश्चात की परिस्थितियों पर।
       देश की स्वतंत्रता के लिए देशप्रेमी शहीद हो गये और देश स्वतंत्रत हो गया लेकिन जिस आजाद देश के सपने देखे थे वे सपने अधूरे रह गये।

यह उपन्यास समर्पित है "उन शहीदों के नाम, जिनके बारे में इतिहास भी मौन है।"

         भारतीय स्वतंत्रता में एक बड़ी बाधा थी वह था कुछ भारतीय लोगों का अंग्रेज सरकार के प्रति समर्पण। ऐसे ही एक व्यक्ति थे सर मेला राम जो अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार थे। लेकिन मेला राम का भाई धर्मवीर देश प्रेमी निकला। जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के होम में स्वयं को जला दिया।- बिना रक्त बहाए आजादी नहीं मिलती। जब तक अँग्रेजों को ईंट का जवाब पत्थर से नहीं मिलता, तब तक इनके होश ठिकाने नहीं आयेंगे। (पृष्ठ-80)

आजादी मिलेगी। गुलामी की बेड़ियाँ कटेगी, सारा देश खुशहाल होगा। जनता का अपना राज्य होगा। सबको कपड़ा, रोटी और मकान मिलेगा। कोई छोटा बड़ा न होगा। (पृष्ठ-48)

          और आजादी मिली। सन् 1947 का वह विभाजन जिसका दर्द आज तक महसूस होता है।‌ इंसान धर्म के नाम पर शैतान बन गया। चारों तक साम्प्रदायिक दंगो का वातावरण था- ऐसे वातावरण में कइयों ने तो अपनी मनचाही लड़की को अपने पहलू में‌ लिटाकर बटवारे की अमर कहानी में चार चाँद लगा दिये। (पृष्ठ-102)


             वास्तव में यह कहानी यही खत्म नहीं होती यह तो आजादी के बाद के यथार्थ को भी रेखांकित करती है। कैसे कुछ लोग भारतीय स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने लगे, कैसे लोग स्वतंत्रता सेनानी होने का बहाना बनाकर अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि करने लगे। किसी ने सही कहा था 'भारत में सिर्फ सरकार बदली, नीतियाँ नहीं।"
            जहाँ एक तरफ धर्मवीर जैसे देशभक्त हैं जिन्होंने स्वयं के परिवार को बलिवेदी पर चढा दिया और वहीं कुछ ऐसे तथाकथित देशभक्त भी हैं जो देशभक्ति के नाम पर अपना राजनीतिक स्वार्थ पूरा करते हैं।
           इसी संघर्ष को आधार बना कर यह उपन्यास रचा गया है। उपन्यास में उसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक दंगों का भी स्टीक चित्रण मिलता है। दंगों का वह भयावह रूप जिसका दर्द दोनों तरफ के लोगों को दर्द झेलना पड़ा। धर्म के नाम पर दंगे करने वाले हैं तो कर्म सिंह जैसे लोग भी हैं जो मानवता के लिए अपनी जान दे देते हैं। फातिमा जैसे लोग भी इसी धरती पर हैं जो लोगों की नजरों में चाहे बुरे हो लेकिन मानवीय दृष्टिकोण से प्रशंसनीय है।‌

          उपन्यास सन् 1965 में प्रकाशित हुआ यह वही समय था जब पंजाब को एक अलग राज्य बनाये जाने की मांग उठ रही थी। यह मांग उठाने वाले कैसे तत्व थे यह उपन्यास में स्पष्ट चित्रित होता है। पहले इन्होंने पंजाबी भाषा का रोना रोया और अब यह पंजाबी सूबा का रोना रो रहे हैं। (पृष्ठ-171)
           उपन्यास में ऐसे नेताओं का चरित्र उभारा गया है को अपने स्वार्थ के लिए देश के टुकड़े करवा देते हैं।

उपन्यास की भाषा शैली बहुत अच्छी है, कुछ वाक्य तो यादगार बन गये हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ पंक्तियाँ देखिएगा-

- धर्म हमें न्याय का मार्ग सिखाता है न कि अन्याय तथा अधर्म का। (
पृष्ठ-164)
- जब एक मित्र के दिल में मैल आ जाये तो दूसरे का कर्त्तव्य है कि उस मैल को धोने का प्रयत्न करे। (पृष्ठ-158)

- देश की बागडोर काॅग्रेस के हाथ में है और काँग्रेस में कुछेक व्यक्तियों को छोड़कर बाकी सभी कुम्बापरस्ती और स्वार्थपरता को अपने साथ चिपकाए हुए हैं। (पृष्ठ-154)

- राजनैतिक प्रतिनिधित्व से कहीं अधिक आवश्यकता सामाजिक प्रतिनिधित्व की है। (पृष्ठ-145)

- इस संसार में सब खूनी है। कोई किसी की इज्जत का खून करता है, कोई किसी के चरित्र का खून करता है, कोई किसी के अधिकारों का खून करता है और कोई किसी के परिश्रम का खून करता है। (पृष्ठ-48)

- अपने आप को सभ्य तथा प्रगतिशील कहने वाले यूरोपियन लोग औरत को भोग की वस्तु मानते हैं। (पृष्ठ-19)
             भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद की परिस्थितियों पर लिखा गया यह उपन्यास बहुत अच्छा है लकिन उपन्यास अंत से पूर्व बहुत धीमा हो जाता है, कहीं कहीं तो ऐसा लगता है की उपन्यास को अनावश्यक विस्तार दिया गया है। अगर उपन्यास को स्वतंत्रता पूर्व या स्वतंत्रता पश्चात किसी एक विषय पर ही लिखा जाता तो बहुत अच्छा होता।



निष्कर्ष-
              साधना प्रतापी का उपन्यास 'देवताओं की धरती' भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का चित्रण करने के साथ-साथ भारत के आजाद होने के पश्चात आये राजनीति परिवर्तन और लोगों के स्वार्थ का यथार्थवादी चित्रण करता है।
उपन्यास का विस्तार कुछ ज्यादा है। अंतिम चरण में आकर कुछ हद तक उपन्यास निराश करता है लेकिन फिर भी इसका समापन अच्छा है।

उपन्यास- देवताओं की धरती
लेखक- ‌ साधना प्रतापी
प्रकाशक- नवयुग प्रकाशन, दिल्ली-7
पृष्ठ- 180



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