Sunday, 30 September 2018

144. हंस- पत्रिका

हंस पत्रिका- नवसंचार के जनाचार

हंस पत्रिका का सितंबर -2018 अंक नवसंचार के जनाचार को समर्पित है। यह हंस का विशेषांक है। इस अंक में वर्तमान सोशल मीडिया संबंधी आलेख पढने को मिलेंगे।

संपूर्ण अंक को कई भागों में बांटा गया है।

मेमरी ड्राईव- आदिकाल

इमाॅटिकाॅन- छवि भाषा

डिजिटल डेमाॅक्रैसी- वायरल जनतंत्र

हैशटैग- अस्मिता विमर्श

बुकमार्क

इस प्रकार समस्त आलेख दस भागों में विभक्त हैं। प्रत्येक खण्ड/भाग में शीर्षक संबंधी सामग्री समेटने की कोशिश की गयी।

वर्तमान में सोशल मीडिया का किस तरह से प्रयोग हो रहा है इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है। सोशल मीडिया ने चाहे अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता दे दी लेकिन इसके गंभीर खतरे भी हैं।


संपादकीय में बहुत अच्छी बात लिखी है- लेखन का अर्थ सत्ता की चाकरी, कुर्सी और पद बचाने के लिए किसी भी हद तक गिर जाना नहीं बल्कि रीढ और साख को सही सलामत रखना है। (पृष्ठ-10)

       रवि रतलामी का आलेख 'धड़ल्ले से कैसे लिखें देवनागरी में?' देवनागरी लेखन‌ को प्रेरित और लेखन में आयी समस्या-समाधान को समर्पित है। इंटरनेट पर पहले हिंदी लेखन एक समस्या थी, फाॅट की समस्या बहुत ज्यादा थी लेकिन वर्तमान में यह समस्या बहेहद तक सुलझ गयी।

फाॅट को लेकर उत्पन्न समस्या पर आधारित है डाॅ. प्रकाश हिंदुस्तानी का आलेख 'इंटरनेट पर हिंदी का आना।

हिंदी फाॅट की समस्या एक समय बहुत ज्यादा थी , जिसका सामना उस समय के कम्प्यूटर प्रयोक्ता को करना पड़ता था। 

अनूप शुक्ल का आलेख चाहे ब्लॉगिंग से संबंधित है, पर फाॅट समस्या उनको भी झेलनी पड़ी। इनके आलेख 'ब्लाॅगिंग: आदिम डिजिटल विधा' में ब्लॉग सबंधित काफी अच्छी जानकारी दी गयी है।

एक समय था तक ब्लॉग सोशल मीडिया में खूब प्रचलन में था। "अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लॉगिंग का प्राण तत्त्व है।"


          बालेन्दु शर्मा दधीज ने 'रचना के फिसलते मौके' में सोशल मीडिया के बारे में बहुत अच्छी बात कही है। वो लिखते हैं- "....आखिर क्यों हम अपने समाज, साहित्य, कला और देश के लिए सकारात्मक ढंग से इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे?" (पृष्ठ-36)

        आज हमारे पास सोशल मिडिया जैसा सार्वजनिक मंच है जहां हम‌ अपनी बात स्वतंत्रता के साथ कह सकते हैं लेकिन क्या हम इस मंच का सार्थक उपयोग कर पा रहें हैं। अगर हम सोशल मीडिया जैसे मंच का सार्थक उपयोग कर पाये तो यह हमारी उपलब्धि होगी।

           सुशील जी 'छवियों का कुरुक्षेत्र' में लिखते है की हम बिना सोचे- समझे किसी भी तस्वीर को शेयर कर देते हैं। हम उस तस्वीर की सच्चाई जानने की कोशिश भी नहीं करते। हमारी एक छोटी सी भूल किसी के जीवन के लिए खतरा भी हो सकती है। हम जाने -अनजाने में किसी असत्य बात का प्रचार कर देते हैं। इसलिए आवश्यक है की किसी भी चित्र को सोशल मिडिया पर शेयर करने से पूर्व उसकी सत्यता परख लें


              यह अंक हंस का अन्य अंको से अलग है। उस अंक में कथा-कहानी या कविता को स्थान न देकर मात्र नवसंचार के जनाचार को ही स्थान दिया गया है।

अगर वर्तमान सोशल मीडिया को समझना है तो यह अंक काफी उपयोगी होगा।

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त्रिका- हंस

अंक- सितंबर -2018(पूर्णांक-383, वर्ष-33, अंक-2)

संपादक- संजय सहाय

www.hanshindimagazine.in

हंस का सितंबर अंक




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