Monday, 29 September 2025

देख लिया तेरा कानून- कर्नल रंजीत

ग्यारह हत्याओं की मिस्ट्री
देख लिया तेरा कानून- कर्नल रंजीत

ऐसे सफेदपोश लोगों की अजब-जब कहानी, जो शराफत, इन्सानियत, समाज सेवा का खूबसूरत चोला पहने हुए थे; लेकिन थे वे सिर तक अपराध में डूबे हुए, ढोंगी, मक्कार और घिनौने चेहरे ।
मुखौटेघारी ऐसे लोग, जो कहने को तो कानून के रखवाले थे; लेकिन वास्तव में थे कानून के भयानक दुश्मन ।
एक नौजवान जिसे अगले दिन फांसी दी जाने वाली थी जेल से फरार !
कड़ी सुरक्षा के बीच हथियारों और गोला-बारूद की चोरी, फांसी के फंदों में लटकाकर हत्याएं करने का अनोखा सनसनीखेज तरीका !
चीखते-पुकारते-कराहते बेगुनाह लोगों पर भी अत्याचार, और भी ढेरों रहस्य छिपे पड़े हैं कर्नल रंजीत के इस नये दमदार धमाके में

  देख लिया तेरा कानून

भयानक सपना
"नहीं -ऽ ऽ ऽ ई ऽऽ ई..!"
एक हृदयवेधी चीख रात के सन्नाटे को चीरती हुई नैनी सेण्ट्रल जेल के वार्ड नम्बर तीन की छत और दीवारों से टकराकर गूंज उठी ।
उस दर्द-भरी चीख को सुनकर वार्ड के सोये कैदी जाग उठे और अपने चारों ओर छाए मलगजी अंधेरे में इधर-उधर देखने लगे ।
"क्या हुआ काका !" चीख सुनते ही मंगल की आंख सबसे पहले खुली थी। वह अपने बिस्तर से उठकर झपटता हुआ वार्ड के दरवाजे के सामने सोये लक्षमन सिंह के पास पहुंच गया था ।
लक्षमन सिंह के उत्तर न देने पर उसने दोनो हाथों से उनके कन्धे पकड़ लिए और उन्हें हिलाते हुए उसने फिर पूछा, "क्या बात है काका ! क्या कोई डरावना नपना देखा था तुमने ?"
लक्षमन सिंह का सारा शरीर पसीने में डूबा हुआ था । उनके हाथ-पांव इस तरह कांप रहे थे जैसे उन्हें जूड़ी चढ़ आई हो। उनकी बड़ी-बड़ी फटी हुई आंखें सलाखों के पार कहीं शून्य में टिकी हुई थीं।
          मंगल की आवाज सुनकर वार्ड में सोये कैदी उठकर लक्षमन सिंह के पास आ गए थे। मंगल ने अपने सिरहाने रखें बड़े से गिलास में पानी उड़ेला और तीन-चार साथी कैदियों की सहायता से लक्षमन सिंह को बैठाकर गिलास उनके होंठों से लगा दिया। (उपन्यास के पृष्ठ से)

    प्रस्तुत उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री रचना है और जिसमें कुल ग्यारह हत्याएं होती हैं। पहली हत्या होती है इलाहाबाद  के प्रसिद्ध 'विजय पैलेस' में।


विजय पैलेस में फांसी
यमुना नदी के बायें किनारे पर एक बहुत ऊंचे टीले पर बना कमिश्नर मिस्टर वी० पी० सिंह का भव्य और विशाल बंगला रात के अंधेरे में अनगिनत रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमगा रहा था ।.......
       यह बंगला हाल ही में बनकर तैयार हुआ था। आज गृह प्रवेश के अवसर पर शहर के गण्यमान्य व्यक्तियों को रात्रिभोज के लिए आमन्त्रित किया गया था।

यहां पुलिस के उच्चाधिकारी, नेता, व्यापारी और  सेशन जज कुंवर रामनरेश सिंह, एस. पी. A.K. सिन्हा जैसे गण्यमान्य व्यक्तियों होते हुये भी किसी ने कमिश्नर वी.पी. सिंह के‌ पुत्र मानवेन्द्र सिंह की हत्या कर दी और वह भी अत्यंत घिनौने तरीके से मानवेनद्र सिंह का शव फंखे के साथ लटका हवा में घूम रहा था ।
  पुलिस के साथ क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर किशोर वर्मा भी पहुंचे लेकिन वह भी कोई तथ्य न तलाश सके । वहीं मानवेन्द्र के दोस्त उमेश यादव ने कहा की वह मानवेन्द्र के हत्यारे को खोजने के लिए प्रसिद्ध जासूस मेजर बलवंत को बुलाऐगा। और उसने मेजर बलवंत को बुलाया भी और मेजर बलवंत के पहुंचने तक जज कुंवर रामनरेश और एस. पी. ए.के. सिन्हा के पुत्र असित की भी हत्या गले में रस्सी डालकर की जा चुकी थी ।
   जब मेजर बलवंत घटनास्थल पर पहुंचा तो उसे ऐसा एक  भी तथ्य नहीं मिला जिसके आधार पर वह अपराधी का पता लगा सके।
          अपने जीवन में आज पहली बार मेजर बलवन्त अपने-आपको असहाय और बेबस महसूस कर रहा था। उसे कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था, जिस पर चलकर वह हत्यारे की ओर बढ़ने का प्रयास कर पाता ।
सोचते-सोचते उसका दिमाग बुरी तरह भिन्ना उठा
।(पृष्ठ- 47)
  लेकिन प्रसिद्ध जासूस मेजर बलवंत इतनी जल्दी हार मानने वाला तो नहीं है। वह अपनी टीम सुधीर, सुनील,मालती, डोरा, सोनिया और कुत्ते क्रोकोडायल के साथ डटा हुआ था ।
             लेकिन मेजर बलवन्त किसी अन्तिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया। उसने निश्चय किया कि आज वह मानवेन्द्र सिंह, असित कुमार सिन्हा और सेशन जज राम नरेश सिंह के सम्बन्ध में अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करेगा, क्योंकि इन तीनों की हत्याओं में अद्भुत समानताएं पाई गई हैं, इसलिए हो सकता है, इन तीनों के बीच कोई-न-कोई ऐसा रहस्य जुड़ा हो जो इनकी हत्या का कारण बना हो।(67)
      मेजर बलवंत अपनी टीम के साथ यमुना नदी के किनारे बने विजय पैलेस में ठहरे हैं। यहां नदी के दूसरी तरफ बने हनुमान मंदिर का दृश्य दिखता है।
उपन्यास में यहाँ दो और मुख्य पात्र शामिल होते हैं। एक है मानवेन्द्र के दोस्त उमेश यादव के पिता देवेश यादव जो की राजनेता,व्यापारी और समाज सेवक हैं और द्वितीय है खूबसूरत सुनीता जो समाजसेविका है और नेताओं की शह से आगे बढ रही है।
     अब जैसे जैसे कहानी आगे बढती है वैसे -वैसे हत्याएं होती जाती हैं। जिनमें एक विशेष हत्या होती है आर्मी कैप्टन जगवीर सिंह की। जगवीर सिंह की लाश दो और अपराधियों के साथ एक पेड़ पर लटकी मिलती है। और यह भी चिंता का विषय था की रात को कैप्टन जगवीर वहाँ क्यों आया और उसकी हत्या किसने की, उसका अपराधियों के साथ क्या संबंध था।

इन्स्पेक्टर किशोर वर्मा ने जब इन तमाम हत्याओं की समानता का उल्लेख मेजर बलवन्त से किया, तो उसने गम्भीर स्वर में कहा, "इन्स्पेक्टर वर्मा ! मैं भी यही सोच रहा हूं और इन समानताओं ने मुझे यह मानने पर मजबूर कर दिया है कि मानवेन्द्र सिंह, असित सिन्हा, सेशन जज कुंवर रामनरेश सिंह, कैप्टन जगवीर सिंह, सब-इन्सपेक्टर प्रीतम सिंह, सुनीता की मुंह बोली चाची और शहर के छंटे हुए दोनों गुण्डों के बीच कोई-न-कोई सम्बन्ध जरूर था ।

        उपन्यास की अंतिम और ग्यारहवीं हत्या इलाहाबाद से दूर बनारस में एक सेठ की गोली मारकर हत्या होती है। जिसे मेजर बलवंत हल करते हैं। 
    प्रस्तुत उपन्यास एक रोचक मर्डर मिस्ट्री है जिसमें हत्या के अतिरिक्त भी काफी ट्विस्ट और उलझने हैं। कहानी सिर्फ हत्या और खोजबीन पर ही आधारित नहीं है बल्कि छोटी-छोटी घटनाओं को भी समाहित किये हुये हैं।
जैसे जेल से फरार कैदी, कैप्टन जगवीर की हत्या, हनुमान मंदिर का रहस्य और मेजर बलवंत के साथियों का अपहरण इत्यादि।
- मेजर बलवन्त और उसके साथी भी हैरान थे कि यहां उनका ऐसा कौन-सा दुश्मन पैदा हो गया, जिसने सोनिया, डोरा और मालती के साथ सेशन जज रामनरेशसिंह की बेटी यशोधरा का भी अपहरण कर लिया था?(121)
     कर्नल रंजीत के उपन्यासों की कुछ विशेषताएं
रहस्यमयी बंगला-
कर्नल रंजीत के उपन्यासों में कुछ रहस्यमयी बंगले अवश्य होते हैं। यहां भी ऐसे बंगले/ किले उपस्थित हैं।
- लगभग डेढ सदी पुराना यह बंगला जितना विशाल था, उससे कहीं अधिक रहस्यपूर्ण दिखाई दे रहा था । (पृष्ठ-84)

रहस्यमयी पात्र-
"हुजूर ! काला स्याह लबादा ओढ़ वह इन्सान नहीं कोई राक्षस ही था। उसकी ऊंचाई सात फुट से कम नहीं थी। मेरे सिर से भी दो गुना बड़ा उसका सिर था। मैंने उसका वह हाथ देखा था, जिसमें उसने टार्च थाम रखी थी । उसकी कलाई मेरी पिंडली से भी मोटी थी। उसके हाथ के रंग और उसके लबादे के रंग में बस थोड़ा-सा उन्नीस-बीस का फरक्क था। वह इतनी जोरसे सांस ले रहा था जैसे कोई गेहु-अन अपने शिकार की ओर बढ़ते हुए धीरे-धीरे फुंकारता है।" नत्थू ने कहा। उसकी आंखें भय से फैल गई थीं।(148)
कर्नल रंजीत के उपन्यासों में ऐसे रहस्यमयी पात्र अवश्य मिलते हैं लेकिन प्रस्तुत उपन्यास में यह पात्र कौन था, यह कहीं स्पष्ट नहीं किया गया। यह भी एक रहस्य बनकर रह गया।
चाय का शौकीन-
मेजर बलवंत चाय या काॅफी का शौकीन है वह अपने साथियों के साथ अक्सर चाय पीते हुये ही केस पर चर्चा करता है।
"पहले चार-पांच प्याले गर्म-गर्म चाय बनवाकर ले आओ। फिर बताऊंगा।" मेजर बलवन्त ने जल्दी-जल्दी उत्तर दिया ।
  

मेजर बलवंत सेना का जवान रहा है । मेजर का यह परिचय इनके प्रथम उपन्यास में मिलता है और प्रस्तुत उपन्यास में इसकी पुष्टि ब्रिगेडियर शीतांशु भादुड़ी करते हैं।
             ब्रिगेडियर शीतांशु भादुड़ी ने मेजर के सैल्यूट का उत्तर दिया, लेकिन दूसरे ही पल सारी औपचारिकता भूलकर उसने मेजर बलवन्त के दोनों हाथों को अपने हाथों में थाम लिए और उन्हें हिलाते हुए बोला, "मेजर साहब ! क्या कभी किसी ने सपने में भी सोचा होगा कि भारतीय स्थलसेना का एक मेजर एक दिन संसार का सर्वश्रेष्ठ और महान जासूस बन जाएगा ?"(98)

संवाद-
"इंसान के मन में क्रोध, हिंसा और क्रूरता जैसे पाशविक भावनाएं तभी पैदा होती हैं, जब उसके स्वार्थ पर चोट पड़ती है।" (पृष्ठ -191)

चलते चलते-
लेकिन इस बंगले के नये मालिक गंगाधर वाजपेयी इस बंगले में दो-तीन महीने से अधिक नहीं रह पाए थे, क्योंकि उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को सोते जागने मिस्टर ब्राउन की प्रेतात्मा बंगले के कमरों, बगीचों, लानों और बाग में अक्सर घूमती दिखाई देती रहती थी। एक विदेशी की प्रेतात्मा को भगाने के लिए गंगाधर वाजपेयी ने बंगले में इक्कीस दिन तक बनारस से से बुलाए गए इक्कीस ब्राह्मणों से यज्ञ भी कराया था; लेकिन गुलाम भारत के गुलाम नागरिक के मन्त्रों का शासक देश के नागरिक और उच्चपदाधिकारी की प्रेतात्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। हारकर गंगाधर वाजपेयी कौड़ियों में मिले इन विशाल बंगले को छोड़कर पीटर रोड की अपनी छोटी पुरानी कोठी में वापस चले गए थे और तभी से भूत बंगले के नाम विख्यात यह विशाल बंगला वीरान पड़ा था।(190)

कर्नल रंजीत द्वारा लिखित उपन्यास 'देख लिया तेरा कानून' एक रोचक मर्डर मिस्ट्री उपन्यास है। कहानी पठनीय और मनोरंजन से परिपूर्ण है।

उपन्यास- देख लिया तेरा कानून
लेखक-   कर्नल रंजीत
प्रकाशक- अभिनव पॉकेट बुक्स, दिल्ली
सन्-     1986
पृष्ठ.   -  264

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