Friday, 5 September 2025

हत्यारा पुल- कर्नल रंजीत

कहानी मस्तिष्क चोर की
हत्यारा पुल- कर्नल रंजीत

एक्सीडेण्ट या हत्या
भादों की काली-अंधियारी रात में लखनऊ से आठ मील दूर बरसाती काली रात के अंधकार में लिपटे नाहर फार्म में गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। कभी-कभी बिजली कड़ककर उस सन्नाटे को भंग कर देती थी।
नाहर फार्म की मालकिन गोमती देवी अपने बेडरूम में चुपचाप लेटी हुई थीं। वह न जाने अतीत की किन यादों में खोई हुई थीं कि उन्हें पद्मा के आने तक का पता न चला।
        पद्मा गोमती देवी की पालिता पुत्री मोलिना की गवर्नेस थी, सुशिक्षित, सभ्य, शिष्ट और सुन्दर। पद्मा को रूप और गुण प्रदान करते समय तो विधाता ने कंजूसी नहीं की थी। लेकिन वह पद्मा को सुहाग देने में कृपणता कर गया। रूप और गुणों से भरपूर पद्मा विवाह के तीन वर्ष बाद ही विधवा हो गई थी। उस समय पद्मा की उम्र चौबीस साल थी। अचानक उन्हीं दिनों गोमती देवी के भाई अजयसिंह का देहान्त हो गया। अजयसिंह की पत्नी एक बच्ची को जन्म देने के एक वर्ष बाद ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं। गोमती देवी अपने भाई की अंतिम और एकमात्र निशानी मोलिना को ले आई। क्योंकि उनका अपना कोई बच्चा न था।

       और जब मोलिना की देखभाल के लिए गवर्नेस की जरूरत पड़ी तो गोमती देवी ने इंटरव्यू के लिए आई हुई लगभग दो दर्जन महिलाओं में से पद्मा को चुन लिया।
          तब से यानी पिछले दस वर्ष से पद्मा गोमती देवी के साथ ही रह रही थी। गोमती देवी प‌द्मा के गुणों के कारण, जहां उसका सम्मान करती थीं, वहां उसके सौम्य स्वभाव के कारण उससे स्नेह भी करती थीं। प‌द्मा उनके परिवार की एक सदस्या बन गई थी। (हत्यारा पुल- कर्नल रंजीत, प्रथम पृष्ठ)

   यहां गोमती के साथ एक नाम और शामिल होता है और वह है प्रार्थना। गोमती और प्रार्थना का क्या संबंध है यह आप स्वयं ही पढ लीजिए- प्रार्थना गोमती देवी के साथ कई वर्ष तक स्कूल और फिर कॉलेज में पढ़ती रही थी। दोनों ने एक साथ ही बी.ए. की परीक्षा पास की थी। दोनों का विवाह भी एक ही वर्ष में दो-तीन महीने के अंतर पर हुआ था। और दोनों ही विवाह के कुछ वर्ष बाद विधवा हो गई थीं। संतान का सुख उन दोनों के भाग्य में नहीं था।
        प्रार्थना लखनऊ के एक गर्ल्स कॉलेज में पढ़ाती थी। जब कभी छुट्टियां होती थीं या जब लखनऊ में रहते-रहते उसका मन ऊब जाता था तो वह गोमती देवी के पास चली आती थी।
गोमती देवी के पति संग्रामसिंह की मृत्यु पिछले सप्ताह में ही एक दुर्घटना में हो गई थी।

  उपन्यास की जो कहानी है वह संग्राम सिंह से आरम्भ होती है। इस कहानी की पृष्ठभूमि लखनऊ है और लखनऊ के एक हत्यारा पुल है। एक दिन इसी हत्यारे पुल पर संग्राम सिंह की मृत्यु हो जाती है।
कार का स्टेयरिंग संग्राम सिंह के सीने की हड्डिया तोड़ता हुआ दूर तक जा घुसा था। उनके सीने और सिर से बहकर खून कार की अगली सीट और अगले हिस्से में फैल गया था। (उपन्यास अंश)
   संग्राम सिंह का चचेरा भाई युद्धवीर सिंह D.I.G पुलिस लखनऊ है। वहीं पुलिस को संग्राम सिंह की मृत्यु एक एक्सीडेंट न होकर हत्या लगती है और इसका ठोस कारण है- 
 सबसे भयानक बात यह थी कि लाश की खोपडी माथे के ऊपर से गोलाकार इस सफाई से काटी गई थी, जैसे किसी तेज छुरी से तरबूज काटा जाता है। और उस कटी हुई खोपड़ी में से मस्तिष्क गायब था। (उपन्यास अंश)
   जब पुलिस को कोई साक्ष्य नहीं मिलता तो तब याद आती है प्रसिद्ध जासूस मेजर बलवंत की-
"अगर आप लोग बुरा न मानें तो एक बात कहूं।" आई०जी० ने कुछ सोचते हुए कहा, "हमें इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि हमारी पुलिस और हमारा गुप्तचर विभाग भले ही सालों तक छानबीन करे, लेकिन वह, संग्रामसिंह के हत्यारे को पकड़ पाना तो दूर, उसका अता-पता तक न खोज पाएगा। मेरे विचार से हमें इस केस की छानबीन किसी ऐसे जासूस के सुपुर्द करनी होगी, जो इस प्रकार के जटिल केसों को सुलझाता रहा हो। और मेरी नजर में अपने देश में केवल एक ही ऐसा जासूस है, जो इस केस की तह तक पहुंच सकता है।" आई०जी० ने कहा और अपना बुझा हुआ सिगार जलाने लगे।
"वह कौन है सर?" एस०पी० ने पूछा।
"मेजर बलवन्त ।" आई०जी० ने सिगार का एक लम्बा कश लेने के बाद कहा ।

             और यहीं से इस कहानी में मेजर बलवंत और उसकी टीम का प्रवेश होता है। मेजर बलवंत मुम्बई से लखनऊ पहुंचता है ।
मेजर बलवन्त अपने साथियों के साथ व्हिस्की पी रहा था। डोरा और सुधीर क्रोकोडायल के साथ बम्बई से अभी-अभी पहुंचे थे। मेजर बलवन्त संग्रामसिंह की हत्या, मोलिना के अपहरण और अर्चना के साथ घटी हुई घटनाओं तथा डॉक्टर लोकनाथ की हत्या के सम्बन्ध में डोरा और सुधीर को संक्षेप में सारी बातें बता चुका था।
"मेजर साहब, न जाने हम लोगों का कैसा भाग्य है। हम जहां भी पहुंचते हैं, हमसे पहले अपहरण, हत्या और बलात्कार की घटनाएं पहुंचती हैं। हर नए शहर में पहुंचने पर लाशों ने ही हमारा स्वागत किया है।" डोरा ने लम्बी सांस लेकर कहा।

 यहाँ मात्र एक संग्राम सिंह की ही नहीं बल्कि और भी हत्याएं हुयी हैं और हत्यारे मस्तिष्क चुराकर ले गये । वहीं नाहरफार्म में भी अपहरण की घटनाएं घटित होती हैं । लखनऊ के दिलकुशा होटल में‌ मेजर बलवंत की उपस्थिति में एक प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। यहाँ पठनीय यह भी है की उपन्यास में बुद्धिजीवी वर्ग की हत्याएं और मस्तिष्क चोरी का कार्य होता है ।
"और ऐसा अकेले संग्रामसिंह के साथ ही नहीं हुआ।" डी०आई०जी० युद्धवीर सिंह ने कहा, "पिछले एक महीने में उस हत्यारा पुल पर औठ-दस केस इसी प्रकार के हो चुके हैं। जो भी लाशें मिली थी, उनकी खोपड़ियां बुरी तरह कुचली हुई थीं। लेकिन अब मुझे यह संदेह होता है कि उन मृत व्यक्तियों की खोपड़ियां काटकर उनके मस्तिष्क भी इसी तरह निकाल लिए गए थे। और बाद में उन खोपड़ियों को किसी भारी चीज से कुचल डाला गया था ताकि पुलिस को यह पता न चल सके कि हत्या करने के साथ हत्यारे ने मृतक की लाश के साथ क्या सलूक किया है और पुलिस उसे केवल एक्सीडेण्ट का ही केस समझती रहे।"
  उपन्यास में जहाँ मस्तिष्क चोर और बेरहम हत्यारे हैं वहीं एक 'रहमदिल हत्यारा'(इस नाम से उपन्यास में एक अध्याय है) भी है, जिसका चरित्र पहली बार प्रार्थना की बहन अर्चना के माध्यम से सामने आता है और आगे भी यह रहमदिल व्यक्ति पाठक को चकित करता है।
 वहीं शहर में हत्या, अपहरण और मस्तिष्क चोरी का कार्य प्रगति पर है। DIG युद्धवीर सिंह के निवेदन पर लखनऊ आया मेजर बलवंत सिंह सिर्फ संग्राम सिंह की हत्या की खोजबीन ही नहीं करता बल्कि वहां हो रहे अन्य अपराधों की रोकथाम भी करता है।
प्रार्थनाजी, मैं लखनऊ आया तो था संग्रामसिंहजी के हत्यारे की तलाश करने के लिए; लेकिन मेरे लखनऊ में पहुंचते ही दुर्घटनाओं, अपहरण और हत्याओं का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि मैं उन्हीं में उलझकर रह गया हूं। मुझे लग रहा है कि संग्रामसिंह की हत्या के बाद जितनी भी दुर्घटनाए और हत्याएं हुई हैं, सभी एक ही श्रृंखला की कड़ियां हैं। क्योंकि आज मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच गया हूं कि मस्तिष्क चुराने वाला गिरोह एक ही है। और संग्रामसिंह की हत्या से पहले लखनऊ के हत्यारे पुल पर जितनी भी वारदातें हुई थीं, उनमें भी मस्तिष्क चोरों के इस गिरोह का ही हाथ था।"- मेजर ने कहा, "लेकिन मैं अभी तक यह नहीं जान पाया हूं कि मस्तिष्क क्यों चुराए गए। यानी हत्यारे का वास्तविक उद्देश्य क्या था?"
 तो पाठक मित्रो क्या आपको पता है 'हत्यारे का वास्तविक उद्देश्य क्या था ?'
अगर नहीं पता तो पता करने के लिए कर्नल रंजीत का उपन्यास 'हत्यारा पुल' पढें ।
यह एक रोचक मर्डर मिस्ट्री उपन्यास है। जिसमें सिलसिलेवार हत्याएं होती हैं। कभी पुल पर, कभी होटल में, कभी घर पर और अपहरण जैसे कार्य भी। इतना अब होने के पश्चात भी अपराधी सामने नहीं आता।
अगर आप मर्डर मिस्ट्री पसंद करते हैं तो 'कर्नल रंजीत' मार्का यह उपन्यास आपको पसंद आयेगा। काफी उलझाव और घुमावदार कहानी है ।
         कहानी मात्र हत्या की ही नहीं रिश्तों, लालच और मानवता को भी व्यक्त करती है। लव मैरिज जैसे विषयों पर तात्कालिक सोच और उनसे उपजे हालात का सामना करते लोग हैं। मानवता के लिए अपनी जान जोखिम में डालने वाले पात्र सहज ही प्रभावित कर लेते हैं। वहीं धन के लिए जान लेने वाले पात्र आपकी घृणा का शिकार हो सकते हैं।
  मेजर बलवंत के उपन्यास में हत्या के कारण मात्र कारण नहीं होते उनके पीछे मानव स्वभाव भी अच्छे से व्यक्त होता है।
कर्नल रंजीत के उपन्यासों में हत्या भी एक कला की तरह दर्शायी जाती है। इनके उपन्यास में हत्याए विचित्र ढंग से ही होती हैं ।
- मैंने उनका अभी पिछले दिनों अखबारों में नाम पढ़ा था, जब उनकी हत्या किसी होटल में विचित्र ढंग से हुई थी।"
प्रस्तुत उपन्यास में भी हत्या के साथ- साथ मस्तिष्क चोरी का अनोखा कृत्य शामिल है।
उदाहरण देखें-
सुभद्रा की खोपड़ी पर उसके हाथों का नश्तर किसी कुशल सर्जन के नश्तर की तरह चल रहा था। उसने पलक झपकते सुभद्रा की खोपड़ी दो टुकड़ों में विभाजित कर दी। खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा उसने मेज पर रख दिया और कटे हुए भाग में से सुभद्रा का मस्तिष्क निकालकर प्लास्टिक की एक थैली में रखकर थैली का मुंह एक डोरी से बन्द कर दिया।
मेजर बलवंत की विशेषता-
मेजर बलवंत को जब भी कोई महत्वपूर्ण तथ्य पता चलते हैं तो वह सीटी बजाता है ।
सहसा उसके होंठ फिर गोल हो गए और वह सीटी बजाने लगा।
सब लोग आश्चर्य से मेजर बलवन्त की ओर देखने लगे। मालती, डोरा, सुधीर और सुनील समझ गए कि मेजर के हाथ कोई महत्त्वपूर्ण सूत्र लग गया है।

चीख-
मेजर बलवंत के उपन्यासों में चीख का विशेष महत्व होता है।
सहसा एक जोरदार चीख डाइनिंग हॉल की दीवारों से टकराकर गूंज उठी। संगीत की बहती रसवंती धारा सहसा रुक गई। कुर्सियों के गिरने और प्लेटों के टूटने की आवाजों के साथ लोगों की भगदड़ की आवाजें भी गूंज उठीं।
   
         कभी कभी तीव्र बुद्धिमान से भी गलतियाँ हो जाती हैं। जैसा की इस उपन्यास में है। मेजर बलवंत एक-दो जगह तो लापरवाह भी नजर आता है।
जैसे एक मकान के बाहर रात को एक संदिग्ध व्यक्ति दिखाई देता और मकान के अंदर वालों को उससे खतरा है। जब मेजर बलवंत को इसकी सूचना मिलती है तो वह थकान के कारण बात को अगले दिन पर टाल देता है।
  वहीं एक दो और जगह भी मेजर बलवंत गलतियाँ करता है लेकिन अंत में वह अपनी भूल स्वीकार करता है।
- मेजर बलवंत का दिमाग बुरी तरह चकरा रहा था। इतनी बड़ी मूर्खता उसने अपने आज तक के में कभी नहीं की थी। फिर वह सोचने लगा कि इस केस में उसकी यह पहली और अंतिम मूर्खता नहीं है। इससे पहले भी वह कई मूर्खताएं कर चुका है। (उपन्यास अंश) 
   कर्नल रंजीत द्वारा रचित उपन्यास 'हत्यारा पुल' एक मर्डर मिस्ट्री उपन्यास है जिसमें कुछ हत्याएं और मेजर बलवंत और उसकी टीम पुलिस की सहायता से अपराधी को खोजती है। 
यह एक रोचक और पठनीय उपन्यास है।

उपन्यास- हत्यारा पुल
लेखक -  कर्नल रंजीत
पृष्ठ-      165
प्रकाशक- मनोज पॉकेट बुक्स, दिल्ली

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