Monday 30 September 2019

227. बाकी की बात- नंदिनी कुमार

छोटी छोटी पर रोचक कहानियाँ
बाकी की बात- नंदिनी कुमार, कहानी संग्रह

नन्दिनी कुमार का कहानी संग्रह 'बाकी की बात' पढा, यह एक रोचक कहानियों का दिलचस्प संग्रह है। आकार में चाहे ये कहानियाँ छोटी क्यों न हो लेकिन इनका प्रभाव खूब है। कहीं हास्य है तो कहीं रूदन, कहीं प्रेम है तो कहीं आक्रोश, ये सब इन कहानियों में पढने को मिलेगा। 
    इस संग्रह की प्रथम कहानी है 'शर्मा जी' यह कहानी में हास्य रस होने के साथ-साथ स्त्री स्वतंत्रता की बात भी शामिल है। “शर्मा जी, शादी के एक साल बाद तो हम बाहर निकले हैं, चलो न कहीं घूम आएँ।” मिसेज शर्मा बिस्तर पर लेटती हुईं अपने पति से बोलीं।
यह कहानी यह यात्रा के दौरान घटित जुछ घटनाओं पर आधारित है।
      हास्यरस और मार्मिकता लिए एक और कहानी है 'दावत' शीर्षक से। - "लकड़ियों की ज़रूरत मरे हुए से ज़्यादा ज़िंदा लोगों को होती है।”
       जिम्मेदारी से भागते और औरत ले शरीर की चाह रखने चाले लोगों को बेनकाब करती एक सार्थक रचना है- चंदा।
साराह मेरी भी बेटी है, तुम शायद भूल रही हो।” “इस बात से मैंने कभी मना नहीं किया।
 “लेकिन तुम एक ज़िम्मेदार माँ नहीं हो, न दो साल पहले थी, न अब हो।”
कहने को ये शब्द बहुत सरल हैं लेकिन एक औरत ही समझ सकती है दर्द को। वह औरत जो अपने बच्चों का पालन पोषण भी करती है और पुरुष वर्ग उसे धिक्कार देता है।

226. द लाल- विपिन तिवारी

हवस- धन और तन की।
द लाल- विपिन तिवारी, मर्डर मिस्ट्री

लेखक का प्रथम उपन्यास

'द लाल' उपन्यास एक अच्छी सौगात की तरह मुझे मिला। यह जानकर मुझे बहुत खुशी होती है की जासूसी साहित्य में नित नये नाम शामिल हो रहे हैं। इस साहित्य में एक नया नाम शामिल हुआ है वह है 'द लाल' के लेखक विपिन तिवारी जी का।
द लाल
लेखक- विपिन तिवारी


  'द लाल' विपिन जी का प्रथम उपन्यास है और वह भी मर्डर मिस्ट्री। लेखक महोदय अपने प्रथम उपन्यास से ही उम्मीद जगाते हैं की भविष्य में उनकी कलम से और भी बेहतरीन उपन्यास पढने को मिलेंगे।

अब बात करते हैं प्रस्तुत उपन्यास की। बात सिर्फ वही जो लेखक ने लिखा है, उसके अतिरिक्त कोई चर्चा नहीं।
उपन्यास की कहानी सेठ धनपाल के मर्डर के इर्दगिर्द घूमती है।
दिल्ली के कनाॅट प्लेस थाने के इंस्पेक्टर विशाल के पास एम्स हास्पिटल के डाॅक्टर रस्तोगी का फोन आता है।
"जी, मैं एम्स हास्पिटल से डाॅक्टर रस्तोगी बोल रहा हूँ। आप यहाँ जल्दी से आ जाइये, क्योंकि सेठ धनपाल का सुसाइड केस यहाँ आया है....।" (पृष्ठ-07)

उपन्यास का मुख्य घटनाक्रम

Friday 27 September 2019

225. होटल चैलेंज- एम. इकराम फरीदी

एक डायन की खतरनाक कहानी।
एक सत्य घटना पर आधारित काल्पनिक उपन्यास।
          एम.इकराम फरीदी जी का नवीनतम उपन्यास 'चैलेंज होटल' पढने को मिला। जैसा की पाठकवर्ग को विदित है की फरीदी जी के प्रत्येक उपन्यास का कथानक हर बार नये विषय पर आधारित होता है। यह परम्परा इसी उपन्यास में भी जीवित है। मात्र जीवित ही नहीं बल्कि प्रथम उपन्यास में स्थापित पूर्व परम्परा का खण्डन भी यह उपन्यास करता नजर आता है।
           इस उपन्यास के साथ दो बातें और विशेष हैं। प्रथम तो यह की प्रस्तुत उपन्यास सत्य घटना से प्रेरित है और द्वितीय इसी उपन्यास के साथ फरीदी जी ने स्वयं का प्रकाशन संस्थान 'थ्रिल वर्ल्ड' आरम्भ कर दिया है। 'चैलेंज होटल' इस संस्थान की प्रथम सौगात है।

     अब कुछ चर्चा उपन्यास के विषय में भी कर ली जाये। वैसे मुझे यह उपन्यास अच्छा लगा।
यह कहानी है महाराष्ट्र के जलगांव जिले के चालीसगांव की। जहाँ लेखक महोदय सौलर प्लाट लगाने गये थे।

अक्टूबर 2017 में मैंने दिल्ली से चालीसगांव की जर्नी की थी क्योंकि मेरी नई सौलर साइट चालीसगांव में ही बैठ रही थी जो औरंगाबाद रोड़ पर दस किलोमीटर दूरी पर एक खतरनाक वन्य जीव वाले पहाड़ के नीचे समतल में थी। (पृष्ठ-24)
यहाँ एक छोटा सा गांव है चुरई। जिस की यह कहानी है।

महाराष्ट्र के जलगांव डिस्ट्रिक्ट में चालीसगांव नगर से दस किलोमीटर दूर खतरनाक वन्यजीवों वाली पहाड़ी, जो उस क्षेत्र में घाट के नाम से पुकारी जाती है। यहाँ एक छोटा सा गांव है चुरई।


बताया जाता है कि यहां वैम्पायर भी रहते हैं।
यानी खून पीने वाले पिशाच।
रक्तपिशाच।

        लेखक को यहाँ जो अनुभव मिले जो देखा और समझा उसे अपनी कल्पना शक्ति से नये रंग भर के एक रोचक और हाॅरर उपन्यास के रूप में पाठकों के समक्ष ले आये।
लेखक को यहाँ लेबर के ठहराने के लिए जो जगह मिली वो था एक लंबे समय से बंद होटल था। यही चैलेंज होटल इस कथा का मूलाधार है। वहीं उपन्यास के गांव में एक मर्डर होता है। ग्रामवासियों का कहना है यह डायन का काम है।
ऐसे केस हमारे यहाँ होते रहते हैं, यदाकदा.....कोई डायन किसी मर्द को रूप -जाल में फंसा लेती है और रात के सन्नाटे में कहीं ले जाकर खून पी जाती है। (पृष्ठ-59)

वहीं चैलेंज होटल में भी ऐसी भयानक घटनाएं घटती हैं की सभी सिहर उठते हैं। एक डायन का होना तो खतरनाक ही होगा।

"क्या तुमने खुद अपनी आँखों से डायन देखी है?"
बबलू तुरंत बोला-"हां साब देखी है, यहीं चैलेंज होटल में देखी है।"
......
"कैसी होती है?"
"बाल खुले हुए, चेहरा दिखाई देता है, चारों तरफ से बाल पड़े होते हैं, दांत बड़े-बड़े....।"
"वो खून पीती है। यहाँ गरदन पर हमला करती है....।"
(पृष्ठ-63)


तो यह किस्सा एक डायन का है। जो कभी घूंघरू बजाती है, कभी खूले बालों के साथ घूमती, कभी किसी का खून पी जाती है तो कभी किसी को प्रेमालाप के लिए आमंत्रित करती है।
तो आखिर वह डायन कौन थी?
क्या रहस्य था उसका?
जब भूत-प्रेतों पर विश्वास न करने वाले, वैज्ञानिक सोच रखने वाले लेखक एम.इकराम फरीदी का सामना इन घटनाओं से हुआ तो उनकी बुद्धि और वैज्ञानिक सोच दोनों स्थिर हो गये।
मेरी सारी फिलाॅसफी धरी की धरी रह गयी थी जैसे कोई रेत की दीवार भुरभुराकर गिर पड़ती है। मेरा दृढ निश्चय ऐअए ही भुरभुराकर गिर पड़ा।(पृष्ठ-87)
पोलो मैदान,माउंट आबू, राजस्थान

उपन्यास के दो पात्र प्रभावित करने में सक्षम है। एक तो प्रेमा, दबंग प्रेमा और दूसरा इंस्पेक्टर गोरख पुर्णे। हालांकि दोनों मुँहफट्ट और दबंग हैं पर प्रेमा हर किसी पर भारी पड़ती है।
प्रेमा की उम्र पैंतालीस साल थी। गोल मुखड़ा था, लिपिस्टिक की मेहरबानी से हमेशा होंठ लाल रहते थे, अधिकांश बालों का जूड़ा बांध कर रखती थी। ब्लाऊज और घाघरा पहनती थी, बहुत छोटी सी चुनरी इधर-उधर कहीं पड़ी रहती थी। (पृष्ठ-28)
‌‌पुरुष वर्ग के प्रति प्रेमा के विचार देख लीजिएगा
अरे भई इन आदमियों को जितना सिर पर चढाओगे, उतना परेशान करेंगे, यह डण्डे के यार होते हैं...।(पृष्ठ-34)
चलो फिर प्रेमा और एस. आई. कुमावत के बीच का भी नोकझोक दृश्य देख लेते हैं।-
         कुमावत बोला पड़ा- "तूने हमे गालियां बकी, पुलिसियों को, साले किसी में हिम्मत नहीं है जो हमें गालियां दे सके।"
"ओय चोट्टी के आवाज नीच कर, इस वर्दी को यूं नुचवा लूंगी यूं- तू मेरी राजनीतिक पहुंच नहीं जानता है अभी, इस गांव की सरपंच बनने वाली हूँ।
(पृष्ठ-69)

लेखक अगर कोशिश करता तो इन दोनों पात्रों को और बढा सकता था, दोनों की नोकझोक आगे भी दिलचस्प हो सकती थी।

        लेखक की एक विशेषता यह भी है की वे किसी न किसी सामाजिक बुराई को अपने उपन्यास में उजागर करते रहते हैं। जो की कहानी का भाग न होने पर भी पठनीय होती है। प्रस्तुत उपन्यास में सट्टा बाजार के बारे में लिखा है।

       उपन्यास में शाब्दिक गलतियाँ काफी हैं। हालांकि यह प्रूफ रीडर की गलती मानी जाती है पर कहीं न कहीं पाठक भी इससे प्रभावित होता है।
एक जगह नाम 'गोरव पुर्णे' (पृष्ठ-44) और बाद में 'गोरख पुर्णे'। पूरे उपन्यास में दो जगह नाम आया है दोनों जगह अलग-अलग है।
साइट को साइड लिखा है।
कुछ और गलतियाँ
प्रेमा के पति राजन का कहीं वर्णन नहीं मिलता।
- मितराज को रात को एक लड़की नजर आयी। उसका कहीं को विशेष स्पष्टीकरण नहीं।
मितराज बोला-"मैं चैनल गेट के पास खड़े होकर बाहर को देख रहा था, तभी थोड़ी देर मुझे सफेद कपड़ों में एक लड़की नजर आई, उसके बाल खुले हुए थे...।"(पृष्ठ-210)

        एम. इकराम फरीदी जी का प्रथम उपन्यास जो की किशोरवर्ग का उपन्यास कहा जा सकता है। अंधविश्वास के विरुद्ध वैज्ञानिक चेतना का विकास करता है। वहीं प्रस्तुत उपन्यास शुद्ध रूप से एक हाॅरर उपन्यास है।

        अगर आप हाॅरर उपन्यास पढना पसंद करते हैं तो यह उपन्यास रोचक लगेगा। कहानी है, सस्पेंश है और अच्छे पात्र हैं।
       प्रस्तुत उपन्यास अपने अंदर बहुत सी घटनाओं को समेट हुए है। हम जिस समाज का एक भाग है उसी के अंदर बहुत कुछ अच्छा और बुरा घटित होता रहता है।‌लेकिन मानवता के नाते हमारा दायित्व यह बनता है की हम गलत के खिलाफ आवाज उठाकर अपने इंसान होने का परिचय दें । यह उपन्यास सिर्फ एक डायन होने या न होने का जिक्र भर नहीं है, बल्कि यह हमारे इंसान होने का वर्णन भी करती है।
आप चाहे उपन्यास मनोरंजन की दृष्टि से पढे पर उपन्यास की कुछ घटनाएं आपको अंदर तक कचोट जायेंगी।

उपन्यास में कुछ अलग है तो वह है लेखकीय- किसान अपना माल खुद बाजार में लाया है। लेखक के प्रकाशन संस्थान 'थ्रिल वर्ल्ड' की जानकारी है।
वहीं एक आर्टिकल स्वयं मेरा (गुरप्रीत सिंह) का है। शीर्षक- क्या लोकप्रिय साहित्य का दौर लौट रहा है? जिसमें वर्तमान लोकप्रिय जासूसी साहित्य के दिनों का वर्णन है।

उपन्यास- चैलेंज होटल- एक हाॅन्टेड पैलेस
लेखक- एम.इकराम फरीदी
प्रकाशन- थ्रिल वर्ल्ड
पृष्ठ- 256
मूल्य- 100₹
संस्करण- 15.09.2019(प्रथम संस्करण).  

उपन्यास में प्रकाशित मेरा आर्टिकल


124. पुराने गुनाह, नये गुनाहगार

हर किसी के गुनाह का हिसाब होता है?
सुनील चक्रवर्ती का प्रथम उपन्यास।
पुराने गुनाह,नये गुनाहगार- सुरेन्द्र मोहन पाठक

लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के मर्डर मिस्ट्री लेखक श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का प्रथम उपन्यास 'पुराने गुनाह, नये गुनहगार' पढा।
यह एक छोटा सा मगर अच्छा कथानक है। लेखक का प्रथम उपन्यास, मेरे लिए यह विशेष आकर्षण था।

सुनील कुमार चक्रवर्ती, समाचार पत्र 'ब्लास्ट' का क्राइम रिपोर्टर। सुनील के पास एक फोन आता है।
उसी समय फोन की घंटी घनघना उठी ।
“हल्लो ।” - सुनील ने बड़ी मीठी आवाज.....
“सुनील कुमार चक्रवर्ती ?” - दूसरी ओर से स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“जी हां, फरमाइए ।”
“क्या आप अभी मुझसे लेक होटल में मिल सकते हैं ?”
“लेकिन आप हैं कौन ?”
“किसी विशेष कारणवश मैं आपको फोन पर अपने विषय में कुछ नहीं बता सकती ।”
“आप मुझसे क्यों मिलना चाहती हैं ?”
“यह भी फोन पर नहीं बताया जा सकता । इस समय मैं केवल इतना बता सकती हूं कि मैं लेक होटल के चालीस नंबर कमरे में हूं । अभी केवल एक घंटे पहले कमरे में से मेरी एक एक चीज चुरा ली गई है, यहां तक कि कार भी।”


     कहानी इस लड़की रमा खोसला से आगे बढती है।- “मेरा नाम रमा है, रमा खोसला।” रमा खोसला के पिता जमनादास खोसला पर गबन का आरोप है। जो बैंक कर्मचारी हैंं।
“वे मेरे डैडी हैं, उन पर नैशनल बैंक ऑफ इण्डिया के तीन लाख बानवे हजार दो सौ चालीस रुपये बासठ नये पैसे चुराने का आरोप है।”
      ये रूपये नैशनल बैंक आॅफ इण्डिया की शाखा से अन्यत्र स्थानांतरण करने थे।‌ यह जिम्मेदारी जमनदास खोसला पर थी उनके साथ एक सुरक्षाकर्मी इंस्पेक्टर जयनारायण और एक वैन का ड्राइवर था। इसी स्थानांतरण के दौरान वैन में रखे बक्सों से रूपये गायब हो गये और उनकी जगह बैंक के चैक।
“क्योंकि अगर बक्से में से रद्दी अखबार, पुरानी किताबें या ऐसी ही कोई चीज निकलती तो मैं मान लेता लेकिन बक्से में तो निकले थे नैशनल बैंक की हमारी ही ब्रांच के भुगतान किये हुए चैक, जिनमें एक चैक ऐसा भी था जिसका भुगतान एक घण्टे पहले हुआ था और जो सब हमारे बैंक की फाइल में से निकाले गए थे।
तीन शख्स और तीनों बोल रहे हैं‌ की वे इस गबन में शामिल नहीं।
तो फिर यह कारनामा कैसे संभव हो पाया?
किसने गायब किये रूपये?
कौन था असली षड्यंत्रकारी?

       इसी की जांच के लिए वर्षों पश्चात ब्लास्ट के रिपोर्टर सुनील चक्रवर्ती साहब किसी माध्यम से पहुंच जाते हैं।और फिर खुलते हैं वर्षों पुराने रहस्य।
इन रहस्यों से पर्दा उठाते-उठाते स्वयं सुनील भी एक कत्ल के आरोप में फंस जाता है।
इस बार फंस गये बेटा सुनील - वह कार में बैठता हुआ बड़बड़ाया - और बनो एक्टिव और फंसाओ दूसरे के फटे में टांग। साले जासूसी करने चले थे ।

अब उपन्यास का एक रोचक दृश्य देख लीजिएगा ।
“अबे सुन !” - सुनील कुर्सी पर बैठकर मेज पर टांगें फैलाता हुआ बोला - “तुझे कभी फांसी हुई है ?”
“आज तक तो नहीं हुई । वैसे बचपन में कभी हुई हो तो मुझे याद भी नहीं ।”
“सुना है बहुत तकलीफ होती है ।”
“हां साहब, गरदन सुराही के सिर की तरह ये... लम्बी हो जाती है । बस एक ही खराबी है कि प्राण निकल जाते हैं ।”
“हे भगवन !” - सुनील माथे पर हाथ मारकर बोला - “अब क्या होगा ?” चपरासी मूर्खों की तरह खड़ा उसका मुंह देखता रहा ।
“कभी बिजली की कुर्सी पर बैठा है ?” - सुनील ने फिर पूछा ।
“अजी साहब, हमारी ऐसी किस्मत कहां ! हमें तो स्टूल मिल जाए तो वही गनीमत है । बिजली की कुर्सियां तो आप जैसे बड़े बड़े लोगों के लिये हैं।”


उपन्यास शीर्षक-
              जैसा की उपन्यास का शीर्षक है 'पुराने गुनाह, नये गुनहगार' तो यह एक भ्रामक शीर्षक है। क्योंकि गुनाह भी जितना पुराना है उसके गुनहगार भी उतने ही पुराने हैं। हां, शीर्षक का प्रथम भाग 'पुराने गुनाह' बिलकुल उचित है, क्योंकि यह उपन्यास जिस घटना पर आधारित है वह घटना पुरानी है और उसका पटाक्षेप बाद में होता है।
उपन्यास में कुछ गलतियाँ है। जो उपन्यास के कथानक को कमतर करती हैं। हालांकि उपन्यास मनोरंजक है और अच्छा मनोरंजन करने में सक्षम भी।

रमाकान्त स्थानीय यूथ क्लब का मालिक था। जासूसी का उसे बहुत शौक था। साधारणतया सुनील के भाग-दौड़ के काम वही करता था या करवाया करता था।
मुझे अक्सर एक बात खटकती है। रमाकांत को जासूसी का शौक है लेकिन वह जासूसी खुद न करके अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से करवाता है। क्या उ‌नके कर्मचारी भी जासूसी हैं?
निष्कर्ष-
एक लूट पर आधारित इस एक मध्यम स्तर का उपन्यास है। अगर उपन्यास में कुछ नया नहीं है तो भी पाठक को कहीं निराश नहीं करेगा। धीमी गति का कथानक और कम पृष्ठ एक बार में पढे जाने वाला उपन्यास आपको निराश तो नहीं करेगा।

उपन्यास- पुराने गुनाह, नये गुनहगार
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक
निम्न लिंक से आप पाठक जी के अन्य उपन्यासों की समीक्षा भी पढ सकते हैं।
सुरेन्द्र मोहन पाठक


Wednesday 18 September 2019

223. धुरंधरों के बीच- एम. इकराम फरीदी

प्रेम और नफरत के बीच
धुरंधरों के बीच- एम.इकराम फरीदी, उपन्यास

सुरज पॉकेट बुक्स से प्रकाशित एम.इकराम फरीदी जी का नया उपन्यास पढने को मिला। उपन्यास संस्करण नया (जून-2019)है लेकिन ये लेखक महोदय का बहुत पहले का लिखा हुआ है।- इसकी रचना मैंने सन् 1998 में की थी, तब से लेखन क्षेत्र में मेरा संघर्ष और सफर जारी है।
बात उपन्यास की करे तो यह एक थीम पर आधारित है। उपन्यास की एक पंक्ति उपन्यास को बहुत प्रभावशाली तरीके से व्यक्त कर सकती है। - अपने लिए जीना ज़िंदगी नहीं होती। अपनों के लिए जीना ज़िंदगी होती है।
उपन्यास के कुछ पात्र अपने लिए जीते हैं और कुछ अपनों के लिए जीते हैं। यह संघर्ष और विरोध कहानी को रोचक और पठनीय बनाता है।
      यह रिश्तों पर आधारित एक प्रेमकथा है, भावना प्रधान कथानक, आपसी द्वेष और बदले पर आधारित है।

       उपन्यास के कथानक की बात करें तो यह कहानी दो अलग-अलग स्तर पर चलती है जो अंत में जाकर एक हो जाती है।
मुकेश और मोनिका एक दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन मोनिका का भाई राजेश इसे बर्दाश्त नहीं करता।
वह मोनिका के आगे आकर स्थिर हुआ। उसकी आँखों में आँखें डाली। "तू मेरी बहन है, मैं तेरा भाई। भाई पर जो बहन की जिममेदारियाँ होती हैं मैंने निभायी और आगे भी निभाता। मैं रिश्ते को खूब अच्छी तरह से समझता हूँ। हर जायज बात को हर वक्त मानने को तैयार रहता हूँ लेकिन नाजायज़ हरकत किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं कर सकता।

      वहीं मोनिका मुकेश के अतिरिक्त और किसी को पसंद नहीं करती। मोनिका तो मुकेश को भी स्पष्ट कहती है- या तो तुम्हें मुझसे कोर्ट-मैरिज करनी होगी या फिर मैं आत्महत्या कर लूँगी। यह मेरा अटल फ़ैसला है। मुझे इस फ़ैसले से कोई डिगा नहीं सकता।" दो टुक शब्दों में बात की थी उसने। कहीं कोई आवाज़ में कंपन नहीं। लहजा अटल विश्वास से ठसाठस था।

     उपन्यास का दूसरा कथानक बृजेश नामक एक युवक का है।- बृजेश की उम्र कोई पच्चीस बरस थी। लम्बे कद और कसरती जिस्म का एक खूबसूरत युवक था वह। पर्सनॉल्टी दमदार थी।
      बृजेश का भाई बहुत गंभीर रूप से बीमार है। वह अपने भाई को बचाने के लिए अपने शादी ले रिश्ते तक को तोड़ देता है। बृजेश का मित्र विकास समझाते हुए बोला- "समझने की कोशिश कर मेरे यार! शादी को कुल पंद्रह दिन रह गये हैं। वे लोग सारी तैयारियाँ पूरी कर चुके हैं और जो रह गयी है, वो भी कर कर रहे हैं। अब हम मना करेंगे तो उनके दिल पर क्या बीतेगी। दाग़ लग जाएगा लड़की के दामन पर।"
एकाएक बृजेश हत्थे से उखड़ गया। "और मेरे दिल पर क्या बीत रही है यह पता है तुझे? पचास लाख रुपये का खर्चा बताया है डॉक्टर ने। कहाँ से आएगा इतना रुपया? किसी पेड़ पर लगा है जो झाड़ लूँ? और तू कह रहा है कि मैं ख़ुशियाँ मनाऊँ। नाचूँ, गाऊँ।"

     बृजेश को रूपयों की अतिआवश्यता है और इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है। इस 'कुछ' भी में उसकी मदद उसका दोस्त करता है।

उपन्यास में इंस्पेक्टर कात्याल का किरदार दमदार है जो पाठक को प्रभावित करने में भी सक्षम है। कात्याल स्वयं के बारे में कहता है- “कात्याल कोई काम अधूरा नहीं करता ।” कात्याल में हास्य की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है- कात्याल ने स्वर में स्वर मिलाया– “शर्म साली साथ छोड़कर भाग गयी। अब आने की कोई उम्मीद भी नहीं है।”
लेकिन कात्याल का इस बार सामना कुछ ऐसे धुरंधरों से हुआ है जो स्वयं जो अपराध में महारथी समझने की भूल कर बैठते हैं।
     अब उपन्यास का एक रोचक दृश्य देख लीजिएगा। उपन्यास में ऐसे छोटे-छोटे ट्विस्ट उपन्यास को रोचक बनाये रखते हैं।
“मगर मर्डर करना किसका होगा?”
“मेरा।”
“तेरा मर्डर?” एक बार फिर हैरत ने पूरे लश्कर के साथ धावा बोला। अगर इस बार भी कप हाथ में होता तो यकीनन छूट जाता। खुद को नियंत्रित करता हुआ..... बोला– “क्या दिमाग तो नहीं फिर गया है तेरा?”
“साला दिमाग ही तो नहीं फिरना चाह रहा है वरना यह काम करने की जरूरत ही क्या थी?”

      उपन्यास का एक संवाद भी पढ लीजिएगा। यह मात्र संवाद ही नहीं है बल्कि जीवन में आगे बढना का मंत्र भी है।
आदमी से बढ़कर कुछ नहीं होता। जब आदमी कुछ करने की ठान ही लेता है तो उस काम का अंजाम खुद झुककर उस आदमी को सलाम करता है।”
       धुरंधरों के बीच उपन्यास पारिवारिक सम्बन्धों पर आधारित कथा है। एक भाई है जो अपनी बहन का किसी से प्यार सहन नहीं कर सकता और एक भाई है जो अपने बीमार भाई के लिए अपनी शादी का रिश्ता तक खत्म कर देता है। इस पारिवारिक कहानी में कुछ नेपथ्य के पीछे के किरदार हैं। सच तो ये है की वहीं किरदार उपन्यास के पात्रों को चलाते हैं।
          पारिवारिक अपराध और कुछ रहस्य-रोमांच से लिपटी यह उपन्यास मध्यम स्तर की है।


     एम. इकराम फरीदी का उपन्यास 'धुरंधरों के बीच' पढा। यह एक औसत स्तर का उपन्यास है। स्वयं लेखक भी स्वीकारता है की यह उनकी 21 साल पुरानी एक अपरिपक्व रचना है। एक समय था इस तरह की बहुत सी कहानियाँ लिखी गयी थी। लेकिन वह समय नहीं रहा और इसी वजह से अब ऐसी अपरिपक्व रचनाएँ अच्छी भी नहीं लगती। हालांकि कहानी कोई 'विशेष कमी' नहीं है, कमी है तो प्रस्तुतीकरण की।
रचना एक बार पढी जा सकती है। एक बार मनोरंजन कर सकती है। लेकिन फरीदी साहब से जो उम्मीद होती है, उस उम्मीद पर उपन्यास खरी नहीं उतरती।

उपन्यास- धुरंधरों के बीच. 

लेखक-    एम.इकराम फरीदी
प्रकाशक- सूरज पॉकेट बुक्स
संस्करण-  जून, 2019
एमेजन लिंक-  धुरंधरों के बीच 



Sunday 1 September 2019

222. भूतों के देश में - प्रवीण झा

भूतों के देख में आईसलैण्ड- प्रवीण कुमार झा, यात्रा वृतांत

विश्व के नक्शे पर एक छोटा सा देश है आइसलैंड।
इसी आइसलैण्ड की यात्रा का वर्णन है उक्त छोटी सी किताब। यह किताब kindle पर online प्रकाशित हुयी है। इसकी भूमिका में भी कुछ भी वर्णित नहीं है या यू कहें की भूमिका, लेखकिय कुछ भी नहीं लिखा गया। विभिन्न स्त्रोतों और किताब पढने के बाद इस पर कुछ मेरे विचार प्रस्तुत हैं।
आइसलैण्ड के लोग भूतों पर ज्यादा विश्वास करते हैं। लेखक को भी भूतों में दिलचस्पी है। जब से सुना, आईसलैंड में प्रेत बसते हैं, इच्छा थी कि इन विदेशी प्रेतों से भी एक बार रू-ब-रू हो लूँ।  (किताब से)
    एक दिन लेखक भी भूतों के देश आइसलैण्ड जा पहुंचा। वहाँ लोगों से भूतों के विषय पर चर्चा की। कुछ ऐसे स्थान भी देखे जहाँ भूतों का निवास माना जाता है।

      यह साठ पृष्ठ की एक छोटी सी रचना है। लेखक ने आइसलैंड के लोगों के भूत- प्रेत आदि के प्रति विश्वास का वर्णन किताब में किया है। उसके साथ-साथ वहाँ के बर्फीले तूफान का वर्णन भी है। प्रस्तुत पुस्तक में कहीं कहीं तो भूतों का वर्णन न होकर बर्फ का चित्रण ही है।
    कुछ जगह आश्चर्यजनक तथ्य या घटनाएं भी वर्णित है लेकिन उनके पीछे का कहीं कोई कारण स्पष्ट वर्णित नहीं है।
किताब छोटी सी है पढना चाहो तो पढ सकते हैं। मध्यम स्तर की है। कोई निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाती, बस घटनाओं का वर्णन है।
इस किताब का शीर्षक मुझे रोचक लगा इसलिए पढ ली।
किताब में से कुछ रोचक पंक्तियाँ
- आईसलैंड के दस प्रतिशत लोग कोई न कोई किताब लिख चुके हैं। यह मुझे पंजाब की याद दिलाता हैं, जहाँ कहते हैं कि हर दसवें घर से एक ‘म्यूज़िक सी.डी.’ निकली है।
- यहाँ क्राइम-फिक्शन का इतना शौक है कि आईसलैंड की प्रधानमंत्री भी पहले ‘क्राईम-फिक्शन’ ही लिखती थीं।
- अनुमान है कि आईसलैंड में हर हफ्ते लगभग 500 बार भूकंप आते हैं।
- प्राईवेट अस्पताल हैं ही नहीं। छह सरकारी अस्पताल और कुछ सरकारी क्लिनिक हैं।

      यह एक छोटी सी रचना है। आप चाहे तो इसे
भूतों में दिलचस्पी के नाते पढ सकते हैं, या फिर आइसलैण्ड के बारे में थोड़ा बहुत जानना चाहते हैं तो पढ सकते हैं। हालांकि किताब लघु आकार की है इसलिए ज्यादा उम्मीद न रखे की इससे बहुत कुछ जानने को मिलेगा। बस इतना है की छोटा आकार है और रोचक है। कम समय में पढ सकते हैं। कुछ घटनाओं का अधूरा सा वर्णन भी आपको परेशान कर सकता है।
आइसलैण्ड नक्शे में














किताब - भूतों के देश में आइसलैण्ड
लेखक- प्रवीण कुमार झा
पृष्ठ- 60
प्रथम संस्करण- मार्च 2018

221. डंके की चोट- बसंत कश्यप

हिमालय सीरिज का द्वितीय भाग
डंके की चोट- बसंत कश्यप

लोकप्रिय जासूसी उपन्यास साहित्य में ऐसे उपन्यास कम ही लिखे गये हैं जो प्रचलित कथा धारा से विलग हो। ऐसे उपन्यास जिन्होंने एक अलग पहचान स्थापित की हो, मात्र पहचान ही नहीं उपन्यास साहित्य को अनमोल सौगात प्रदान की हो। ऐसे उपन्यास दशकों पश्चात ही लिखे जाते हैं अगर ऐसा कहूं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
       मैं चर्चा कर रहा हूँ बसंत कश्यप जी के 'हिमालय सीरिज' के द्वितीय उपन्यास 'डंके की चोट' की। यह उपन्यास स्वयं में इतना जबरदस्त है की मैंने लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में इस श्रेणी का कोई इससे उत्तम उपन्यास नहीं पढा। हालांकि इस प्रकार की कहानियाँ आपको अन्य क्षेत्र (फिल्म, काॅमिक्स) में मिल सकती है। लेकिन उपन्यास क्षेत्र में मेरे लिए यह एकदम नया और सराहनीय प्रयोग है। क्योंकि यह काॅमिक्स और फिल्म आदि से कुछ अलग भी है और विस्तृत भी।
डंके की चोट- बसंत कश्यप
    उपन्यास में तिलस्म है, जासूसी है, भूत-प्रेत है, हास्य है, एक्शन है, धर्म- आध्यात्मिकता है लेकिन सबसे बड़ी और अच्छी बात है सब संतुलित है और कहीं अतिशयोक्ति भी नहीं है। इस चीजों को संतुलित रखना एक बड़ी समस्या हो सकती है लेकिन यह लेखक की प्रतिभा है की उन्होंने उपन्यास को इस तरीके से लिखा है की कहीं कुछ अतिरिक्त महसूस नहीं होता।
'हिमालय सीरिज' का प्रथम भाग 'हिमालय की चीख' है और द्वितीय भाग 'डंके की चोट' और तृतीय भाग पर चर्चा उपन्यास पढने के बाद। एक बार इसी उपन्यास की चर्चा करते हैं।

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