Friday 31 January 2020

265. नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल

परिस्थिति और मनुष्य
नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल

कभी-कभी कुछ अलग पढने की इच्छा होती है तो तब कुछ विशेष और कभी अविशेष पढा जाता है। एक उपन्यास जो काफी चर्चा में रहा वह है विनोद कुमार शुक्ल जी का 'नौकर की कमीज'। यह एक पूर्णतः साहित्यिक रचना है जो अभिधा की बजाय लक्षणा और व्यंजना के माध्यम से बहुत कुछ कहता है।
        मनुष्य कठिन परिस्थितियों के दौरान किस तरह से अपने को व्यवस्थित रखता है, कैसा व्यवहार करता है और शासक (मालिक) का उसके प्रति कैसा व्यवहार होता है आदि घटनाक्रम को इस उपन्यास के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।

264. समुद्र में खून- सुरेन्द्र मोहन पाठक

क्यों हुआ समुद्र में खून....
समुद्र में खून- सुरेन्द्र मोहन पाठक, मर्डर मिस्ट्री उपन्यास
सुनील सीरिज-02

      सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने जी अपने उपन्यास लेखक की शुरुआत सुनील चक्रवर्ती सीरीज से की थी। सुनील सीरीज का प्रथम उपन्यास था 'पुराने गुनाह, नये गुनहगार' और द्वितीय उपन्यास है 'समुद्र में खून' दोनों ही मर्डर मिस्ट्री हैं।
वर्तमान में हार्डकाॅपी में ये उपन्यास उपलब्ध नहीं हैं लेकिन Ebook के रूप में विभिन्‍न प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध हैं। मैंने भी ये उपन्यास Kindle पर पढा था। छोटा सा उपन्यास है जिसे आसानी से पढा जा सकता है। 
दीपा नाम की एक विवाहित महिला मुरलीधर को सात हजार का प्रोनोट लिखकर दे आयी है। उसके पास इस समय अपना लिखा कागज वापिस लेने के रुपये नहीं हैं जबकि उसका पति उस कागज को हथियाने के लिए सात हजार से अधिक भी देने के लिए तैयार है।
और इस केस में प्रवेश करता है ब्लास्ट अखबार का पत्रकार सुनील चक्रवर्ती। जो किसी परिस्थिति वश उस प्रोनोट को प्राप्त करना चाहता है- मेरी दिलचस्प यह है कि वह कागज पति के हाथ नहीं पहुंचना चाहिए।


सुनील का इस केस में हस्तक्षेप स्वयं उसके लिए मुसीबत बन जाता है। क्योंकि इस केस दौरान एक खून हो जाता है और उसका इल्जाम सुनील पर आता है।
वहीं पुलिस विभाग भी सुनील को इस खून के इल्जाम में आरोपी मानता है। - "सुनील, इस केस में तुम्हारी नाक न रगड़वाई तो मेरा भी नाम प्रभुदयाल नहीं।"
समाचार पत्रों में यह विशेष खबर बनती है-
एक अखबार वाला जोर-जोर से चिल्ला रहा था।
रिपोर्टर फरार...ब्लास्ट के रिपोर्टर पर हत्या का संदेह..रिपोर्टर फरार....।

उस प्रोनोट में क्या था?
- दीपा का पति उस प्रोनोट को क्यों खरीदना चाहता था?
- सुनील का इस केस से क्या संबंध था?
- समुद्र में किस का खून हुआ?
- आखिर खूनी कौन था?

      

   तो यह है 'समुद्र में खून' उपन्यास का एक छोटा सा कथानक। कथानक चाहे छोटा है पर कथा पठनीय है। उपन्यास का कथानक तीव्र गति से चलता है कहीं नीरसता महसूस नहीं होती। कहीं ज्यादा उलझाव नहीं है। हां, अंत में एक 'घण्टी' बजने की वजह थोड़ी कन्फ्यू अवश्य करती है।

उपन्यास का कथानक एक जहाज से सम्बन्धित है जो समुद्र में अंतर्राष्ट्रीय सीमा में खड़ा है और वहाँ अवैध कार्य होता है। अंतर्राष्ट्रीय सीमा में स्थित होने के कारण पुलिस वहाँ कोई कार्यवाही नहीं कर सकती। लेकिन जब वहाँ एक खून होता है तो पता नहीं कैसे पुलिस कार्यवाही करती नजर आती है। उस पर भी वहाँ स्थित लोग पुलिस का धमकाते भी हैं।
यह जहाज हमारे देश की सीमा से बाहर खड़ा है। यहाँ आप हमें खामख्वाह अपने आॅफिसर होने की धौंस नहीं दे सकते।

- "ऐसी की तैसी तुम्हारी और तुम्हारे आॅर्डर की" दीनानाथ आपे से बाहर होकर बोला, "इस जहाज का मालिक मैं हूँ और यह जहाज अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में खड़ा है समझे।"


ऐसी ही एक और कमी है जो मुझे लगी। उपन्यास के अनुसार सन् 1964 में (1964 उपन्यास का प्रकाशन वर्ष है) बैंक में कोई भी छद्म नाम से खाता खुलवा सकता था। मुझे नहीं लगता यह संभव होगा।
सुनील अपने मित्र रमाकांत को कहता है- तुम किसी भी बैंक में जाकर रवीन्द्र कुमार के नाम से एक हजार रुपये का नया एकाउंट खुलवा लो। बैंक के रिकार्ड में अपने साइन के स्थान पर रवीन्द्र कुमार लिख दो।
रमाकांत के विरोध करने पर सुनील उसे समझाता है है की कोई भी व्यक्ति अपना नाम बैंक खाते में बदल सकता है- किसी भी व्यक्ति को कोई भी नाम धारण कर लेने का पूरा अधिकार होता है।

उपन्यास का कथानक एक मर्डर मिस्ट्री पर आधारित है। समुद्र में खड़े एक जहाज में खून होता है और फिर हत्यारे की तलाश।
उपन्यास में कुछ कमियों को छोड़ दिया जाये तो उपन्यास अच्छा है, छोटा है और रोचक है।

उपन्यास- समुद्र में खून
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक


सुनील सीरीज का द्वितीय उपन्यास
पाठक जी का द्वितीय

263. मोहब्बत का जाल- बसंत कश्यप

प्यार, दोस्ती और दौलत
मोहब्बत का जाल- बसंत कश्यप, उपन्यास

बसंत कश्यप मेरे पसंदीदा उपन्यासकार है। इनका 'हिमालय सीरीज' मेरा पसंदीदा उपन्यास है। मुझे बसंत कश्यप जी के उपन्यासों की खोज रहती है। इसी खोज के दौरान इनका एक उपन्यास 'मोहब्बत का जाल' उपलब्ध हुआ।
यह बसंत कश्यप का आरम्भिक उपन्यास है। जो इनके बाद के उपन्यास की तुलना में निम्नतर है।
अब चर्चा करते है बसंत कश्यप जी के उपन्यास 'मोहब्बत का जाल' की।
 दिल, दौलत और दोस्ती, 


यूं तो हजार दर्दों से लिथड़ी होती है,
इंसा की जिंदगी।
मगर, दौलत वो नासूर है,
जिसका मुदावा कोई नहीं होता।

बसंत कश्यप जी द्वारा रचित उक्त पंक्तियों से और उपन्यास शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है की उपन्यास की कथावस्तु दोस्ती, प्यार और दौलत पर आधारित है। अब यह कहां की दौलत है, कौन लूटता है, कहां धोखा होता है, कौन धोखा करता है, किसको दौलत मिलती है।
ये सब तो उपन्यास पढने पर ही पता चलेगा। अब कुछ बात उपन्यास की कथावस्तु पर कर ली जाये।
           यह कहानी है पश्चिम बंगाल की। विजय और पाटिल दोनों मुंबई से पश्चिम बंगाल अपने मित्र जयपाल के बुलावे पर आते हैं। काम था बैंक डकैती। एक सफल डकैती के पश्चात वे एक ऐसी जगह फंस जाते है जहाँ मौत के अलावा और कुछ भी नहीं।- जहाँ मौत के अन्धेरे के अलावा जिन्दगी की एक भी किरण दिखाई नहीं दे रही थी। (पृष्ठ-51) एक ऐसी जगह जहाँ आना तो आसान है लेकिन वहाँ से‌ निकलना असंभव सा है।-वे चारों जैसे समझ चुके थे कि इन घाटियों से अब उनकी रूह भी नहीं निकल सकती। (पृष्ठ-51)


Sunday 26 January 2020

262. माई लास्ट अफेयर- सुधीर मौर्य

अंतिम प्यार से जिंदगी की शुरुआत...
माई लास्ट Affair- सुधीर मौर्य, 
प्रेम कथा

खाली वक्त निकालने से अच्छा है की कुछ पढ लिया जाये। बहुत सी किताबों में से कुछ अलग पढना चाहता था। तब नजर आयी सुधीर मौर्य की किताब 'मेरा लास्ट affair'।
वैसे मुझे प्रेमकथाएं पढना कम‌ पसंद है, लेकिन प्रयोग के स्तर पर इस उपन्यास को पढा।
प्रस्तुत उपन्यास पूर्णतः एक प्रेम कथा है जिसमें बीच-बीच में वासना का 'तड़का' लगाया गया है। हालांकि यह पाठक पर निर्भर है वह किस उपन्यास को किस दृष्टि से पढता है। मैं जिस कहानी को पढना हूँ तो मेरी इच्छा होती है कहानी ऐसी हो जिसे बड़ों से लेकर छोटे बच्चे तक पढ सकें, परिवार के सदस्य पढ सकें। इस दृष्टि से यह उपन्यास मुझे अच्छा नहीं लगा।
उपन्यास का मुख्य पात्र कुणाल है। यह कथा कुणाल और उसकी जिंदगी में आने वाली लड़कियों पर केन्द्रित है। कुणाल की जिंदगी में एक के बाद एक लड़कियां ऐसे गिरती हैं जैसे न्यूटन के सामने सेव गिरा था। जैसे रूही, सुम्बुल, नाज और अस्मिता आदि।
 
         कुणाल को हर एक लड़की के प्यार का नशा होता है लेकिन यह नशा किसी न किसी वजह से उतर भी जाता है। वह चाहे मजबूरी हो, बेवफाई हो या कुछ और कारण। - बेवफाई तो अजल से जमाने का दस्तूर रहा है। अगर जमाने में प्यार है तो बेवफाई भी रहेगी; प्यार और बेवफाई का तो चोली दामन का साथ है, दोनों सहेलियाँ हैं। और यह साथ चलता रहता है। कभी प्यार जीत जाता है तो कभी प्रेमी जिंदगी से भी हार जाता है।

         प्यार और प्यार नें जुदाई से तंग आकर कुणाल शहर ही बदल लेता है लेकिन उसकी किस्मत यहाँ भी उसकी झोली में, संयोग से एक प्यार आ टपकता है। यहीं से उपन्यास का आरम्भ होता है। बस में सफर के दौरान कुणाल को रूही मिलती है, रास्ते में प्यार हो जाता है और मंजिल पर पहुंचने से पहले-पहले यह प्यार 'प्यार की हद' भी पार कर जाता है। और कुणाल को प्यार का नशा भी हो जाता है।
         हाँ मैं नशा करने लगा था; रुही से मुहब्बत का नशा, उसकी आवारा जुल्फों की छाँव का नशा; उसकी चमकती मरमरी बाहें, जो न जाने कितनी बार मेरे गले का हार बन चुकी थीं, न जाने कितनी बार मेरी कमर के गिर्द लिपट चुकी थीं, उनका नशा। सच पूछो तो सिर्फ इस एहसास से ही कि रूही मेरी महबूबा है, मेरा विश्वास कई गुना बढ़ जाता था, और जब वो मेरे कदमों से कदम मिलाकर साथ देती तो मैं खुद को दुनिया का सबसे ज्यादा खुशनसीब व्यक्ति समझने लगता था।
        रूही के साथ आरम्भ हुआ यह उपन्यास धीरे-धीरे कुणाल के भूतकाल की घटनाओं से पाठक का परिचय करवाता है और उस परिचय में पाठक नाज, सुम्बुल, अस्मिता, संजोत आदि से मिलता है। ये सब पात्र एक पुन: चुपके से कुणाल के जीवन में प्रवेश कर जाते हैं।
         कुणाल के लिए किसी को भी भूला देना आसान नहीं है। - मेरी कच्ची उम्र की मुहब्बत, मेरी नाज, जिसके एक बार बिछड़ा तो फिर उससे दुबारा मिल ही न सका। अस्मिता और संजोत; सबके साथ एक दर्द भरी कहानी थी मेरी। एक ऐसा रिश्ता जिसके दर्द की टीस दिल के जख्मों को कभी सूखने नहीं देती, हर वक्त हर घड़ी उन्हें ताजा रखती है।
         एक तरफ नया प्यार है, एक तरफ बचपन का प्यार है तो कहीं दोस्ती वाला प्यार है और इन सब के बीच है कुणाल।
आखिर कुणाल किसे अपना लास्ट अफेयर बना पाया यह उपन्यास का मूल बिंदु है।
‘‘क्या?’’ उसने मेरे गले में बाँहें डाल दीं।
‘‘माई लास्ट अफेयर।’’ मैं उसे कमर से पकड़कर अपने करीब खींचते हुए बोला।
‘‘मतलब?’’ उसने अपने सीने पे मेरे हाथ के दबाव को महसूस करके चिहुँकते हुए पूछा।
‘‘मतलब.... ज़िन्दगी की शुरूआत!’’ कहकर मैंने लाइट ऑफ कर दी।

         आखिर कौन था कुणाल का लास्ट Affair?

Friday 17 January 2020

261. अक्टूबर जंक्शन- दिव्य प्रकाश दूबे

इस प्यार को क्या नाम दूं?
अक्टूबर जंक्शन- दिव्य प्रकाश दूबे
नये लेखकों में दिव्य प्रकाश दुबे जी ने कम समय में अपनी अच्छा पहचान स्थापित की है। नयी उम्र के पाठकों में इनकी रचनाएँ काफी चर्चित रही हैं।
           दिव्य प्रकाश दुबे का उपन्यास 'अक्टूबर जंक्शन' लगभग एक साल से मेरे पास पड़ा था पर इस उपन्यास को कभी पढने का अवसर ही नहीं मिला। सन् 2020 में मेरे द्वारा पढे जाने वाली यह प्रथम रचना है।
        'अक्टूबर जंक्शन' एक प्रेम कथा है, हालांकि इसे पूर्णतः प्रेम कथा भी नहीं कहा जा सकता। यह दोस्ती और प्रेम के समानांतर चलती वाली एक 'ठहरी सी कथा' है। ऐसी कथा जिसके लिए बस यही कहा जा सकता है- 'इस प्यार को क्या नाम दूं।'
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        यह किस संदर्भ में ठहरी है यह भी स्पष्ट कर लेते हैं।। उपन्यास का नायक सुदीप यादव और चित्रा पाठक संयोग से दोस्त हैं। यह दोस्ती भी संयोग से होती है और अजीब भी है, क्योंकि दोनों साल में एक तय समय पर ही मिलते हैं,वह भी साल में एक बार और यह सिलसिला अनवरत दस साल तक चलता है। इस तय समय के अलावा दोनों में कोई संपर्क भी नहीं होता। दोनों की एक-दूसरे की जिंदगी में साल में एक दिन ही सही लेकिन पक्की जगह है। (पृष्ठ-84)
इसी वजह से कहानी मुझे ठहरी सी लगती है। हालांकि यह दस साल पठन दौरान दस दिन की तरह गुजर जाते हैं।
       अब बात करे 'अक्टूबर जंक्शन' के कथानक की। सुदीप यादव कम समय में भारत का श्रेष्ठ स्टार्टर बन कर उभरता है। उसकी कम्पनी बहुत कम समय में नयी उंचाइयों को छूती लेती है।‌ लेकिन सुदीप यादव के मन में एक विरक्ति है जो उसे कभी-कभी अपने काम से दूर एकांत में ले जाती है। वही चित्रा पाठक परिस्थितियों की मार से बचने के लिए और अपने रोजगार के लिए कुछ नया करना चाहती है।- औरतों को नजारा बदलने के लिए आदमी से ज्यादा चलना पड़ता है। चित्रा का रास्ता लम्बा भी था और अलग भी इसलिए मुश्किल ज्यादा न भी हो लेकिन नयी थी। (पृष्ठ-83)
       चित्रा का यह सफर वास्तव के में सुदीप के सफर से अलग और कठिन है। चित्रा जहाँ से सफर आरम्भ करती है और अंत में वहीं आकर ठहर जाती है।
       संयोग दोनों को बनारस में मिला देता है। प्रथम परिचय एक नाम मात्र की दोस्ती में परिवर्तित होता है। और फिर यह दोस्ती एक किताब के माध्यम से आगे बढती है।
लेकिन कुछ परिस्थितियों दोनों की जिंदगी में एक ऐसा परिवर्तन ले आती हैं जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की।
      असल में प्यार को हमने जिंदगी में जरूरत से ज्‍यादा जगह दे रखी है। हमें प्यार से जगह बचाकर कभी-कभी कभार ऐसे ही शहर से दूर चले जाना चाहिए, जहां रिश्ते में प्यार तो हो लेकिन प्यार का नाम न हो। (पृष्ठ-60)
सुदीप और चित्रा के रिश्ते को परिभाषित करती उक्त पंक्तियाँ उपन्यास का सार भी है।
        उपन्यास अच्छा और दिलचस्प है। बस उपन्यास को दस साल तक लंबा खींचना कुछ अजीब सा लगता है। वह भी तक की वो 365 दिन में से 364 दिन तक किसी भी प्रकार का परस्पर संपर्क तक नहीं रखते।

उपन्यास में कुछ रोमानी और नीतिगत संवाद/पंक्तियाँ है जो लेखक के साथ-साथ पात्रों की भावनाओं को उजागर करने में सक्षम है।
- हम शाम होने तक अपनी पीछे एक पूरी दुनिया खोकर घर लौटते हैं। दिन ऐसे ही खाली होकर साल हो जाते हैं। (पृष्ठ-85)

- कुछ रिश्तों को ऐसे ही छूना चाहिए जैसे ठण्ड में घास पर जमी ओस की बूँद को नंगे पाँव छूते हैं। (पृष्ठ-106)

- जिंदगी एक हद तक ही परेशान करती है। उसके बाद वो खुद ही हाथ थाम लेती है। (पृष्ठ-109)

- आसमान हमें उन सारी ख्वाहिशों को देख‌ने की आँखें देता है जो जमीन पर बेकाम की बातों में उलझी रहती हैं।
(पृष्ठ-131)
'अक्टूबर जंक्शन' प्रेम और दोस्ती पर आधारित आधुनिक जीवन शैली का उपन्यास है। अगर आपको प्रेम परक रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो यह उपन्यास आपको पसंद आयेगा। हां, उपन्यास का समापन पाठक को भावुक करने में सक्षम है।
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उपन्यास- अक्टूबर जंक्शन 

लेखक-    दिव्य प्रकाश दुबे
प्रकाशक- हिन्द युग्म
पृष्ठ-        150
अमेजन लिंक-  अक्टूबर जंक्शन

आयुष्मान - आनंद चौधरी

अमर होने की चाह.... आयुष्मान- आनंद चौधरी ये अजीबोगरीब दास्तान मोर्चरी के पोस्टमार्टम रूम में पोस्टमार्टम टेबल पर रखी गई एक लाश से शुरू होती...