Monday 23 April 2018

108. डाकघर- रवीन्द्रनाथ टैगोर

एक बच्चे की करणामयी कथा।
डाकघर- रवीन्द्रनाथ टैगोर, लघु नटक, संवेदनशील रचना, पठनीय।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को पढने का अर्थ है भावना के समुद्र में बह जाना, मानवीय संवेदना को छू जाना।  
प्रकाशक लिखता है- रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ एवं नाटक विशेष रूप से कला, शिल्प, शब्द- सौन्दर्य, सभी दृष्टियों से अनुपम एवं महत्वपूर्ण हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ एवं‌ नाटक वास्तव में जिसने नहीं पढे उसने कुछ नहीं पढा। 
            रवीन्द्रनाथ टैगौर द्वारा रचित 'डाकघर' एक लघु नाटक है। डाकघर एक नन्हें बच्चे की कहानी है। एक‌ नन्हा बच्चा 'अमल' जो किसी रोग से ग्रस्त है। वैद्य जी ने उसे कमरे से भी बाहर निकले को मना किया है। उसकी रक्षा का एकमात्र उपाय है उसे किसी तरह शरत्ऋतु की धूप और हवा से बचाकर घर में बंद रखना। (पृष्ठ-10)
          अमल घर में, कमरे में कैद है। खिड़की से वह आते-जाते लोगों को देखता है, उनसे बातें करता है।‌ कितनी विवशता है। बच्चा सबको देखता है, उसका मन भी खेलने को होता है, घूमने को होता है लेकिन वह मजबूर है। बस अपना दर्द समेटे बैठा है। कमरा ही उसकी दुनियां है। लेकिन कमरे से बाहर एक और दुनियां है अमल उसी दुनियां को जीना चाहता है।    
           बच्चों का मन बहुत कल्पनाशील होता है। अमल भी बाहर की दुनियां की बाते सुन- सुन कर अपनी एक काल्पनिक दुनियां बना लेता है।
          एक ऐसे दुनियां जिसमें शास्त्र पढे पण्डित नहीं होंगे, उसमें तो दही बेचने वाला होगा, घूमने वाले होंगे, डाकिया होगा, भिखारी होगा, पहाड़ पर जाने वाले होंगे। अमल कभी डाकिया बनना चाहता है, कभी दहीवाला, कभी भिखारी तो कभी कुछ-कभी कुछ।
            नाटक में रोचक प्रसंग और मोड़ तब आता है जब अमल के घर के सामने  राजा का डाकघर खुलता है। अमल स्वयं को उसी डाकघर से जोड़ लेता है। उसकी काल्पनिक दुनियां में डाकघर एक नया पात्र है। अमल को लगता है एक दिन उसको राजा का पत्र आयेगा और डाकिया उसे देकर जायेगा। मेरे नाम‌ की चिट्ठी आयेगी तो वे मुझे पहचान कर दे जायेँगे।(पृष्ठ-29)
            गांव में एक तथाकथित चौधरी है जो एक बीमार बच्चे के दर्द को न महसूस कर राजा को बच्चे की शिकायत कर देता है।
- क्या अमल का रोग सही हुआ?
-  क्या अमल को राजा की चिट्ठी आयी?
-  गाँव के चौधरी ने क्या किया?
नाटक का आरम्भ बहुत रोचक ढंग से होता है। माधवदत्त जी अमल के अभिभावक हैं और एक है वैद्य जी। दोनों के संवाद बहुत रोचक हैं।
माधवदत्त- बड़ी मुसीबत में पड़ गया। जब वह नहीं था, तब नहीं ही था, किसी बात की चिंता ही न थी। अब न जाने कहाँ से आकर उसने मेरा घर घेर लिया है; उसके चले जाने से मेरा घर फिर घर ही नहीं रह जाएगा। वैद्यजी, आप क्या समझते हैं उसे? (पृष्ठ-07)
      वैद्य जी प्रत्येक बात पर शास्त्रों की चर्चा करते हैं जो माधव की समझ से बाहर है।
शास्त्रों में लिखा है, 
- 'पैत्तिकान् सन्निपातजान कफवातसमुद्भवात'। (पृष्ठ-07)
- 'अपस्मारे ज्वरे काशे कामलाया हलीमके'(पृष्ठ-08)
- 'पवने तपने चैव'(पृष्ठ-08)
एक और मार्मिक संवाद देखें।
तुम्हें क्या हुआ है बाबू?
मुझे नहीं मालूम। मैं पढा लिखा नहीं हूँ न।(पृष्ठ-15)
         नाटक के सभी पात्र, चाहे उनका किरदार कम ही क्यों न हो, पर सभी प्रभावी हैं। 
         नाटक शुरू से अंत तक बहुत ही रोचक है और इसका समापन सहृदय की आँखों में आँसू ले आयेगा।
निष्कर्ष:-
          सहृदय पाठक के लिए यह लघु नाटक मन के अंदर तक उतरने की क्षमता रखता है।‌ नाटक का कलेरव चाहे छोटा हो लेकिन उसकी संवेदना बहुत गहरी है। 
               यह लघु नाटक कम पृष्ठों में बहुत कुछ कह जाता है। पठनीय रचना है, अवश्य पढें।
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किताब- डाकघर (लघु नाटक)
लेखक- रवीन्द्रनाथ टैगोर
प्रकाशक- रमन बुक सेंटर, मथुरा(UP)
पृष्ठ- 50
मूल्य- 75₹

Friday 6 April 2018

107. काजर की कोठरी- देवकीनंदन खत्री

जब शादी के दिन गायब हो गयी पत्नी...
काजर की कोठरी- देवकीनंदन खत्री, थ्रिलर, औसत।
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संध्या होने में अभी दो घण्टे की देर है मगर सूर्य भगवान के दर्शन नहीं हो रहे, क्योंकि काली-काली घटाओं ने आसमान को चारों तरफ से घेर लिया है। जिधर निगाह दौङाइए मजेदार समा नजर आता है और इसका तो विश्वास भी नहीं होता कि संध्या होने में अभी कुछ कसर है।
                यह पंक्तियां देवकीनंदन खत्री जी के प्रसिद्ध उपन्यास 'काजर की कोठरी' की हैं।
अय्यारी, तिलस्मी जैसे उपन्यासों में महारथ हासिल खत्री का यह उपन्यास उनके अन्य उपन्यासों से थोङा सा अलग है क्योंकि इसमें तिलिस्म या अय्यारी नहीं बल्कि धोखेबाजी मुख्य है। पाठक को प्रथम पृष्ठ से ही सब कुछ पता चल जाता है की उपन्यास का अंत क्या होगा।
    
       जिमींदार कल्याण सिंह के पुत्र हरनंदन की शादी लाल सिंह की पुत्री सरला से होने वाली है। शादी के दिन सरला घर से गायब पायी जाती है। उसके कमरे में खून के छींटे मिलते हैं।
                दूसरी तरफ कल्याण सिंह के कमरे में एक पिटारा मिलता है जिसमें खून से सने वे कपङे होते हैं जो कल्याण सिंह के परिवार की तरफ से सरला को रस्म अनुसार दिये गये थे।
                     दोनों परिवार हैरान-परेशान और दुखी हैं कि आखिर सरला कहां गायब हो गयी।
आखिर हरनंदन सिंह सरला के गायब होने ले रहस्य को सुलझाने का निर्णय लेता है।
- सरला आखिर कहां गायब हुयी?
- क्या सरला जिंदा/ मुर्दा थी?
- कौन थे अपराधी?
- क्या हरनंदन सिंह अपने कार्य में सफल हुआ?
- खून से सने कपङों‌ का क्या रहस्य था?
    ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्नों का उत्तर तो देवकीनंदन खत्री के उपन्यास काजर की कोठरी को पढकर ही मिल सकते हैं।
      
    उपन्यास सामान्य है। पाठक को उपन्यास के आरम्भ में ही मूल कथा और खलनायक का पता चल जाता है।  शेष उपन्यास में मात्र यही रहस्य बाकी रह जाता है की हरनंदन सिंह कैसे सरला का पता लगता है।
संपादक महोदय ने उपन्यास के आरम्भ में ही इतना कुछ लिख दिया की उपन्यास बिना पढे भी काम चल सकता है। आप भी पढ लीजिएगा।
   काजर की कोठरी सन् 1900 के आसपास लिखा गया उपन्यास है जिसमें वेश्या सरीखी, दुष्चरित्र, धोखेबाज और कुटिल समझी जाने वाली स्त्री के चरित्र का औदात्य दिखाया गया है। जमींदार और वेश्या के आत्मीय, सरल और सहज संबंधों को इस उपन्यास में वाणी दी गयी है।
            यह उपन्यास मूलतः वेश्या जीवन पर लिखा गया है। जमींदार हरनंदन सिंह का विवाह सरला के साथ होने वाला है। किंतु वह विवाह पूर्व ही गायब कर दी जाती है- गायब होने के स्थान पर खून से सनी एक पोटली मिलती है। हरनंदन सिंह शादी में आयी वेश्या से संबंध स्थापित कर लेते है और गायब हुयी सरला का पता लगाते हैं। सरला का चचेरा भाई उसका विवाह हरनंदन सिंह के साथ नहीं करना चाहता- बल्कि चाचा की वसीयत के अनुसार उसका विवाह कहीं अन्यत्र करा, वह आधे धन का मालिक बनना चाहता है। हरनंदन सिंह वेश्या को अपने विश्वास में लेकर अंत में सरला का पता लगा लेते हैं और अपराधी दण्डित होते हैं।
 
    उपन्यास में विशेष तौर से वेश्या जीवन के दोहरे चरित्र का खूब वर्णन किया है।
 
उपन्यास कोई विशेष नहीं है। मात्र देवकीनंदन खत्री का उपन्यास होने के नाते या वेश्या जीवन के दोहरे चरित्र को देखने की दृष्टि से पढा जा सकता है।
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उपन्यास- काजर की कोठरी
लेखक-    देवकीनंदन खत्री (18.06.1861- 04..8.1913)
वर्ष- 1900 (लगभग)
प्रकाशक- साहित्यागार, SMS हाइवे -जयपुर
पृष्ठ- 83

Thursday 5 April 2018

106. सूरज का सातवाँ घोङा- धर्मवीर भारती

टुकङो में विभक्त एक दर्द भरी प्रेम कहानी।
सूरज का सातवाँ घोङा- धर्मवीर भारती, साहित्यिक उपन्यास, रोचक, पठनीय, उत्तम।
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    धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया उपन्यास सूरज का सातवाँ घोङा एक प्रयोगात्मक उपन्यास है। कथा और शिल्प दोनों स्तरों पर इसमें अपने समय में प्रयोग किये गये थे। यह प्रयोग सफल भी रहा। क्योंकि सन् ..में प्रकाशित इस उपन्यास को आज भी पाठक उतने ही चाव से पढता है जितना इसके प्रकाशन के वक्त पढा गया था।
      निर्देशन श्याम बेनेगल द्वारा इस उपन्यास पर इसी शीर्षक से निर्मित फिल्म सफल भी रही और उसे राष्ट्रीय...पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
     
       सूरज का सातवाँ घोङा एक प्रेम कथा है। यह एक कहानी है या उपन्यास ऐसा पाठक को लग सकता है । मूलतः यह उपन्यास है लेकिन इसके प्रस्तुतीकरण का तरीका कहानी जैसा ही है। यह स्वयं में एक प्रयोग है।
     पूरा घटनाक्रम माणिक मुल्ला के कथित है।
गर्मि का समय है, दोपहर का। कुछ बच्चे माणिक मुल्ला के कमरें में हर रोज एकत्र होते हैं और माणिक मुल्तान उन्हें हर रोज एक प्रेम कहानी सुनाता है। ये कहानियाँ प्रथम दृष्टया अलग -अलग नजर आती है लेकिन अंत में जाकर एक हो जाती हैं। लेकिन किसी भी कहानी में कॊई बिखराव नहीं है। सभी एक दूसरे से आबद्ध है। इन सभी कहानियाँ को आपस में आबद्ध करने का कार्य स्वयं माणिक मुल्ला ही करता है क्योंकि वह प्रत्येक कहानी से स्वयं भी जुङा हुआ है।
         
    कहानी चाहे जमुना की हो, चाहे लिली या सती की। सभी से माणिक मुल्ला का संबंध रहा है और सभी कहानियाँ में एक टीस भी है। एक ऐसी टीस जो पाठक के हृदय को चीर जाती है। 
        
      उपन्यास में माणिक मुल्ला के माध्यम से क ई कहानियों व्यक्त हुयी हैं लेकिन कोई भी प्रेम कहानी अपने लक्ष्य तक न पहुंची। यही जीवन की विडंबना है और इसी विडंबना को विभिन्न पात्रों के माध्यम से व्यक्त किया गया है।
            जमुना को तन्ना बहुत पसंद है, वह उससे शादी की इच्छुक है। लेकिन समाज की मर्यादा इस प्रेम में बाधक है। तन्ना का बाप महेसर भी इस प्रेम को स्वीकृति नहीं दे पाता। जमुना माणिक मुल्ला के प्रति भी बहुत लगाव रखती है लेकिन इसका प्रेम कहीं भी सफलता प्राप्त नहीं कर पाता।
        एक है लिली उर्फ लीला जो माणिक मुल्ला से स्नेह रखती है। लेकिन आधुनिक विचारों की समर्थक है। लीला का विवाह तन्ना से हो जाता है। लेकिन एक बच्चे के पश्चात भी दोनों में दाम्पत्य प्रेम की कमी दिखाई देती है।
         सती जो की एक आत्मनिर्भर महिला की भूमिका में है लेकिन उसकी पारिवारिक स्थिति उसे इस स्थिति में‌ ले आती है जहाँ वह न जी सकती है न‌ मर सकती है। सती और माणिक मुल्ला में स्नेह की डोर है। लेकिन परिस्थितिया इस डोर को तोङ देती हैं।  दूसरी तरफ तन्ना का बाप महेसर सती की आर्थिक व पारिवारिक परिस्थितियों का भरपूर फायदा उठाने की सोचता है।
     
एक तरह से सभी कहानियाँ माणिक मुल्ला से संबंध रखती हैं और अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी।
इस उपन्यास में मात्र प्रेम कहानियाँ ही नहीं है, इनके साथ-साथ भारत के मध्यवर्गीय समाज का चित्रण, प्रेम की पीर, मार्क्सवाद और आधुनिक कहानी के संबंध में भी बहुत कुछ पढने को मिलता है।
  
        आजकल के लेखक जिस प्रकार कहानी के शीर्षक को अति आकर्षक बनाने में लगे रहतॆ हैं उस पर माणिक मुल्ला के माध्यम से व्यंग्य किया गया है- "...तुम लोग कहानी सुनने आये हो या शीर्षक सुनने? या मैं उन कहानी लेखकों में से हूँ जो आकर्षक विषयवस्तु के अभाव में आकर्षक शीर्षक देकर पत्रों के संपादकों और पाठकों का ध्यान खींचा करते हैं।" (पृष्ठ-43)
"टेकनीक पर ज्यादा जोर वही देता है जो कहीं न कहीं अपरिपक्व है...फिर भी टेकनीक पर ध्यान देना बहुत स्वस्थ प्रवृत्ति है बशर्ते वह अनुपात से अधिक न हो।" (पृष्ठ-84)
     
मध्यमवर्गीय समाज के संबंध में लिखा है- " हम‌ सभी निम्न मध्य श्रेणी के लोगों की जिंदगी में हवा का ताजा झोंका नहीं है...।"(पृष्ठ-42)
कुछ विशेष कथन-
- प्यार आत्मा की गहराइयों में सोये हुए सौन्दर्य के संगीत को जगा देता है। (पृष्ठ-69)
उपन्यास खण्ड और शीर्षक-
उपन्यास को सात खण्डों में विभक्त किया गया है।  प्रत्येक खण्ड का नाम‌ दोपहर दिया गया है, क्योंकि यह कहानियाँ गर्मी की दोपहर में सुनायी गयी हैं। हिंदी साहित्य में विभिन्न ग्रंथों में खण्डों के नाम अलग-अलग मिलते हैं, जैसे समय( पद्मावत में), अंक, भाग, इत्यादि।
    प्रत्येक खण्ड से पूर्व एक छोटा सा अध्याय भी अनध्याय नाम से मिलता है।
निष्कर्ष-
  धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया उपन्यास सूरज का सातवाँ घोङा एक प्रयोगशील उपन्यास है।
कथा स्तर पर यह उपन्यास मानव के अंतर का चित्रण करता है। यह उस मध्यमवर्गीय समाज का चित्रण करता है जो करना कुछ और चाहता है लेकिन उसकी परिस्थितियां उसे करने नहीं देती। ऐसी ही विषम परिस्थितियों में घिरे माणिक मुल्ला, जमुना, लिली, सती और तन्ना का चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।
       कहानी रोचक और मन को छू लेने वाली है। उपन्यास का कलेवर लघु है और कहानी में तीव्रता भी है जो पाठक को स्वयं में समेटे रखती है।
      अगर आप यथार्थवादी प्रेम कहानी पढना पसंद करते हो तो यह उपन्यास अवश्य पढें ।
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उपन्यास- सूरज का सातवाँ घोङा
लेखक- धर्मवीर भारती
प्रकाशक-
वर्ष-
पृष्ठ- 114
मूल्य-
 इस उपन्यास को इस लिंक पर निशुल्क पढा जा सकता है।-  सूरज का सातवाँ घोङा

105. तीन इक्के- गुलशन नंदा

सुनहरे सपनों से दर्द तक तक सामाजिक कथा।
तीन इक्के- गुलशन नंदा, सामाजिक उपन्यास, रोचक, पठनीय।
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     साधना अभी काॅलेज से अपनी शिक्षा समाप्त करके निकली है। अन्य लङकियों की तरह उसके मन में भी नये सपने, नयी उमंग है। समाज को कुछ नया कर दिखाने की। अपनी प्रतिभा के दम पर एक नयी इबारत निकले की।
               लेकिन अभी साधना के सपनों ने उडान भी नहीं भरी थी की उसका सामना पडोसी आंटी ‌के घर दिल्ली से आये प्रकाश से हो जाता है। शायद मैं एक भेंट में प्रकाश पर छा जाना चाहती थी। ब्याह का संबंध हो या हो, मैं उसके मस्तिष्क पट पर एक ऐसा चित्र अंकित करना चाहती थी जो उसे सदा मेरी याद दिलाता रहे। (पृष्ठ-31)
मुलाकात से प्यार और प्यार से यह रिश्ता शादी तक पहुंच जाता है।
      
     दोनों परिवार आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से संपन्न हैं। साधना को एक नयी प्यार की दुनिया मिलती है। लेकिन यह स्वप्न कुछ समय पश्चात ही खण्डित हो जाते हैं जब उसके समक्ष प्रकाश का एक नया रूप आता है।
       साधना के दिव्यस्वप्न टूट जाते हैं। लेकिन साधना जैसी शिक्षित लङकी हार नहीं मानती वह परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने की हर संभव कोशिश करती है।
  
         उपन्यास में मूलतः इस बात पर ध्यान केन्द्रित है की कैसे एक लङकी अपने संसार को बचाने की कोशिश करती है।
   
  उपन्यास समाज के कई पक्षों का सहज ही चित्रण कर डालता है। पाठक जैसे जैसे कहानी में आगे बढता है उसे समाज/ व्यक्ति के कई रूप नजर आते हैं।  यह हमारे समाज की वास्तविकता को भी रेखांकित नरता है।
- साधना  और उसकी सहेलियों का शिक्षा पश्चात अपने पैरों पर खङा होने की चर्चा लेकिन साधना के माध्यम से यह भी दर्शाया गया है कई बार शिक्षण के पश्चात सपने पूर्ण नहीं होते।
- लङकी की जल्द शादी की कोशिश करना।
- प्रकाश जैसे व्यक्ति जो किसी भी लङकी को बहला सकते हैं।
- साधना की आंटी जैसे औरत जो साधना को भी सत्यता नहीं बताती।
- मिस्टर कपूर जैसे दोहरे चरित्र के आदमी ।
लेकिन समाज में बुराई है तो अच्छाई भी है। इसका चित्रण कई व्यक्तियों के द्वारा किया गया है।
साधना- जो प्रत्येक परिस्थिति का सामान मजबूती से करती है।
जाॅनी ड्राइवर- सरल हृदय के व्यक्ति ।
प्रकाश के पिता- जो अपनी बहू को बेटी के समान मानते हैं।
      उपन्यास में समाज की कई  बुराईयों का भी चित्रण है।     आजकल सोशल पार्टी के नाम पर लोग असामाजिक कार्य करते हैं। इनका विरोध साधना के माध्यम से दर्शाया गया है।
"तुम इतना पढ-लिखकर भी इन सोशल पार्टियों को बुरा कहती हो।"
"वह पार्टी या सभा, जहाँ मानव अपना चरित्र खो दे, सोशल(Social) नहीं कहलाती।" (पृष्ठ-43)
 
उन लोगों का भी चित्रण उपन्यास में है जो पहले जो लाङ- प्यार में अपनी संतान का व्यवहार खराब कर लेते हैं और फिर पश्चात करते हैं।
मुझे आज भली प्रकार उनकी विवशता का ध्यान हया। लाङ और प्यार से वह अपने बेटे को बिगाङ तो चुके थे ही, अब उसे सुधारने के लिए वह उसे कोई कठोर शब्द भी न कह सकते थे। (पृष्ठ-64)
संवाद और भाषा शैली -
                                 उपन्यास एक सामान्य कथा है इसमें कोई विशेष प्रभावी संवाद का प्रयोग नहीं है। और न ही ऐसी कोई कथा की मांग दृष्टिगत होती है। फिर भी यह एक अच्छा उपन्यास है और इसकी भाषा शैली सहज और सरल है।
फिर भी दो उदाहरण उपन्यास के संपूर्ण वातावरण को चित्रित करने में सक्षम है।
"कभी-कभी अनजान राही ठोकर लगने पर  अपने मार्ग से विचलित हो जाते हैं।" (पृष्ठ-66)
"हर वह स्थान जहाँ आप मेरे संग हैं, मेरे लिए हनीमून का स्थान है, हर वह मार्ग धरती का टुकङा जहाँ क्षण भर भी आप रुककर बात करते हैं, मेरी ओर देखकर मुस्कुराते हैं, मेरे लिए पवित्र स्थान बन जाता है...और आपका हर श्वास जिसमें मेरी याद रची है, मेरे लिए मधुर गीत है....यही मेरा ऐश्वर्य है।"-(पृष्ठ- 68)
उपन्यास शीर्षक-     
                       उपन्यास का शीर्षक तीन इक्के क्यों है। यह मुझे समझ में नहीं आया। साधना और प्रकाश के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रभावी पात्र नहीं है। जिसके आधार पर उपन्यास का नाम ती‌न इक्के रखा जाये।
     हालांकि उपन्यास में दो जगह ताश के खेल में तीन इक्के अवश्य आते हैं। जहाँ हार जीत में समर्पण अवश्य होता है।
शायद यही आधार उपन्यास के नामकरण में होगा।
निष्कर्ष-
    ‌‌‌       गुलशन नंदा का उपन्यास तीन इक्के एक पारिवारिक रचना है जो पाठक को सहज ही आकृष्ट करती है। भारतीय समाज में जो सामान्य परिस्थितियाँ होती है उन्हीं पर यह उपन्यास आधारित है।
      उपन्यास पाठक को आरम्भ से अंत तक अपने में बांधे रखता है। रचना छोटी सी है, प्रवाह तीव्र है इसलिए पाठक कहीं भी मानसिक थकान महसूस नहीं करता।
      उपन्यास पठनीय और रोचक है। सामाजिक उपन्यासों के पाठकों के अलावा अन्य पाठकों को भी उपन्यास पसंद आयेगा।
धन्यवाद।
- गुरप्रीत सिंह
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उपन्यास- तीन इक्के
लेखक- गुलशन नंदा
प्रकाशक- अशोक पॉकेट बुक्स- दिल्ली
वर्ष- 
पृष्ठ-
मूल्य

Tuesday 3 April 2018

104. गुनाह के फूल- गुलशन नंदा

जब गुनाह के फूल खिले.....
गुनाह के फूल- गुलशन‌ नंदा, मर्डर मिस्ट्री, रोचक, पठनीय।
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     गुलशन मूलतः एक सामाजिक उपन्यासकार हैं और अपने समय के सर्वाधिक चर्चित उपन्यास लेखक भी रहें हैं। इनके सामाजिक उपन्यासों पर बहुत सी चर्चित फिल्में भी बन चुकी हैं। 
            गुलशन नंदा का प्रस्तुत उपन्यास गुनाह के फूल एक‌ मर्डर मिस्ट्री है। मेरे विचार से ऐसा इनका यह एकमात्र उपन्यास ही होना चाहिए। घटना चाहे कोई भी हो वह समाज से विलग नहीं हो सकती, ठीक उसी तरह यह मर्डर मिस्ट्री भी समाज की ही एक घटना पर आधारित है। लेकिन लेखन ने इस पर समाजिकता हावी नहीं होने दी और इसी कारण से गुलशन नंदा का यह उपन्यास उनके अन्य सामाजिक उपन्यासों से अलग हटकर मर्डर मिस्ट्री की श्रेणी में आ जाता है।
        उपन्यास की कथा कोई ज्यादा बङी नहीं है और न ही पात्र ज्यादा हैं और ठीक उसी अनुपात में उपन्यास के पृष्ठ हैं। उपन्यास की कहानी, पात्र और पृष्ठ के अनुपात में उपन्यास रोचक और पठनीय बना है।
 
    क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान सुशील अपने छोटे भाई नवीन के साथ मुंबई एक्सप्रेस से अपनी‌ जीजी से मिलने भोपाल जा रही थी । वह अकेली न थी, बल्कि उसका छोटा भाई नवीन भी उसके सामने वाली सीट पर बैठा था। नवीन का अकेले बहन के संग रेल में यात्रा करने का पहला अवसर था। सुशील काॅलेज में पढती थी और नवीन तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था। दोनों क्रिस्मस की छुट्टियां काटने अपनी बङी बहन के पास भोपाल जा रहे थे। (पृष्ठ-03)  लेेकिन रास्ते में, ट्रेन में, रात के अंधेरे में किसी शैतान ने सुशील से दुराचार कर उसकी हत्या कर दी और उसके छोटे भाई को हाथ बांध कर टाॅयलेट में बंद कर दिया।
        सुशील का जीजा हरदयाल जो की भोपाल रेल्वे पुलिस का इंचार्ज था। वह इस केस की छानबीन करता है और एक मोङ पर जाकर वह स्वयं आश्चर्यचकित रह जाता है।  तस्वीर को ध्यान से देखते ही उसके मस्तिष्क पर एक अँधेरा सा छाने लगा। उसके हृदय की धङकने तेज हो गयी। टाँगें क्षण भर के लिए लङखङा सी गयी। पाँव तले की धरती खिसकती हुयी दिखाई देने लगी। उसे विश्वास न आ रहा था कि यह तस्वीर उस अपराधी की है...कहीं बहुत बङी भूल तो नहीं हो गयी.....कठिनता से अपने आपको सँभालते हुए वह पास के बिछे हुए बैंच पर बेसुध सा बैठ गया। (पृष्ठ-75) लेकिन अंतत: वह अपराधी को पकङने में कामयाब होता है।
            उपन्यास की‌ कहानी हालांकि छोटी सी है। एक हत्या और फिर मुजरिम को पकङना लेकिन उपन्यास में विशेष है इस दौरान की छोटी-छोटी घटनाएं । छोटे-छोटे तथ्यों और सबूतों के आधार पर कैसे एक पुलिसकर्मी अपराधी तक पहुंच पाता है। उपन्यास में कुछ ट्विस्ट भी हैं जो स्वयं हरदयाल को भी विचलित कर देते हैं। लेकिन एक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार हरदयाल अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होता।
     
                 गुलशन नंदा का उपन्यास पढना स्वयं में एक रोचकता है, और वह भी जब मर्डर मिस्ट्री हो तो क्या कहना। उपन्यास में कहीं भी अनावश्यक वार्तालाप, दृश्य नहीं है। उपन्यास बहुत ही हल्का-फुल्का है। अन्य जासूसी या मर्डर मिस्ट्री उपन्यासों की तरह उलझा हुआ नहीं है। यही उपन्यास की विशेषता है।
         उपन्यास पूर्णतः पठनीय है। अगर आप कम समय के लिए कोई रोचक उपन्यास पढना चाहो तो यह उपन्यास अवश्य पढें इसमें पाठक को कहीं भी अनावश्यक दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं है। उपन्यास का धीमा प्रवाह पाठक को अपने साथ धीरे-धीरे बहा ले चलता है।
       एक सामाजिक उपन्यासकार का मर्डर मिस्ट्री उपन्यास पढना स्वयं में रोचक है।
उपन्यास पठनीय है।
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उपन्यास -    गुनाह के फूल
लेखक-       गुलशन नंदा
प्रकाशक-    अशोक पॉकेट बुक्स- 4/36, रूपनगर, दिल्ली
पृष्ठ-          109

103. फरेब- अमित श्रीवास्तव

प्यार, दोस्ती और फरेब
फरेब- अमित श्रीवास्तव, मर्डर मिस्ट्री, रोचक, पठनीय
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राजस्थान के आबू रोङ शहर के युवा लेखक अमित श्रीवास्तव का उपन्यास फरेब बहुत रोचक और पठनीय है।
   इनका यह प्रथम उपन्यास है लेकिन लेखन और कहानी की दृष्टि से कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता की यह लेखक की प्रथम कृति है।  उपन्यास जितना उलझा हुआ है उतना ही रोचक है। पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ रहस्य की झील में तैरता रहता है। उपन्यास का आरम्भ जितना रोचक है उतना ही जबरदस्त इसका क्लाइमैक्स है।
उपन्यास की पृष्ठभूमि राजस्थान के हिल स्टेशन माउंट आबू पर आधारित है। माउंट आबू की प्रसिद्ध झील नक्की के बाॅट कांट्रेक्टर चन्द्रेश मल्होत्रा की पत्नी गायब हो जाती है। एक दिन जब चन्द्रेश मल्होत्रा अपने घर पहुंचा तो एक खूबसूरत युवती को पाया।
चन्द्रेश ने खङे-खङे महिला से कहा, -"कौन हैं आप?"
"आप मुझे नहीं जानते?"- महिला ने आश्चर्य से पूछा।
" मैं आपको कैसे पहचानूँगा ? मैं तो आपको पहली बार देख रहा हूँ ।"- चन्द्रेश के स्वर में हैरानी‌ के भाव थे।
"क्या पीकर घर आये हैं, जो अपनी वंशिका को नहीं पहचान पा रहे हैं।"- वंशिका के स्वर में चंचलता थी।
" तुम मेरी पत्नी ? कोई मजाक है क्या?"- चन्द्रेश के स्वर में हैरानी की जगह गुस्से ने ले ली। (पृष्ठ-)

आश्रिता- संजय

कहानी वही है। आश्रिता- संजय श्यामा केमिकल्स की दस मंजिली इमारत समुद्र के किनारे अपनी अनोखी शान में खड़ी इठला रही थी। दोपहरी ढल चुकी थी और सू...