Friday 27 September 2019

124. पुराने गुनाह, नये गुनाहगार

हर किसी के गुनाह का हिसाब होता है?
सुनील चक्रवर्ती का प्रथम उपन्यास।
पुराने गुनाह,नये गुनाहगार- सुरेन्द्र मोहन पाठक

लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के मर्डर मिस्ट्री लेखक श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का प्रथम उपन्यास 'पुराने गुनाह, नये गुनहगार' पढा।
यह एक छोटा सा मगर अच्छा कथानक है। लेखक का प्रथम उपन्यास, मेरे लिए यह विशेष आकर्षण था।

सुनील कुमार चक्रवर्ती, समाचार पत्र 'ब्लास्ट' का क्राइम रिपोर्टर। सुनील के पास एक फोन आता है।
उसी समय फोन की घंटी घनघना उठी ।
“हल्लो ।” - सुनील ने बड़ी मीठी आवाज.....
“सुनील कुमार चक्रवर्ती ?” - दूसरी ओर से स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“जी हां, फरमाइए ।”
“क्या आप अभी मुझसे लेक होटल में मिल सकते हैं ?”
“लेकिन आप हैं कौन ?”
“किसी विशेष कारणवश मैं आपको फोन पर अपने विषय में कुछ नहीं बता सकती ।”
“आप मुझसे क्यों मिलना चाहती हैं ?”
“यह भी फोन पर नहीं बताया जा सकता । इस समय मैं केवल इतना बता सकती हूं कि मैं लेक होटल के चालीस नंबर कमरे में हूं । अभी केवल एक घंटे पहले कमरे में से मेरी एक एक चीज चुरा ली गई है, यहां तक कि कार भी।”


     कहानी इस लड़की रमा खोसला से आगे बढती है।- “मेरा नाम रमा है, रमा खोसला।” रमा खोसला के पिता जमनादास खोसला पर गबन का आरोप है। जो बैंक कर्मचारी हैंं।
“वे मेरे डैडी हैं, उन पर नैशनल बैंक ऑफ इण्डिया के तीन लाख बानवे हजार दो सौ चालीस रुपये बासठ नये पैसे चुराने का आरोप है।”
      ये रूपये नैशनल बैंक आॅफ इण्डिया की शाखा से अन्यत्र स्थानांतरण करने थे।‌ यह जिम्मेदारी जमनदास खोसला पर थी उनके साथ एक सुरक्षाकर्मी इंस्पेक्टर जयनारायण और एक वैन का ड्राइवर था। इसी स्थानांतरण के दौरान वैन में रखे बक्सों से रूपये गायब हो गये और उनकी जगह बैंक के चैक।
“क्योंकि अगर बक्से में से रद्दी अखबार, पुरानी किताबें या ऐसी ही कोई चीज निकलती तो मैं मान लेता लेकिन बक्से में तो निकले थे नैशनल बैंक की हमारी ही ब्रांच के भुगतान किये हुए चैक, जिनमें एक चैक ऐसा भी था जिसका भुगतान एक घण्टे पहले हुआ था और जो सब हमारे बैंक की फाइल में से निकाले गए थे।
तीन शख्स और तीनों बोल रहे हैं‌ की वे इस गबन में शामिल नहीं।
तो फिर यह कारनामा कैसे संभव हो पाया?
किसने गायब किये रूपये?
कौन था असली षड्यंत्रकारी?

       इसी की जांच के लिए वर्षों पश्चात ब्लास्ट के रिपोर्टर सुनील चक्रवर्ती साहब किसी माध्यम से पहुंच जाते हैं।और फिर खुलते हैं वर्षों पुराने रहस्य।
इन रहस्यों से पर्दा उठाते-उठाते स्वयं सुनील भी एक कत्ल के आरोप में फंस जाता है।
इस बार फंस गये बेटा सुनील - वह कार में बैठता हुआ बड़बड़ाया - और बनो एक्टिव और फंसाओ दूसरे के फटे में टांग। साले जासूसी करने चले थे ।

अब उपन्यास का एक रोचक दृश्य देख लीजिएगा ।
“अबे सुन !” - सुनील कुर्सी पर बैठकर मेज पर टांगें फैलाता हुआ बोला - “तुझे कभी फांसी हुई है ?”
“आज तक तो नहीं हुई । वैसे बचपन में कभी हुई हो तो मुझे याद भी नहीं ।”
“सुना है बहुत तकलीफ होती है ।”
“हां साहब, गरदन सुराही के सिर की तरह ये... लम्बी हो जाती है । बस एक ही खराबी है कि प्राण निकल जाते हैं ।”
“हे भगवन !” - सुनील माथे पर हाथ मारकर बोला - “अब क्या होगा ?” चपरासी मूर्खों की तरह खड़ा उसका मुंह देखता रहा ।
“कभी बिजली की कुर्सी पर बैठा है ?” - सुनील ने फिर पूछा ।
“अजी साहब, हमारी ऐसी किस्मत कहां ! हमें तो स्टूल मिल जाए तो वही गनीमत है । बिजली की कुर्सियां तो आप जैसे बड़े बड़े लोगों के लिये हैं।”


उपन्यास शीर्षक-
              जैसा की उपन्यास का शीर्षक है 'पुराने गुनाह, नये गुनहगार' तो यह एक भ्रामक शीर्षक है। क्योंकि गुनाह भी जितना पुराना है उसके गुनहगार भी उतने ही पुराने हैं। हां, शीर्षक का प्रथम भाग 'पुराने गुनाह' बिलकुल उचित है, क्योंकि यह उपन्यास जिस घटना पर आधारित है वह घटना पुरानी है और उसका पटाक्षेप बाद में होता है।
उपन्यास में कुछ गलतियाँ है। जो उपन्यास के कथानक को कमतर करती हैं। हालांकि उपन्यास मनोरंजक है और अच्छा मनोरंजन करने में सक्षम भी।

रमाकान्त स्थानीय यूथ क्लब का मालिक था। जासूसी का उसे बहुत शौक था। साधारणतया सुनील के भाग-दौड़ के काम वही करता था या करवाया करता था।
मुझे अक्सर एक बात खटकती है। रमाकांत को जासूसी का शौक है लेकिन वह जासूसी खुद न करके अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से करवाता है। क्या उ‌नके कर्मचारी भी जासूसी हैं?
निष्कर्ष-
एक लूट पर आधारित इस एक मध्यम स्तर का उपन्यास है। अगर उपन्यास में कुछ नया नहीं है तो भी पाठक को कहीं निराश नहीं करेगा। धीमी गति का कथानक और कम पृष्ठ एक बार में पढे जाने वाला उपन्यास आपको निराश तो नहीं करेगा।

उपन्यास- पुराने गुनाह, नये गुनहगार
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक
निम्न लिंक से आप पाठक जी के अन्य उपन्यासों की समीक्षा भी पढ सकते हैं।
सुरेन्द्र मोहन पाठक


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