भारत -चाइना संबंधों की जासूसी कथा
सुलगती आग- रमेशचन्द्र गुप्त 'चन्द्रेश'
हिंदी रोमांच कथा साहित्य में रमेशचन्द्र गुप्त चन्द्रेश का नाम श्रेष्ठ उपन्यासकारों में शामिल किया जा सकता है। जनवरी 2024 में मैंने इनके चार उपन्यास पढें जो कथा और प्रस्तुतीकरण की दृष्टि में जासूसी साहित्य में श्रेष्ठ तो कहे जा सकते हैं।'सुलगती आग' रमेशचन्द्र गुप्त 'चन्द्रेश' जी का अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर आधारित एक जासूसी उपन्यास है। जिसका कथानक भारत- चीन से संबंध रखता है।
कभी 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' के नारे लगते थे और फिर चीन ने अपना वास्तविक रंग दिया दिया। चीन ने भाई कहकर भारत की पीठ पर वह छुरा मारा जिसका दर्द आज भी है। सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ और इस युद्ध का परिणाम हम सभी जानते हैं। तात्कालिक साहित्य में भी भारत-चीन की पृष्ठभूमि पर अनेक उपन्यास लिखे गये।
रोमांच/ जासूसी साहित्य में भी इस पृष्ठभूमि पर काफी उपन्यास लिखे गये हैं। जिनमें से एक है रमेशचन्द्र गुप्त 'चन्द्रेश' द्वारा लिखित उपन्यास 'सुलगती आग'। प्रभाकर समाप्त कर दिया गया था । उसकी संस्था का एक योग्य एजेण्ट मार दिया गया था। वह एक अभियान पर हांगकांग गया था । अभियान सफलतापूर्वक सम्पन्न करके वह वापस हुआ ही था कि चीनी एजेन्ट उसके पीछे लग गये थे । प्रभाकर किसी तरह बचता हुआ कलकत्ता तक आ गया था। मौत की रफ्तार समय की रफ्तार से बहुत तेज होती है । प्रभाकर ने समय को धोखा दे दिया था लेकिन मौत को नहीं दे सका था। फलस्वरूप मौत ने उसे कलकत्ते में दबोच लिया था लेकिन प्रभाकर मरते-मरते भी न केवल मौत को दाँव दे गया था बल्कि अपने मारने वालों को भी ! और मरते समय प्रभाकर किसी प्रकार चीफ तक यह सूचना देने में सफल हो गया था कि जो वस्तु वह लाया है वह कहाँ है ! चूंकि उसे अपने बच पाने की तनिक भी उम्मीद नहीं है इसलिए यह सूचना दे रहा है। उसने यह भी सूचना दी कि उसकी डायरी स्थानीय एजेण्ट के पास है उससे प्राप्त कर ली जाए। मूल वस्तु वह स्थानीय एजेण्ट को इसलिए नही दे पा रहा है क्योंकि उसके पास समय नहीं है ।
और फिर प्रभाकर मारा गया था।
आदेश मिला कलकत्ता जाओ, और प्रभाकर द्वारा लाई गई चीज वापस लेकर लौटो। (पृष्ठ-10,11)
और मिस्टर मोहन जा पहुंचते हैं कोलकाता में स्थानीय एजेंट प्रमोद कुमार हलधर के पास और फिर कलकत्ता में जा पहुंचा चाइना बस्ती में और चाइना बस्ती में उस 'फू- चा रेस्टोरेंट' में जहाँ प्रभाकर पहुंचा था, और वहाँ भी उस डांसर नू-शी के कमरे में जहाँ प्रभाकर मारा गया था।
मोहन वहाँ पहुंच तो गया पर वहां से वह 'चीज' निकाल लाना आसान नहीं था क्योंकि चाइना की ड्रेगन संस्था के एजेंट भी उस 'चीज' को पाना चाहते थे। और वह 'चीज' मरते वक्त प्रभाकर ऐसी जगह छुपा गया था जहाँ तक पहुंचना आसान न था।
और मोहन जब डांसर नू शी के कमरे में पहुंचा तो वहां पहुंच गया फू-चांग और होरांग। होरांग एक अत्यंत खतरनाक व्यक्ति था जो लांग- जू के लिए कामकरता था और लांग- जू ड्रेगन का एजेंट था।
वैसे कहते हैं चाइना बस्ती किसी न किसी रूप से ड्रेगन के किए काम करती है।
मोहन यहाँ से जैसे-तैसे जान बचाकर तो खैर निकल लिया लेकिन चाइना बस्ती के खतरनाक लोगों से बचना मुश्किल था। यहाँ से भागे मोहन और हलधर को प्रभाकर द्वारा चाइना से लाई गयी उस विशेष वस्तु की तो अब भी तलाश थी। और वह तलाश मोहन पुनः नू-शी के कमरे में पहुंचा देती है।
यह बहुत ही खतरनाक और जानलेवा कार्य था कि मोहन पुनः उसी कमरे में जा रहा था, जहाँ पर उसकी जान पर बन आयी थी। पर देश हित में गुप्तचर कुछ भी कर गुजरते हैं और मोहन ऐसा ही था।
और इसी बार मोहन का लांग-जू और फू-चांग से सामना होता है लेकिन मजबूत हृदय मोहन चाइना बस्ती से नू-शी को ही उठा लाता है क्योंकि मरते वक्त प्रभाकर अपनी डायरी में नू-शी का जिक्र करके ही इस दुनिया से गया था।
लेकिन नू-शी एक डांसर है और वह मोहन को कुछ सन्तुष्टिजनक बात नहीं बता सकती और दूसरी तरफ ड्रेगन के खतरनाक एजेंट मोहन और हलधर की जान कॆ पीछे पड़े हैं ।
और फिर संघर्ष आरम्भ होता है भारतीय जासूस मोहन और ड्रेगन के सदस्यों के मध्य। कलकता में मोहन का का एक मात्र सहायक है हलधर और ड्रेगन के पास है पूरी चाइना बस्ती।
लेकिन मोहन तो वह जीवट व्यक्ति था जिसका उद्घाटन मात्र वह 'वस्तु' प्राप्त करना था, जिसके लिए वह जान की बाजी लगाने के लिए तैयार था और ड्रेगन उस 'वस्तु' को छीनना चाहता था पर वह 'वस्तु' है कहां? कोई नहीं जानता, क्योंकि प्रभाकर अपनी डायरी में कुछ स्पष्ट नहीं लिखकर गया था। यह तो मोहन के विवेक पर निर्भर था की वह उस 'वस्तु' को कैसे ढूंढता है।
मोहन नू-शी को ले आया, और नू-शी को लाना उसके लिए तूफान साथ लाने जैसा था क्योंकि ड्रेगन के सदस्यों को यह भी भय था की मोहन नू-शी की मदद से उस 'वस्तु' तक पहुंच सकता और इसलिए ड्रेगन ने अपना पूरा दल 'मोहन-हलधर' को खोजने और मारने में लगा दिया था।
पर मोहन वास्तव में वह दिलेर व्यक्ति था जो अपनी जान हथेली पर रखकर चलता है और वह एक फिर नू-शी के कमरे में पहुंच गया था। इस बार मौत के खिलाड़ी वहाँ जाल बिछाये बैठे थे।
एक लम्बा, खतरनाक संघर्ष और उपन्यास समापन की तरफ बढता है।
प्रस्तुत उपन्यास की कहानी की बात करें तो कहानी है भारतीय जासूस द्वारा चाइना बस्ती में एक वस्तु को खोजने की कहानी है। इस कथा में लेखक ने क्या- क्या टविस्ट दिये हैं, क्या घूमाव-चक्कर हैं,कहां रोमांच है यह सब पठनीय है।
उपन्यास में कुछ पात्र अत्यंत प्रवाहित करते हैं। कथा नायक मोहन कुछ ज्यादा प्रभावित इसलिए करता है की वह हरबार जान की बाजी लगाकर कार्य करता नजर आता है।
नू-शी का चरित्र बहुत रोमांच वाला है। एक डांसर जो परिस्थितियों में कुछ ऐसी उलझती है की पाठक कुछ समझ ही नहीं पाता। जहाँ सारी बस्तियों ड्रेगन की सदस्य वहीं नू-शी का कहना है उसने ड्रेगन के ऑफर को ठुकरा दिया था।
नू-शी का किरदार उपन्यास के अंत में पाठक को बहुत ज्यादा चौंकाता है।
उपन्यास का एक पात्र है होरांग। यह एक खलपात्र है जिसका वर्णन पठनीय है। मोहन को उसके चेहरे से ही घिन थी।
- लेकिन उसका चेहरा ! मोहन का पूरा शरीर गजगजा उठा । शरीर के सारे रोयें सिहर कर खड़े हो गये ।
- गढ्ढे में धंसी दो चमकदार मशालों-सी आंखें उसे घूर रही थीं। उन आँखों में आग धधक रही थी । पूरा चेहरा विचित्र सी सूजन लिए फूला हुआ था । रंग एकदम तांबे जैसा । एक प्रकार की चिकनाहट सी उस चेहरे पर तैर रही थी। सिर एकदम गंजा था, चेहरा क्लीन शेव । मोहन को घिन सी लगने लगी ।
फू-चांग, यह एक रेस्टोरेंट का मालिक है लेकिन सब चक्कर का कर्ता-धर्ता यही नजर आता है।
फू-चांग
लम्बा कद, दुबला शरीर, चेहरा पिचका। आँखें छोटी लेकिन साँप के समान चमकदार, गालों की हड्डियां उभरी।
मोहन भारतीय गुप्तचर संस्था का एजेंट है। इस संस्था के विषय में इस उपन्यास में अल्प जानकारी दी गयी है। वह जानकारी यहाँ प्रस्तुत है-
- ऊपर से विज्ञापन सस्थान लगने वाली वह इमारत वास्तव में एक ऐसा स्थान थी जिसके भीतर का हाल इने-गिने व्यक्ति ही जानते थे। उनमें राष्ट्रपति मुख्य थे । उन्ही की आज्ञा से उसके अन्दरूनी स्वरूप पर कोई प्रभाव पड़ सकता था । वैसे प्रधान मंत्री और रक्षा मंत्री को भी उसकी जानकारी थी । प्रधान मंत्री की आज्ञा से सारा कार्य होता था यानि संस्था के लिए उत्तरदायित्व उनका था । कार्य करने के लिये संस्था के चीफ मिस्टर 'जेड' पूरी तरह स्वतंत्र थे, उनका नाम प्रोफेसर देवेन्द्र नाथ धर था लेकिन अधिकतर उनको 'जेड' ही कहा जाता था। वह मनोविज्ञान और अपराधशास्त्र के ज्ञाता थे । उनकी अनेक पुस्तकें इस विषय में थीं जिनकी मान्यता भी थी पहले वह प्रोफेसर थे । लेकिन फिर जाने क्या हुआ कि वह प्रोफेसरी त्याग कर भारत पब्लिसिटी संस्थान खोल बैठे । मित्रों को प्रोफेसर के इस परिणाम पर आश्चर्य और दुख दोनों हुए । लोगों की समझ में ही नहीं आया कि इतना योग्य व्यक्ति अपनी प्रतिभा इस प्रकार क्यों नष्ट करने पर तुल गया है।
संस्था केवल शीतयुद्ध सम्बंधी मामलों को ही देखती थी । छोटे- मोटे मामलों को छुआ भी नहीं जाता था ।
प्रस्तुत उपन्यास कथानक स्तर पर बहुत रोचक है। एक जासूस की संघर्ष कथा है। और उपन्यास पढते वक्त ऐसा अनुभव होता है जैसे यह कोई वास्तविक कथा है।
सुसंबद्ध कथानक, तीव्र प्रवाह और रोचकता उपन्यास को पठनीय बनाती है।
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