Saturday 18 December 2021

486. इन्दिरा- बंकिमचन्द्र चटर्जी

एक स्त्री की कहानी
इन्दिरा - बंकिमचंद्र चटर्जी

बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक बंकिमचंद्र चटर्जी का उपन्यास 'इन्दिरा' पढा। मूलतः बांग्ला में रचित उपन्यास का यह हिंदी अनुवाद है।
   यह कहानी है एक औरत के अपने परिवार से विलग होने की, उसके बाद उपजी परिस्थितियों और उसके संघर्ष की। कहानी रोचक और पठनीय है।
      मैंने इन दिनों बंकिमचंद्र चटर्जी जी के चार उपन्यास पढे हैं। क्रमशः 'विषवृक्ष', 'राज सिंह', 'आनंदमठ' और प्रस्तुत उपन्यास 'इन्दिरा'। चारों उपन्यासों की कथा मर्मस्पर्शी है।  'विषवृक्ष' मनुष्य के चंचल मन और पतनशील होने की कथा, 'राज सिंह' एक सत्य घटना पर आधारित अर्द्ध ऐतिहासिक उपन्यास है, 'आनंद मठ' सर्वाधिक चर्चित उपन्यास है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित है। 
इन्दिरा - बंकिमचन्द्र चटर्जी
   अब बात करते हैं प्रस्तुत उपन्यास 'इन्दिरा' की। यह कहानी है इन्दिरा नामक एक उन्नीस वर्षीय युवती की। जो शादी के पश्चात एक लम्बे समय बाद पहली बार अपने ससुराल जा रही है। लेकिन रास्ते में पड़ने वाले 'काली दीधि' तालाब के पास वह डाकुओं की शिकार हो जाती है। यहाँ से उसका जीवन ही बदल जाता है। घर और ससुराल दोनों से विमुख होकर वह कलकता पहुँच जाती है। जहां उसे सुभाषिनी और उसके पति रमन बाबू सहारा देते हैं।  अधिकांश उपन्यास कलकत्ता और उसी घर पर केन्द्रित है।
     यह दम्पति इन्दिरा को उसके परिवार से मिलने की चेष्टा करते हैं। लेकिन परिवार तक पहुंचने का कोई माध्यम भी स्पष्ट नहीं है।
''डाकखाने का नाम भी बताओ।"- सुभाषिनी बोली
"डाकखाना। डाकखाने का नाम डाकखाना है।"

वहीं इन्दिरा को भी यह संशय होता है की डाकूओं के हाथ लगी लड़की को क्या माता-पिता या ससुराल वाले अपनायेंगे।
    यही संशय उसे आगे बढने से रोकता भी है और यही कारण है कि वह अपने विषय में किसी को कुछ स्पष्ट बताने से हिचकती भी है।
      मैंने प्रेमचंद, शरत चन्द्र, जयशंकर प्रसाद के जो उपन्यास पढे हैं। उनमें एक बात सभी में सामान्य पायी है वह है किसी एक सदस्य का परिवार से अलग हो जाना। वह चाहे कुंभ के मेले में बिछड़े या घर छोड़ कर भागे।
    यहां भी परिस्थितिवश इन्दिरा घर से बिछड़ जाती है और ऐसी जगह पहुँच जाती है जहाँ उसके घर, परिवार और गाँव को कोई जानता ही नहीं।
  पर इस उपन्यास में यह भी एक विशेषता है की कहानी में उदासीनता, स्त्री शोषण या किसी अत्याचार का चित्रण नहीं है। इन्दिरा चाहे घर से दूर हो गयी पर जहाँ उसे रहवास मिला वहाँ का चित्रण पूरी कहानी में हास्य प्रदान करता है। वह चाहे कठोर स्वभाव की सुभाषिनी की सास हो या उसके घर में काम करने वाली दासियां सबका हास्यप्रद व्यवहार उपन्यास में रोचकता बनाये रखता है।
     वही इन्दिरा का अपने पति के साथ हास-परिहास भी उपन्यास में रोचकता के साथ जिज्ञासा बढाता है।
उपन्यास में वर्णित डाकू भी अपने आप में नियम वाले हैं। वह लूट तो करते हैं पर स्त्री को गलत दृष्टि से देखने तक को पाप मानते हैं।
जवान डाकू बोला,-"मैं इसे लेकर भाग जाता हूँ। "
दल के वृद्ध डाकू सरदार ने भी खूब कहा।
"इस लाठी से यहीं तेरा सिर फोड़कर रख दूंगा। क्या हम लोग यह पाप करते हैं? पराई स्त्री पर बुरी दृष्टि से देखा तो आँखें निकाल लूंगा।" (पृष्ठ-10)
   'इन्दिरा' उपन्यास एक स्त्री की मार्मिक कहानी है। वह समय जब स्त्रियाँ पर्दा रखती थी, घर से बाहर नहीं निकलती थी। ऐसे में एक स्त्री जब डाकुओं के हाथ लग जाये तो उसके परिवार वालों का व्यवहार उसके प्रति कैसा होगा। वहीं इन्दिरा एक धनी परिवार से संबंध रखती है लेकिन परिस्थिति उसे दासी बना देती है। इन्हीं परिस्थितियों पर आधारित है यह उपन्यास।
    
       उपन्यास आकार में लघु है, आप कम समय में आसनी से पढ सकते हैं। कहानी में रोचकता और तीव्रता इस पठन को गति प्रदान करती है।
उपन्यास- इन्दिरा
लेखक -   बंकिमचंद्र चटर्जी

बंकिमचंद्र चटर्जी जी के अन्य उपन्यासों की समीक्षा
कपाल कुण्डला
विष वृक्ष
राज सिं

2 comments:

  1. उपन्यास रोचक लग रहा है। जल्द ही पढ़ने की कोशिश होगी।

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    Replies
    1. मिले तो अवश्य पढें, काफी रोचक है।।

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