Sunday 25 October 2020

394. वापसी- यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'

एक औरत की व्यथा
वापसी/ हूं गोरी किण पीव री- यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'

 राजस्थानी साहित्य में यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' जी का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उनकी रचनाओं में राजस्थानी भाषा की मिठास, लोक संस्कृति का चित्रण और सामाजिक समस्याओं का अनूठा चित्रण चित्रण मिलता है। 
     इन दिनों मैंने यादवेन्द्र शर्मा जी की तीन अनुवादित रचनाएं पढी हैं। 'मिनखखोरी'(राजस्थानी- जमारो) कहानी संग्रह और दो उपन्यास 'शतरूपा' और प्रस्तुत उपन्यास 'वापसी'(राजस्थानी- हूं गौरी किण पीव री)।
    यह तीनों रचनाएँ समाज में स्त्री की भूमिका और पुरूष के वर्चस्व को रेखांकित करती हैं।
    अब बात करते हैं 'वापसी' उपन्यास की, यह राजस्थानी भाषा के चर्चित उपन्यास 'हूं गौरी किण पीव री' का अनुवाद है। वैसे राजस्थानी और हिन्दी में विशेष अंतर नहीं है। इसलिए अनुवाद पढते समय वहीं आनंद आता है जो मूल कृति को पढते वक्त महसूस होता है। वैसे भी अनुवाद में हल्की सी आंचलिक शब्दावली प्रयुक्त है।       वापसी की कहानी है सूरजड़ी की। भाॅनी की पत्नी और माधो की भाभी की। छोटी उम्र में शादी और उस पर मातृविहिन पति जो बाप के शराबी संस्कारों के साथ 'गिरी' जैसे दोस्त से अन्य गलत आदतों का साथी बन जाता है।
सूरजड़ी ने भानी से कहा-"सुनो, एक बात कहूँ तुम बुरा नहीं मानोगे।" फिर पति के चेहरे पर दृष्टि जमाकर कहा-"तुम दारू क्यों पीते हो? जुआ क्यों खेलते हो?"
      पिता का साथ छूटने पर आदर्शवादी भाॅनी गलत रास्तों का साथी हो जाता है और गलत आदतें उसे सूरजड़ी से दूर कर देते हैं।
    पति का विछोह और देवर की जिम्मेदारी सूरजड़ी को कमजोर नहीं बल्कि ताकतवर बनाती है। लेकिन जब देवर भी अपनी माता- भाई के सपने और भाभी के परिक्षम को सफल कर देता है तो सूरजड़ी को लगता है अब उसके जीवन में‌ कोई उद्देश्य बाकी नहीं रहा।
      सूरजड़ी के भाई-बाप उसका नाता कहीं और करना चाहते हैं, समाज का भय सूरजड़ी के सामने होता है।
पति से विलग सूरजड़ी की स्थिति आंधी के पत्ते सी हो जाती है। पति का ठिकाना नहीं, देवर उसे श्रद्धा से पूजता है, और बाप और भाई चंद रुपयों के लालच में उसका नाता कहीं और करने को तैयार बैठे हैं।
      बदलती परिस्थितियों और समय के माधो भी हार मान कर मौसी मूलकी और मित्र बाबा का कहना तो मान लेता है लेकिन शीघ्र ही सूरजड़ी के सामने एक और स्थिति पैदा होती है जो उसके लिए एक प्रश्न चिन्ह बन कर खड़ी हो जाती है, वह समस्या है 'हूं गोरी किण पीव री।'
  और एक दिन सूरजड़ी के सामने यह एक बड़ा प्रश्न है की आखिर वह किस पति की पत्नी है।

भाषा शैली- यह उपन्यास मूलतः राजस्थानी में है लेकिन प्रस्तुत हिंदी अनुवाद पढते वक्त कहीं से ऐसा अनुभव नहीं होता की हम अनुवाद पढ रहे हैं। अनुवाद में राजस्थानी भाषा की सौंधी महक बनी रहती है।
भाषा सरल और सहज है जो प्रभावित करती है।
प्रस्तुत उपन्यास में समाज में स्त्री के प्रति पुरुष दृष्टिकोण, समाज में स्त्री का स्थान आदि का सुंदर चित्रण मिलता है।
    सूरजड़ी की भूमिका कई बार बदलती है और वह हर एक भूमिका में संघर्ष कर ऊपर उठती है। देवर माधो के लिए संघर्ष हो, पति का व्यवहार हो, या फिर भाई ढब्बूडा की मनोवृत्ति।
  वहीं मौसी मूलकी मौसी समय की मार खा कर परिपक्व हो चुकी है। वह हर गलत बात का विरोध करती है। हालांकि उपन्यास में 'मटकी' जैसी औरत भी जिसका चरित्र अच्छा नहीं है।
 
हिंदि सिनेमा में अब तो वापसी उपन्यास की कहानी से संबंध रखती कई फिल्में बन चुकी हैं। लेकिन उपन्यास प्रकाशन के समय यह एक नया प्रयोग था।
वापसी(हूं गोरी किण पीव री) एक स्त्री के दर्द, समाज के बंधन और उनसे संघर्ष करती औरत की कहानी है। जो मन को छू जाती है। 
रचना पर प्राप्त पुरस्कार
- राजस्थानी साहित्य अकादमी  
- विष्णुहरि डालमियां पुरस्कार
उपन्यास - वापसी
मूल नाम- हूं गोरी किण पीव री (राजस्थानी)
लेखक-   यादवेन्द्र शर्मा 'चंद्र'
पृष्ठ-       116
प्रकाशक- 

  

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