Thursday 8 October 2020

388. सुरसतिया- विमल मित्र

एक औरत की व्यथा...
सुरसतिया- विमल मित्र


सुरसतिया उपन्यास 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के 22 फरवरी 1970 के अंक में प्रकाशित हुआ और प्रकाशन के साथ ही इसने भारी प्रतिक्रिया जगा दी।....मध्यप्रदेश सरकार ने पुस्तक जब्त कर ली। मध्य प्रदेश के रायपुर नगर में लेखक के पुलते जलाए गए। (पृष्ठ- प्रकाशक की ओर से)
      आखिर सुरसतिया में ऐसा क्या था कि उस पर इतनी तीव्र और कटु प्रतिक्रियाएं आरम्भ हो गयी। उपन्यास के आरम्भ में कुछ पत्र भी प्रकाशित किये गये हैं जो उपन्यास के पक्ष और विपक्ष दोनों को दर्शाते हैं। जहाँ कुछ पाठकों ने इस उपन्यास की सराहना की है तो वहीं कुछ पाठकों ने उपन्यास को गलत ठहराया है।  अब सही क्या है और गलत क्या है यह पाठक के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

  चलो, अब हम सुरसतिया पर चर्चा कर लेते हैं।
सुरसतिया एक महिला किरदार को मुख्य भुमिका में रख कर रचा गया एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। भारतीय समाज में महिला की स्थिति, पुरूष का वर्चस्व और एक विद्रोही महिला के चरित्र को रोचक ढंग से उभारा गया है। 

    कहानी है छत्तीसगढ के एक गांव कदमकुआं की जो राजनन्दगांव के पास है। तब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का एक भाग होता था। गांव कदमकुआं का छेदी पटेल  गांव का पटेल भी है और रेल्वे में नौकर भी।
  छेदी पटेल के दो बीवियां हैं एक का नाम है मुरली और दूसरी है सुरसतिया। यह कहानी सुरसतिया पर ही केन्द्रित है और कहानी कहने वाला है रेल्वे में कार्यरत एक साहब जो रिश्वतखोरों को पकड़ने का काम करते हैं।
    एक बार यही साहब छेदी पटेल के गांव/घर आते हैं और सहज ही इस परिवार की कहानी के एक अंग बन जाते हैं।

      साहब को छेदी पटेल का परिवार अच्छा और सम्पन्न नजर आता है लेकिन परिवार के अंदर जो घटित होता है वह उन्हें बाद में पता चलता है, धीरे-धीरे।
        इस बार छेदी पटेल की दूसरी डोकी को अच्छी तरह से देखा। गोरी, गोल-मटोल गठन, एक हाथ में कांच की चूड़ियां। बदन जैसे चमक रहा था। दोनों हाथों से दरवाजे के पल्ले को पकड़े खड़ी थी। मेरी ओर देख कर हँस रही थी।(पृष्ठ-39) 
    यह दूसरी 'डोकी' (बीवी) है सुरसतिया। दरअसल सुरसतिया छेदी पटेल की धार्मिक रूप से विवाहिता नहीं है। और सुरसतिया इस बात को व्यक्त भी करती है।-
     सुरसतिता ने कहा-"मैं तो चूड़ी पहनायी डोकी हूँ। मैं असल डोकी थोड़े ही हूँ।"
     छेदी पटेल और उसकी बीवी मुरली जितने अरमान से सुरसतिया जो चूड़ी पहना कर लाये थे वे सब अरमान उसने धूमिल कर दिये। और यही दर्द छेदी पटेल को सालता है।

      यहाँ से आरम्भ होता है सुरसतिया का विद्रोही जीवन। वह विद्रोह पर उतर आती है। यह विद्रोह मात्र सुरसतिया का नहीं है यह हर एक औरत का विद्रोह है। जो उसे दर्द से गुजरती है जिसे कम से कम कदमकुआँ में तो कोई नहीं समझता।
     चीखकर बोली- " सुरसतिया का कसूर। सुरसतिया ने कसूर का क्या काम किया है? सुरसतिया क्या उस बूढे आदमी की ब्याही बहू है कि तेरी तरह मुँह बन्द किये सब सहेगी? तू क्यों भोग रही है? किसने कहा तुझसे भोगने को? (पृष्ठ-46)
जहाँ पुरूष सत्ता होती है या कहें जहाँ अज्ञानता। देखा जाये तो यह उपन्यास पुरुष सत्ता की बजाय अज्ञानता को अंकित करता है। सुरसतिया हर बात के लिए सहमत है, पर वह चाहती है छेदी उस अज्ञानता से बाहर निकले। और यही आश्वासन वह साहब से चाहती है। साहब भी छेदी पटेल को समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन छेदी पटेल कुछ नहीं समझ पाता।
         हर इंसान की ज़िंदगी में ही शायद कहीं कुछ रह जाता है। या तो हिसाब में कुछ बाकी रह जाता है या अनुभूति में। (पृष्ठ-42)
     देखा जाये तो यहाँ सभी की जिंदगी में कुछ न कुछ तो बाकी रह गया है। छेदी पटेल बहुत कुछ चाह कर भी कुछ नहीं पा सका और सुरसतिया अनुभूति तो किसी से प्राप्त कर कर लेती है लेकिन उसकी कीमत उसे उस डर से चुकानी पड़ती है जिससे वह भागती है।
     उपन्यास में कुछ हास्य प्रसंग भी है। यह हास्य मात्र हास्य ही नहीं गहरी चोट भी करता है। वह चाहे अज्ञानता हो या तथाकथित धर्म के अनुयायी।
जैसे पादरी और जेठू रावत का संवाद, पारा रोग पर छेदी पटेल का कथन।
       सुरसतिया एक कहानी मात्र नहीं है। यह जीवन के उस रंग को स्पष्ट करती है जो हमारी आँखों के सामने होने पर भी दिखाई नहीं देता।

तकलीफ की बात कदमकुआं में कोई नहीं जानता। छेदी पटेल भी नहीं जानता। (पृष्ठ-82)
कदमकुआं गांव का कोई भी आदमी उस दर्द/तकलीफ को समझना ही नहीं चाहता जिससे सुरसतिया डरती है। लेकिन वही डर एक दिन सुरसतिया को ले डूबेगा यह न तो साहब ने सोचा और न ही कभी सुरसतिया ने सोचा था।
    प्रस्तुत उपन्यास बहुत ही मार्मिक रचना है। वैसे तो विमल मित्र जी अपने उपन्यास 'साहब, बीवी और गुलाम' के लिए चर्चित हैं, पर आप यह उपन्यास पढकर देखे तो आपको उनकी लेखनी का परिचय मिलेगा।
और अंत में उपन्यास का एक कथन...
मैंने कहा-"तुम्हारा मरद शायद हँसने पर डांटता है?"
सुरसतिया ने कहा- "बूढा जो हो गया है, बूढे लोग हँसी का मजा क्या जाने साहब,...।"


उपन्यास- सुरसतिया
लेखय-     विमल मित्र
प्रकाशक-  सन्मार्ग प्रकाशन
पृष्ठ-           111

1 comment:

  1. रोचक। बिमल मित्र के जितने उपन्यास मैंने पढे हैं वह सभी मुझे अच्छे लगे हैं। इस उपन्यास को भी जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी।

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