Monday 15 June 2020

333. जंजीर- कुशवाहा कांत

स्वतंत्रता वीरों की गाथा...आजादी और उसके बाद
जंजीर- कुशवाहा कांत,  

जहाँ तक मैंने कुशवाहा कांत का साहित्य पढा और समझा है उसमें मुझे पृष्ठभूमि के आधार पर मुख्यतः तीन तरह के कथानक मिलते हैं।
      प्रथम प्रेम पर आधारित रचनाएं, जिसके लिए कुशवाहा कांत को रोमांटिक उपन्यासकार कहा जाता है।
      द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रचनाएँ- जैसे लालरेखा। हालांकि इनके लगभग उपन्यासों में स्वतंत्रता संघर्ष का संक्षिप्त वर्णन मिलता है।
     तृतीय राज कालिन कथानक, जैसे-आहुति, मदभरे नयना।
हालांकि सभी उपन्यासों में कहीं न कहीं प्रेम और स्वतंत्रता संघर्ष का चित्रण मिल ही जाता है।

        प्रस्तुत उपन्यास 'जंजीर' भारतवर्ष के गुलामी की कहानी है और उसके बाद बदलते परिदृश्य का रोमांचक और हृदयस्पर्शी चित्रण मिलता है। 
       'हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को मेरे बच्चो रखना संभाल के।' - आपने यह प्रसिद्ध देशभक्ति गीत अवश्य सुना होगा। कितने संघर्ष और बलिदानों के पश्चात भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुयी, क्या हम उस स्वतंत्रता का अर्थ समझ सके? क्या हम तूफान के बाद भारत को संभाल सके?
       कितने लोगों का रक्त बहा है तब जाकर हमें आजादी मिली लेकिन समस्याएं आज भी वही है जो सन् 1947 के पश्चात थी।
        यह कहानी एक युवक नीरद की जो स्वतंत्रता संघर्ष संगठन का सदस्य है। अपने साथियों के बलिदान के पश्चात यही एक सदस्य बचता है जो आजाद भारत को देखता है। लेकिन शीघ्र ही उसे यह भी पता चल जाता है की कुछ लोग स्वतंत्रता संग्रामी बन कर नाजायज फायदा उठा रहे हैं।
एक सच्चा देशप्रेमी इस बात को सहन नहीं कर पाता और वह न्याय के लिए मैदान में आ जाता है लेकिन उसे नहीं पता की अब स्थितियां बदल गयी हैं। अब अंग्रेज नहीं उसके देशवासी ही देश को लूट रहे हैं और उसके दुश्मन हैं।
           एक स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष करने वाले वीर की यह कहानी भारत के स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात के समय को बहुत अच्छी तरह से परिभाषित करती है और उन चेहरों को भी बेनकाब करती है जो जनता को लूट रहे हैं, जो नकली देशप्रेमी हैं, जो सत्ता में हैं लेकिन देश के प्रति ईमानदार नहीं है।
         उपन्यास का विशेष आकर्षण जो मुझे लगा वह है स्वर्ग में स्वतंत्रता प्रेमियों की बैठक। जिसमें गांधी जी, सुभाष चन्द्र बोस, तिलक आदि शामिल होते हैं।
भारतीय स्वराज भवन।
बापू की सभा।
   महारानी लक्ष्मी बाई से लेकर गोखले, तिलक, लाजपतराय, अलीबंधु, सुभाष आदि उपस्थित- यथाक्रम, यथास्थान।
एक चटाई पर तकिये के सहारे बापू बैठे थे, उनके ठीक पीछे महादेव भाई बैठे कोई किताब पढने में लीन थे।

इस सभा का एक संवाद भी देख लीजिएगा और इसी संवाद से उपन्यास आगे बढता है या कह लीजिएगा सारी कहानी यही सुनाई जाती है।
"तुम चुप रहो मोहन!"-अपनी श्वेत मूछों के बीच से तिलक ने बापू को मीठी सी फटकार सुनाई-" तुम कहो बेटा।"
चारों तरफ सनसनी मच गई।
(पृष्ठ-26)

       उपन्यास में कथानक के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ जानकारी प्रदान करता है। जैसे यह उपन्यास कुशवाहा कांत की मृत्यु के पश्चात उनके भाई जयंत कुशवाहा ने पूर्ण कर प्रकाशित किया था। कुशवाहा कांत की मृत्यु सन् 1952 में हो गयी थी और यह उपन्यास 1954 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 'कुछ और भी !' शीर्षक से जयंत कुशवाहा का एक आर्टिकल भी प्रकाशित है।
      इसके अतिरिक्त उपन्यास के आरम्भ में पाण्डेय बेचैन शर्मा 'उग्र' जी का कुशवाहा कांत को श्रद्धांजलि स्वरूप एक आर्टिकल 'कलाकार और मौत' शीर्षक से भी प्रकाशित हुआ है।
       इस उपन्यास में कुशवाहा कांत के 35 उपन्यासों के सूची भी प्रकाशित हुयी है। (कुशवाहा परिचय यहां देखें)
उपन्यास का मध्यम भाग बहुत धीमा है। वास्तव में उपन्यास का जो मुख्य कथानक था वह स्वतंत्रता के बाद के परिदृश्य को दिखाने का है इसलिए स्वतंत्रता से पूर्व का घटनाक्रम आवश्यक होते हुए भी अतिविस्तृत सा लगता है।
         गुलामी की जंजीरों से जकड़े भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को चित्रित करती यह रचना रोचक और पठनीय है।
कुशवाहा कांत जी को समझने के लिए उपन्यास संग्रहनीय भी है।
उपन्यास- जंजीर
लेखक- कुशवाहा कांत
प्रकाशक- भारत पॉकेट बुक्स, वाराणसी
प्रकाशन वर्ष-
पृष्ठ- 205

3 comments:

  1. उपन्यास रोचक लग रहा है। मिलेगा तो पढ़ने की कोशिश रहेगी। उग्र जी का लेख पढ़ने की इच्छा हो रही है। हो सके तो उसे भी ब्लॉग पर डालियेगा।

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    1. मैंने यह उपन्यास अलग निकाल रखा है। उग्र जी और जयंत जी का आर्टिकल ब्लॉग पर डालने के लिए।
      धन्यवाद।

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