Friday 12 June 2020

332. पागल- कुशवाहा कांत

एक पागल था
पागल- कुशवाहा कांत, सामाजिक उपन्यास

तस्वीर का उपन्यास से कोई संबंध नहीं है।
कुछ इश्क में पागल हुये, कुछ धन के लिए, कुछ सत्ता के लिए पागल हुए और इस असीम संसार में हर एक व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षा के लिए पागल हो रहा है।
कोई स्वयं पागल हो गया और किसी को पागल कर दिया गया।
महत्वाकांक्षा ही सफलता की जन्मदात्री है, परंतु कभी-कभी यही महत्वाकांक्षा सर्वनाश भी कर डालती है। कभी मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने ले लिए प्रेरित करती है और कभी उसे घृणित से घृणित दुष्कर्म करने के लिए बाध्य करती है। अच्छी वस्तु की कामना, भले कर्म की महत्वाकांक्षा लाभप्रद हो सकती है, परंतु जब मानवीय हृदय में बुरी भावना, घृणित महत्वाकांक्षा प्रविष्ट हो जाती है तो प्रलय मचा देती है। (पृष्ठ-110) 


         कुशवाहा कांत द्वारा रचित 'पागल' उपन्यास मनुष्य ‌महत्वाकांक्षा पर आधारित है। जब महत्वाकांक्षा बढ जाती हैं और उनकी पूर्ति का सही माध्यम नहीं मिलता तो व्यक्ति महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति गलत माध्यम से करता है।
कहानी आरम्भ होती है मिर्जापुर के सबसे बड़े रईस, जमींदार एवं परोपकारी व्यक्ति ताऊ से। ताऊ के का दत्तक पुत्र है अधर और एक भतीजा है तारक। वहीं ताऊ एक और अनजान युवती विन्दु को भी अपने घर में पनाह दे देते हैं और आगे चलकर अधर भी अपने घर में एक और व्यक्ति को पनाह दे देता है।
           ताऊ की मृत्यु के पश्चात जब वसीयत सामने आती है तो एक हर एक पात्र उस वसीयत के कारण चौंकता है और यही वसीयत सबकी मुसीबतों का कारण बनती है।
इसी वसीयत के कारण कुछ लोग धन न मिलने से पागल जैसे हो जाते हैं और कुछ पागल बना दिये जाते हैं।
अधर की जिंदगी जहाँ अधर में ही लटकी रहती है वहीं विन्दु का जिंदगी का कोई बिंदु नजर ही नहीं आता।
हां, उपन्यास में नारायण काका का चरित्र बहुत रोचक है। नारायण काका को कम सुनाई देता है और इसलिए वे हास्य के पात्र बन जाते हैं।
"तू खेत तैयार करा, बोने के समय मैं आ जाऊंगा, समझ गया?"
"जी।"
"घी?, की क्या करेगा?"- काका हलवाहे की बात ठीक से न सुन सके।
(पृष्ठ-10,11)

      उपन्यास में एक पात्र को फांसी की सजा दी जाती है। यह प्रकरण बिलकुल भी सही नहीं लगता क्योंकि वह व्यक्ति निर्दोष है और दूसरा ऐसा लगता है की उसका उपन्यास में कारण किरदार सिर्फ फांसी लगवाने के लिए ही रखा गया था।
उपन्यास का अंत बुराई पर अच्छाई की जीत की तरह होता है लेकिन सब अतार्किक सा प्रतीत होता है।




उपन्यास के पात्र
ताऊ- गांव के जमींदार
अधर- ताऊ का दत्तक पुत्र
विन्दु-
तारक- ताऊ का भतीजा
काका- एक ग्रामीण
विमल-
सुक्खन-
रघुवा- ग्रामीण
                     कुशवाहा कांत जी के कुछ और भी उपन्यासों में फिल्मों का वर्णन मिलता है। यह एक अच्छा प्रयोग है जो उपन्यास को तात्कालिक समय के साथ जोड़ता है।
उन दिनों डायमण्ड टाकीज में कालिमा फिल्म कम्पनी की 'ब्रह्ममाया' फिल्म लगी थी। (पृष्ठ-118)
     कुशवाहा कांत के लगभग उपन्यासों में काव्य पद मिल जायेंगे और कुछ उपन्यासों में तो पूरे गीत तक मिल जाते हैं
एक उदहारण यहाँ भी देखें-
'क्यों रंगता है हाथ खून से अपना जीवन रंग ले,
रंग ले अपने मन की नगरिया, स्थिर मन कर पगले।'
(पृ-164)
       प्रेम, वासना, प्रतिशोध और महत्वाकांक्षा पर आधारित यह एक मध्यम स्तर का रोचक उपन्यास है। कुछ पात्रों के साथ न्याय नहीं हुआ यह भी खटकता है।
उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।

अंत में एक पंक्ति-
पागलपन' कोई भी हो वह हमेशा खतरनाक ही रहा है। 

उपन्यास- पागल
लेखक-   कुशवाहा कांत
प्रकाशक- डायमण्ड पॉकेट बुक्स
पृष्ठ-       185

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