Sunday 2 June 2019

199. बाबुल की गलियां- कुमार प्रिय

बाबुल की गलियों में पले मेरा प्यार...
बाबुल की गलियां- कुमार प्रिय, उपन्यास

   कुमार प्रिय का नाम तो बहुत बार सुना है लेकिन उनका उपन्यास पहली बार पढने को मिला है। कुमार प्रिय के उपन्यास रोमांटिक होते थे इसी कारण से इन्हें 'दूसरा गुलशन नंदा' भी कहा जाता था।
प्रस्तुत उपन्यास भी प्रेम के संयोग और वियोग को आधार बना कर लिखा गया एक भावुक उपन्यास है।

चंदर डाक्टर की डिग्री लेकर घर लौटता है तो घर पर उसकी शादी की चर्चा होती है। चंदर को यह पसंद नहीं की बचपन में गाँव की जिस लड़की से उसकी जो सगाई हुयी थी वह उससे शादी करे।
"....क्या तुम अपने डाॅक्टर बेटे का ब्याह उस देहाती और गंवार घराने की अनपढ लड़की से करोगी?"
(पृष्ठ-16)
चंदर घर छोड़ कर एक दोस्त के साथ राजापुर गांव चला जाता है। वहाँ उसे कांता से प्यार हो जाता है। कांता भी एक देहाती लड़की है।
         परिस्थितियाँ कांता के पक्ष में ना थी। कांता के जीवन में तो दुख ही था। इसलिए कांता अपने दर्द को गा लेती थी।
'बाबुल की गलियों में पले मेरा प्यार....
बाबुल की गलियों में बसे मेरा मी.....त' (पृष्ठ-129)

यह उपन्यास का मूल है सारी कहानी इस विषय पर आधारित है लेकिन कहानी में छोटे-छोटे घुमाव हैं जो कहानी को रोचक और पठनीय बनाते हैं।
- क्या चंदर कांता से शादी कर पाया?
- चंदर के माता-पिता ने जब देहाती लड़की से रिश्ता तय किया तो चंदर क्यों नहीं माना?
- क्या कांता का पिता इस शादी के लिए राजी हो पाया?
- आखिर कांता और चंदर की जिंदगी में प्रेम था वियोग?

     यह सब तो इस उपन्यास को पढकर ही जाना जा सकता है। लेकिन यह तय है की यह उपन्यास पाठक को निराश नहीं करेगी।
उपन्यास में स्वयं लेखक कुमार प्रिय भी उपस्थित हैं। यह भी काफी रोचक है।
मुझे प्रेम कथाएँ पसंद नहीं है, लेकिन एक तो कुमार प्रिय को पढना था दूसरा कहानी छोटी थी मात्र 131 पृष्ठों की। उपन्यास पढना आरम्भ किया तो एक बैठक में ही पढ दिया क्योंकि इसकी कथा वास्तव में रोचक है, मन को छू लेने वाली है।

निष्कर्ष-

कुमार प्रिय द्वारा रचित 'बाबुल की गलियां' एक प्रेमपरक उपन्यास है। प्रेम के संयोग और वियोग का चित्रण पाठक को भावुक करने में सक्षम है।
लघु कलेवर का यह उपन्यास पठनीय है।

उपन्यास- बाबुल की गलियाँ
लेखक-   कुमार प्रिय
प्रकाशक- रंगभूमि कार्यालय
प्रकाशन वर्ष- जनवरी,1973
पृष्ठ- 132
मूल्य- 02 ₹ (तात्कालिक)

2 comments:

  1. रोचक। कई पुरानी फिल्में ऐसे ही विषयों पर लिखी जाती थी। उपन्यास के विषय में पढ़कर उनकी याद आ गयी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी हां, यह पुराने समय की फिल्म की तरह है।
      हां, रोचकता बरकरार है इसमें।

      Delete

आयुष्मान - आनंद चौधरी

अमर होने की चाह.... आयुष्मान- आनंद चौधरी ये अजीबोगरीब दास्तान मोर्चरी के पोस्टमार्टम रूम में पोस्टमार्टम टेबल पर रखी गई एक लाश से शुरू होती...