Monday 25 December 2017

84. कारीगर- वेदप्रकाश शर्मा

एक अजब किरदार की गजब कहानी
कारीगर- वेदप्रकाश शर्मा, उपन्यास, रोमांच, पठनीय।

वेदप्रकाश शर्मा सामान्य कहानी को एक विशेष अंदाज में कहने के लिए जाने जाते है।
  कहानी चाहे कितनी भी सहज और सामान्य हो लेकिन वेदप्रकाश शर्मा जी उसमें ऐसे घुमाव पैदा करते हैं की पाठक सोचता रह जाता है आगे क्या होगा।
   प्रभावशाली लेखक भी वही है जो पाठक को कहानी से जोङे रखे।  और इस विषय में वेदप्रकाश शर्मा जी अपने समकालीन उपन्यासकारों में अग्रणी रहें हैं। 

   पाठक एक बार उपन्यास आरम्भ करता है तो फिर आगे सोचता रहता की कहानी में आगे क्या होगा। इस दृष्टि से कारीगर उपन्यास भी खरा उतरता है। संपूर्ण उपन्यास में पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ यही सोचता रहता है की कहानी में आगे क्या होगा और जो आगे होता है वह पाठक की सोच से बहुत आगे का होता है। जहाँ पाठक को लगता है की यहाँ वही हुआ जो मैंने (पाठक) ने सोचा, ठीक उसके आगामी पृष्ठों पर पता चकता है की पाठक का दृष्टिकोण गलत था।
  अपनी इसी विशेषता के लिए वेदप्रकाश शर्मा जाने जाते हैं।
  प्रस्तुत उपन्यास कारीगर भी एक ऐसी ही घटना से आरम्भ होता है। फिल्म डायरेक्टर महेश घोष के कार्यालय में चक्रेश नामक युवक पिस्टल के दम पर जबरन घुस आता है और वहाँ बैठ महेश घोष व अन्य से जबरदस्ती रुपये, गहने आदि ले लेता है। सब डरे सहमें बैठे हैं लेकिन चक्रेश के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं। लेकिन अंत में चक्रेश बोलता -
     चक्रेश ने हाथ जोङे। चेहरे पर याचना के से भाव उभर आये। गिङगिङाया -" सर, स्ट्रगलर हूँ । मुंबई में नया-नया आया हूँ। एक्टिंग का शौक है। अपने टेलेंट का नमूना दिखाने का इससे बेहतर कोई और रास्ता नहीं सूझा। आपकी अगली फिल्म में काम मिल जाए तो....।
"हरामी के पिले! एक्टिंग कर रहा था तू! काम मांगने आया था यहाँ।"- घोष दहाङते चले गये। (पृष्ठ-14)
  एक दिन महेश घोष की बेटी की शादी में भी चक्रेश पहुँच गया और उसने ऐसा चक्कर चलाया की दरवाजे पर आयी बारात लौट गयी
  लेकिन फिर एक दिन चक्रेश महेश घोष के घर ही पहुंच गया।
" तो तू यहाँ ही पहुंच गया?"- महेश घोष के हलक से गुर्राहट निकली। " क्यों आए हो यहाँ? "
" सुना है, आप मेरी चमङी उधेङने के तलबगार हैं?"
" चक्रेश तेरा असली नाम नहीं हो सकता। सबसे पहले अपना असली नाम बता।"
उसके गुलाबी होंठों पर मुस्कान उभरी‌। बोला- " लोग चक्कर चलाने वाला ईश्वर ही कहते हैं मुझे।" (पृष्ठ -37)
- तो चक्रेश आज भी एक्टिंग कर रहा था?
- ऐसा क्या किया की महेश घोष की बेटी की बारात वापस लौट गयी?
- चक्रेश ऐसा क्यो कर रहा था?
- क्या चक्कर था चक्रेश की हरकतों के पीछे?
- कौन था चक्रेश?
यह सब तो उपन्यास पढकर ही जाना जा सकता है।
उपन्यास में कुछ रोचक दृश्य भी हैं-
"तुझसे ज्यादा जरूरत  मुझे है।"
"त..तुम्हें?"
"मेरी बीबी की शादी है।"
"ब..बीबी की शादी?
" जल्दी से बैग मेरे हवाले कर।....."
"म..मेरी समझ में नहीं रहा। तुम आखिर किस किस्म के।" (पृष्ठ -13)
   ऐसा ही एक और दृश्य है। वह है चांदनी की शादी के दिन आने वाले दो वकील अपलम- चपलम का।
" तू नहीं समझेगा। अनपढ है न। हम पढे लिखे हैं। वकील ठहरे।"
"तुम दोनों के नाम?"
"अपलम।"- लंबे ने कहा।
गुट्टा बोला -" चपलम" (पृष्ठ-16)
........
चपलम ने सिगार में  कस लगाने के साथ कहा- " हम उस शादी में आमन्त्रित किये जाने वाले सबसे पहले शख्स हैं।"
"अट्ठारह साल पहले ही आमंत्रित कर लिए गये थे।"- अपलम ने फिर पीक थूका -" इसलिए पधारे भी सबसे पहले हैं।" (पृष्ठ-17)
ये पात्र उपन्यास में जब भी आये उपन्यास को रोचक बनाते चले गये।
  उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर उपन्यास के बारे में कुछ लिखा गया है, आप भी पढ लीजिएगा।
      करीब इक्कीस साल पहले एक कत्ल हुआ।
मजे की बात - कत्ल होने वाले को मालूम था कि उसका कत्ल होने वाला है। इतना ही नहीं, उसे यह भी मालूम था कि कत्ल कौन करने वाला है। बावजूद इसके वह अपना कत्ल होने से रोक नहीं सकता था।
क्यों? यह है इस कहानी का पहला पेंच
दूसरा पेंच-  इक्कीस साल बाद एक बैंक का लाॅकर खुला। उससे ऐसे सबूत बरामद हुये जो अकाट्य रूप से उस शख्स को हत्यारा साबित करते थे जिसने कत्ल किया था।
    अगर आप जानना चाहते हैं कि कत्ल होने वाले ने इक्कीस साल बाद अपने कातिल को फांसी कराने का यब चमत्कार कैसे कर दिखाया तो हिंदी के सबसे ज्यादा बिकने वाले उपन्यासकार वेदप्रकाश शर्मा के इस उपन्यास को जरूर पढें।
  उपन्यास का आरम्भ जितना रोचक है इसका समापन भी उतना ही रोचक है।  लेकिन उपन्यास का मध्यांतर बहुत ज्यादा निराश करता है। वहाँ ऐसा लगता है जैसे उपन्यास ठहर गया हो और वही पुरानी कथा कहानी की तरह एक नायक नाराज या नायक से नफरत करने वाली नायिका को मनाने के उपाय करता नजर आता है।
पृष्ठ संख्या 164 -165 पर पुलिस घायल गुण्डों के पास आती है पर उनकी मदद या हास्पिटल पहुंचाने की जगह चक्रेश का पीछा करने निकल जाती है।
    वेदप्रकाश शर्मा जी के स्वयं के प्रकाशन संस्था से प्रकाशित यह उपन्यास बहुत ही रोचक है जो पाठक को दिलचस्प भी लगता है।
  उपन्यास की कहानी पाठक की सोच से बहुत दूर निकल जाती है।
जो पाठक पढता है वह होता नहीं, जो दिखता है वह भी होता नहीं और जो उपन्यास में होता है वह पाठक सोच नहीं पाता।
कहा‌नी का अंत तो बार- बार चौंकाता है।
  उपन्यास रोचक है और पठनीय है।
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उपन्यास- कारीगर
लेखक- वेदप्रकाश शर्मा
प्रकाशक- तुलसी पेपर बुक्स- मेरठ
पृष्ठ- 286
मूल्य- 100₹

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