Friday 31 March 2017

25. पिंजर - अमृता प्रीतम

पिंजर- स्त्री के दर्द की कथा।
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अमृता प्रीतम द्वारा लिखित उपन्यास 'पिंजर' साहित्य की अनमोल धरोहर है। एक न मिटने वाली प्यास है- पिंजर। पाठक इस उपन्यास को जितना पढता जायेगा, यह प्यास उतनी ही तीव्र होती जायेगी।
पिंजर एक मार्मिक कहानी है। औरत के मर्म को प्रकट करती वह कहानी जो पाठक के हृदय के अंदर तक उतर जाती है। सन् 1935 से लेकर सन् 1947 के भारत- पाक विभाजन की एक मार्मिक कहानी।

       कहानी- सन् 1935, गांव छत्तोआनी के एक हिंदू परिवार की लङकी है पूरो। पूरो की सगाई पङोसी गांव रत्तोवाल के रामचन्द से हो गयी। अल्हङ पूरो अपनी ख्वाबों की दुनिया में मग्न है, अपने राजकुमार के सपने देखती है, कभी हाथों पर मेहंदी लगती है, कभी दरवाजे पर बारात खङी है।
     पर पूरो की किस्मत इतनी अच्छी नहीं है। एक दिन खेत गयी पूरो का दूर गांव के मुस्लिम परिवार का रशीद अपहरण कर ले जाता है।
"तुझे अपने अल्लाह की कसम है, रशीद! सच- सच बता, तूने मेरे साथ ऐसा क्यों किया है?"
" पूरो, हमारे शेखों के घराने में और तुम्हारे शाहों के घराने में दादा, परदादा के समय से बैर चला आ रहा है.......... मुझसे कौल कराए कि  मैं शाहों की लङकी को ब्याह से पहले किसी भी दिन उठा ले जाऊं।"
पूरो धैर्य से किस्मत की कहानी सुनती रही।
               एक पारिवारिक दुश्मनी का शिकार होती है पूरो। एक रात पूरो अवसर पाकर रशीद की कैद से निकल कर अपने घर जा पहुंचती है
लेकिन मां- बाप इस कारण अपनी बेटी को अपनाने से इंकार कर देते हैं की यह मुस्लिम लोगों के घर रह कर आयी है, इससे अब कौन शादी करेगा।
"हम तुझे कहां रखेंगे? तुझे कौन ब्याह कर ले जायेगा? तेरा धर्म गया, तेरा जन्म गया। हम जो इस समय कुछ भी बोले तो हमारे लहू की एक बूंद भी नहीं बचेगी।"
"हाय! मुझे अपने हाथ से ही मार डालो।"- पूरो ने तङफ कर कहा।
" बेटी जनमते ही मर गयी होती है! अब यहाँ से चली जा। शेख आते ही होंगे....वे हम सबको मार डालेंगे।"- माँ ने न जाने कैसे दिल पर पत्थर रखकर यह बात कही।
पूरो लौट गयी।
एक दिन रशीद पूरो से शादी कर लेता है, उस पूरो से जो अंदर से खत्म हो गयी। वह पूरो जो अब एक पिंजर मात्र है।
समयानुसार पूरो गर्भवती हो गयी। क्या कोई उस संतान को चाहेगी, जबरन थोपी गयी संतान, प्यार के बिना पैदा संतान। क्या औरत मात्र संतान उत्पति का माध्यम मात्र है। पूरो भी तो उस संतान को कहा सहन कर सकती है।
"पूरो को अपने अंग- अंग से घिन आने लगी। मन चाहा कि वह अपने पेट में पल रहे रहीं। को झटक दे, उसे अपने से दूर कर झाङ दे; ऐसे, जैसे कोई चुभे हुए काँटे को नाखूनों में लेकर निकाल देता है.....।"
पूरो की अधूरी जिंदगी यूँ ही चलती रहती है।
समय बदल जाता है, पर पूरो के दिल में अपने माँ-बाप, सहेलियां, गांव, मंगेतर सब धङकते हैं।
सन् 1947, भारत- पाक विभाजन।
एक बार फिर न जाने कितनी 'पूरो' अपने परिवार से बिछङी। लेकिन इस बार पूरो ने संकल्प लिया की वह किसी दूसरी पूरो को अपने परिवार से अलग नहीं होने देगी।
रामचन्द व पूरो का परिवार पाकिस्तान छोङ कर हिंदुस्तान आ जाते हैं। इसी भगदङ के दौरान रामचन्द की बहन लजो गुम हो जाती है। लजो,पूरो के भाई की पत्नी भी है।
जैसे ही पूरो को इस बात का पता चलता है तो वह रशीद के साथ मिलकर लज्जो को ढूंढ निकालती है।
विभाजन के बाद पुलिस घर-घर जाकर उन लङकियों को खोजती है जो जबरन कैद है, जिनका अपहरण हो गया, और उन लङकियों को वापस अपने घर- वतन भेजती  हैं।
पूरो के भाई और रामचन्द ने जब पूरो को वापस घर लौटने के लिए कहा तो।
पूरो की आँखों में आंसू भर आए। उसने धीरे से अपने भाई के हाथ हाथ से अपनी बांह छुङा ली और परे खङे हुए रशीद के पास जाकर अपने बच्चे को उठाकर अपने गले से लगा लिया। कहा,- "लाजो अपने घर लौट रही है, समझ लेना कि इसी में पूरो भी लौट आई। मेरे लिए अब यही जगह है।"
  पूरो तो शायद अपने घर न जा सकी लेकिन इस पूरो ने अन्य लङकियों को पूरो बनने बचा लिया।
"कोई लङकी हिंदू हो या मुस्लमान, जो भी लङकी लौटकर अपने ठिकाने पहुंचती है, समझो उसी के साथ मेरी आत्मा भी ठिकाने पहुंच गई....।"- पूरो ने कहा
           उपन्यास में एक और पात्र है, वह है एक पगली औरत। वह पगली औरत जो संपूर्ण तथाकथित मनुष्य जाति की मनुष्यता पर एक सवालिया निशान खङा कर देती है।
कौन है पगली, कहां से आई है, किस धर्म- जाति से है? कोई नहीं जानता, लेकिन एक दिन वह पगली गर्भवती हो जाती है। पूरा गाँव सन्नाटे में है। कौन होगा वह नीच मनुष्य जो पशु बन गया, क्या वह मनुष्य कहलाने का हकदार है।
और यह प्रश्न यहीं नहीं खत्म होता है, पगली औरत एक लङके को जन्म देकर मर जाती है और उस लङके को पालती है पूरो।
जब वह लङका छह माह का हो जाता है तब धर्म के रक्षक उसे हिंदू बताकर पूरो से छीन लेये है।
पूरो और रशीद का एक ही सवाल है- छह माह तक ये धर्म के ठकेदार कहां थे।
उपन्यास में धर्म और साम्प्रदायिक के कई रूप उभर के सामने आये हैं, पर सब पर मानवता हावी रही है।
वह धर्म भी किस काम का जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करे।
सन् 1947 के विभाजन का दर्द भी उपन्यास में उभर कर सामने आया है।
उपन्यास में मात्र दर्द ही नहीं पारम्परिक लोकगीतों का रंग भी देखा जा सकता है।
" लावीं ते लावीं नी कलेजे दे नाल माए,
  दस्सीं ते दस्सीं इक बात नीं।
बातां ते लम्मीयां नी धीयां क्यों जमीयां नीं।
अज्ज विछोङे वाली रात नीं।"
एक बेटी का दर्द है।
"चरखा जू डाहनीयां मैं छोपे जु पानियां मैं,
पिङियां ते वाले मेरे खेस नीं।
पुत्रां नू दित्ते उच्चे महल ते माङियां,
धीया नू दित्ता परदेश नीं।"
  उपन्यास मूलतः पंजाबी भाषा में लिखा गया है। इसलिए उपन्यास में पंजाब की संस्कृति, भाषा व अपनेपन की महक उपस्थित है।
पूरी उपन्यास में एक बात उभर कर आती है, वह है संदेवना। अमृता प्रीतम का जो लिखने का अंदाज है वह पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है। पात्र का दुख:- दर्द स्वयं पाठक का दर्द बन जाता है
    " यह वह उपन्यास है जो दुनिया की आठ भाषाओं में प्रकाशित हुआ और जिसकी कहानी भारत के विभाजन की उस कथा को लिए हुए है, जो इतिहास की वेदना भी है और चेतना भी।"
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उपन्यास- पिंजर
ISBN-
लेखिका- अमृता प्रीतम
प्रकाशक- हिंद पाॅकेट बुक्स
मूल्य- 125₹
संस्करण- 2012

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