घर को लगा दी आग घर के चिरागों ने...
आस्तीन का सांप- सुरेन्द्र मोहन पाठक, 1966
सुनील सीरीज- 10
सेठ सुन्दरदास ने अत्यन्त दयाभाव दिखाकर अपने दूर के रिश्तेदारों को अपने घर में आश्रय दिया था । लेकिन फिर हालात ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि सुन्दरदास ने खुद को पागलखाने में बंद पाया । काश कि वो जानता होता कि वो रिश्तेदार नहीं सांप पाल रहा था जिसको चाहे कितना ही दूध पिलाया जाये, उसकी जात नहीं बदलती, वो डंसे बिना नहीं मानता।
उपर्युक्त कथानक है सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यास 'आस्तीन के सांप' का। यह सुनील सीरीज का दसवां उपन्यास है। जो एक ऐसे व्यक्ति की व्यथा-कथा है जिसे अपने ही लोगों ने धोखा दिया, उसकी जान के दुश्मन बन बैठे।
कथा का आरम्भ होता है 'चटर्जी और मुखर्जी' नामक वकीलों की एक संस्था के सीनियर वकील चटर्जी से।
चटर्जी एण्ड मुखर्जी नाम की वकीलों की फर्म के सीनियर पार्टनर चटर्जी एक लगभग पचपन वर्ष के प्रौढ व्यक्ति थे और सुनील के अच्छे मित्रों में से थे ।
चटर्जी के पास शारदा नामक युवती आती है। उसी युवती के दुख निवारण के लिए चटर्जी सुनील को बुलाते हैं। “सुनील ।” - दूसरी ओर चटर्जी का स्वभावगत गम्भीर स्वर सुनाई दिया - “थोड़ी देर के लिए मेरे आफिस में आ सकते हो ?”
“अभी ?” - सुनील ने पूछा।
“हां।”
“क्या बात है ?”
“यहां आओगे तो बताऊंगा।”
“अभी ?” - सुनील ने पूछा।
“हां।”
“क्या बात है ?”
“यहां आओगे तो बताऊंगा।” वहाँ जाकर सुनील को सुनील शारदा और चटर्जी से मिलता है।
“किस्सा क्या है ?” - सुनील तनिक बेसब्री से बोला।
“शारदा सुन्दरदास की भतीजी है।” - चटर्जी बड़ी सावधानी से शब्दों चयन करते हुए बोले - “लगभग तीन महीने पहले वह ऊटाकमंड चली गई थी।”
“क्यों ?”
शारदा के कथानुसार सुंदर के भाई भाई शंकरलाल ने सुंदर दास को पागल घोषित कर उसकी संपति पर अधिकार जमा लिया है। जबकि सुंदर दास पागल नहीं है।
सुनील जब शंकरलाल उसकी पत्नी विद्या और उसके दोस्त राम नाथ से मिलता है तो उसे एक नयी कहानी और नया रहस्य सुनने को मिलता है। लेकिन इस सुनील की खोज में उसे सुंदर दास कहीं नहीं मिलता।
अब कहानी सुनील की है तो तय एक मर्डर तो अवश्य होगा। और यहाँ भी एक हत्या हो जाती है। जिसकी जांच इंस्पेक्टर प्रभुदयाल करता है।
“इन्चार्ज कौन है ?” - सुनील ने पूछा।
“इंस्पेक्टर प्रभूदयाल।”
“बेड़ा गर्क।” - सुनील बड़बड़ाया।
“क्यों ?” - रमाकांत ने पूछा।
“अगर उसे पता लग गया कि इस केस से मैं भी सम्बन्धित हूं तो एकदम से उसकी लाइन ऑफ एक्शन ही बदल जागगी । जिस आदमी को कवर करने की मैं सबसे ज्यादा चेष्टा कर रहा हूंगा, वह उस पर सबसे अधिक संदेह करेगा । क्या यह मालूम हुआ है कि मरने वाला कौन है ?”
“अभी नहीं।” - दिनकर बोला।
- क्या सुंदर दास सच में पागल था?
- क्या शारदा सच बोल रही थी?
- शारदा ऊटी क्यों गयी थी?
- शंकर लाल क्या सच बोल रहा था?
- सुंदर दास आखिर कहां था?
- हत्या किस व्यक्ति की हुयी थी?
- हत्यारा कौन था?
- सुनील ने आखिर इस केस को कैसे हल किया?
पाठक जी द्वारा लिखा गया यह एक छोटा सा उपयोग है। कहानी हालांकि सामान्य है और चंद पृष्ठों पश्चात अंदाजा हो जाता की आखिर कहानी क्या है और अंत क्या है। लेकिन फिर भी कुछ रहस्य है जो पाठक की उत्सुकता बनाये रखये हैं।
उपन्यास में एक हत्या भी होती दिखायी गयी है, हालांकि इस हत्या के बिना भी काम चल सकता था।
कहानी में सुनील के साथ यूथ क्लब का उसका मित्र रमाकांत भी उपस्थित है और पुलिस इंस्पेक्टर प्रभुदयाल भी। प्रभुदयाल और सुनील की नोकझोंक भी है और रमाकांत का हास्य स्वभाव भी।
उपन्यास में जहां सुंदर दास के संबंधी उसकी संपति हड़पना चाहते हैं, वहीं सुनील का बैंक वाला कारनामा बहुत रोचक लगता है।
शारदा का किरदार सुनील और रमाकांत के लिए उलझन पैदा करता है। और कुछ मुसीबतें भी। और अंत
पुलिस सुपरिटेन्डेन्ट रामसिंह के साथ सुखांत को पहुँचता है।
इस समीक्षा का अंत एक कथन के साथ-
"तुम नहीं जानते कैसे कभी-कभी नीच प्रवृत्तियों वाले रिश्तेदार आस्तीन के सांप बन जाते हैं । कैसे एकाएक आपको अपने ही घर में अजनबी बना दिया जाता है । कैसे एक दिन एकाएक आपको मालूम होता है कि आपकी जिन्दगी भर की खून-पसीने की कमाई, आपकी अपनी मेहनत का फल आपकी लाखों की सम्पत्ति, आपकी नहीं है।"
सामान्य मगर रोचक कहानी वाला यह उपन्यास आप एक बार पढ सकते हैं।
उपन्यास- आस्तीन के सांप
लेखक - सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशन- 1966
सुनील सीरीज -10
सुनील सीरीज- 10
सेठ सुन्दरदास ने अत्यन्त दयाभाव दिखाकर अपने दूर के रिश्तेदारों को अपने घर में आश्रय दिया था । लेकिन फिर हालात ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि सुन्दरदास ने खुद को पागलखाने में बंद पाया । काश कि वो जानता होता कि वो रिश्तेदार नहीं सांप पाल रहा था जिसको चाहे कितना ही दूध पिलाया जाये, उसकी जात नहीं बदलती, वो डंसे बिना नहीं मानता।
उपर्युक्त कथानक है सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यास 'आस्तीन के सांप' का। यह सुनील सीरीज का दसवां उपन्यास है। जो एक ऐसे व्यक्ति की व्यथा-कथा है जिसे अपने ही लोगों ने धोखा दिया, उसकी जान के दुश्मन बन बैठे।
कथा का आरम्भ होता है 'चटर्जी और मुखर्जी' नामक वकीलों की एक संस्था के सीनियर वकील चटर्जी से।
चटर्जी एण्ड मुखर्जी नाम की वकीलों की फर्म के सीनियर पार्टनर चटर्जी एक लगभग पचपन वर्ष के प्रौढ व्यक्ति थे और सुनील के अच्छे मित्रों में से थे ।
चटर्जी के पास शारदा नामक युवती आती है। उसी युवती के दुख निवारण के लिए चटर्जी सुनील को बुलाते हैं। “सुनील ।” - दूसरी ओर चटर्जी का स्वभावगत गम्भीर स्वर सुनाई दिया - “थोड़ी देर के लिए मेरे आफिस में आ सकते हो ?”
“अभी ?” - सुनील ने पूछा।
“हां।”
“क्या बात है ?”
“यहां आओगे तो बताऊंगा।”
“अभी ?” - सुनील ने पूछा।
“हां।”
“क्या बात है ?”
“यहां आओगे तो बताऊंगा।” वहाँ जाकर सुनील को सुनील शारदा और चटर्जी से मिलता है।
“किस्सा क्या है ?” - सुनील तनिक बेसब्री से बोला।
“शारदा सुन्दरदास की भतीजी है।” - चटर्जी बड़ी सावधानी से शब्दों चयन करते हुए बोले - “लगभग तीन महीने पहले वह ऊटाकमंड चली गई थी।”
“क्यों ?”
शारदा के कथानुसार सुंदर के भाई भाई शंकरलाल ने सुंदर दास को पागल घोषित कर उसकी संपति पर अधिकार जमा लिया है। जबकि सुंदर दास पागल नहीं है।
सुनील जब शंकरलाल उसकी पत्नी विद्या और उसके दोस्त राम नाथ से मिलता है तो उसे एक नयी कहानी और नया रहस्य सुनने को मिलता है। लेकिन इस सुनील की खोज में उसे सुंदर दास कहीं नहीं मिलता।
अब कहानी सुनील की है तो तय एक मर्डर तो अवश्य होगा। और यहाँ भी एक हत्या हो जाती है। जिसकी जांच इंस्पेक्टर प्रभुदयाल करता है।
“इन्चार्ज कौन है ?” - सुनील ने पूछा।
“इंस्पेक्टर प्रभूदयाल।”
“बेड़ा गर्क।” - सुनील बड़बड़ाया।
“क्यों ?” - रमाकांत ने पूछा।
“अगर उसे पता लग गया कि इस केस से मैं भी सम्बन्धित हूं तो एकदम से उसकी लाइन ऑफ एक्शन ही बदल जागगी । जिस आदमी को कवर करने की मैं सबसे ज्यादा चेष्टा कर रहा हूंगा, वह उस पर सबसे अधिक संदेह करेगा । क्या यह मालूम हुआ है कि मरने वाला कौन है ?”
“अभी नहीं।” - दिनकर बोला।
- क्या सुंदर दास सच में पागल था?
- क्या शारदा सच बोल रही थी?
- शारदा ऊटी क्यों गयी थी?
- शंकर लाल क्या सच बोल रहा था?
- सुंदर दास आखिर कहां था?
- हत्या किस व्यक्ति की हुयी थी?
- हत्यारा कौन था?
- सुनील ने आखिर इस केस को कैसे हल किया?
पाठक जी द्वारा लिखा गया यह एक छोटा सा उपयोग है। कहानी हालांकि सामान्य है और चंद पृष्ठों पश्चात अंदाजा हो जाता की आखिर कहानी क्या है और अंत क्या है। लेकिन फिर भी कुछ रहस्य है जो पाठक की उत्सुकता बनाये रखये हैं।
उपन्यास में एक हत्या भी होती दिखायी गयी है, हालांकि इस हत्या के बिना भी काम चल सकता था।
कहानी में सुनील के साथ यूथ क्लब का उसका मित्र रमाकांत भी उपस्थित है और पुलिस इंस्पेक्टर प्रभुदयाल भी। प्रभुदयाल और सुनील की नोकझोंक भी है और रमाकांत का हास्य स्वभाव भी।
उपन्यास में जहां सुंदर दास के संबंधी उसकी संपति हड़पना चाहते हैं, वहीं सुनील का बैंक वाला कारनामा बहुत रोचक लगता है।
शारदा का किरदार सुनील और रमाकांत के लिए उलझन पैदा करता है। और कुछ मुसीबतें भी। और अंत
पुलिस सुपरिटेन्डेन्ट रामसिंह के साथ सुखांत को पहुँचता है।
इस समीक्षा का अंत एक कथन के साथ-
"तुम नहीं जानते कैसे कभी-कभी नीच प्रवृत्तियों वाले रिश्तेदार आस्तीन के सांप बन जाते हैं । कैसे एकाएक आपको अपने ही घर में अजनबी बना दिया जाता है । कैसे एक दिन एकाएक आपको मालूम होता है कि आपकी जिन्दगी भर की खून-पसीने की कमाई, आपकी अपनी मेहनत का फल आपकी लाखों की सम्पत्ति, आपकी नहीं है।"
सामान्य मगर रोचक कहानी वाला यह उपन्यास आप एक बार पढ सकते हैं।
उपन्यास- आस्तीन के सांप
लेखक - सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशन- 1966
सुनील सीरीज -10
रोचक। सुनील के इस उपन्यास को पढ़ने की कोशिश रहेगी।
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