Saturday 6 March 2021

421. धब्बा- सुरेन्द्र मोहन‌ पाठक

एक मामूली बेऔकात 'धब्बा' जो कत्ल के हल की बुनियाद बना।
धब्बा- सुरेन्द्र मोहन पाठक, मर्डर मिस्ट्री
सुनील सीरीज -119
पाठक जी -    275

श्रीप्रकाश सिकंद नाम के एक स्वर्गवासी व्यक्ति की वसीयत का केस बड़ा दिलचस्प हो गया है। बीस करोड़ के विरसे का मामला है ...।(पृष्ठ-137)
       मैं जब भी कहीं सफर में होता हूँ तो मेरे थैले में दो-चार उपन्यास अवश्य होते हैं। जहाँ एक तरफ सफर में उपन्यास पढ लिये जाते हैं, वहीं लोगों तक यह संदेश भी जाता है कि उपन्यास संस्कृति अभी जिंदा है।
    इस बार विद्यालय से अवकाश लेकर घर (माउंट आबू से बगीचा-श्री गंगानगर) आया तो कोचीवैली-श्रीगंगानगर एक्सप्रेस ट्रेन में सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का उपन्यास 'धब्बा' पढा। 

धब्बा- सुरेन्द्र मोहन‌ पाठक
धब्बा- सुरेन्द्र मोहन‌ पाठक
प्रकाश खेमका 'सरकता आँचल' नाम से एक पत्रिका चलाता था। पत्रिका क्या थी वह पत्रिका की ओट में, पत्रिका के माध्यम से फ्रेण्डशिप क्लब चलाता था।
"वो आम मैगजीन नहीं है। सच पूछो तो मैगजीन‌ की शक्ल में फ्रेण्डशिप क्लब है। अनजान, एडवेंचरस लोगों में कम्यूनिकेशन का जरिया है। हर वर्ग के हर उम्र के लोगबाग कम्पैनियनशिप के लिए, दोस्ती के लिए...मैगजीन में विज्ञापन छपवाते हैं।(पृष्ठ-33)
     लेकिन एक बार एक विज्ञापन उसके गले की फांस बन गया और उसी फांस को निकलवाने के लिए वह रमाकांत के माध्यम से यूथ क्लब में 'ब्लास्ट' के पत्रकार सुनील से मिला।

     वैशाली पाहूजा बीस करोड़ की संपति की एकमात्र वारिश बनने वाली थी। लेकिन यह सब इतना आसान न था। कोई और भी तो था जो इस संपति पर अपना दावा लगाये बैठा था।
  जिसकी यह संपति थी वह स्वयं इस नश्वर दुनिया को अलविदा कहने से पहले अपनी वसीयत नर्स निरुपमा पाहूजा के नाम कर गया जिसकी गवाह गौरी परमार, सुरभी अवस्थि थी। निरुपमा पाहूजा के इस दुनिया से चले जाने के बाद वैशाली पाहूजा इस सम्पति की वारिश बनने जा रही थी।
   लेकिन वेदप्रकाश सिकंद के भाई वेदप्रकाश सिकंद, जगतप्रकाश सिकंद और बहन मनीषा तलवार भी इस संपति पर अपना दावा जता रहे थे।
   लेकिन एक दिन इस वसीयत की एक गवाह अपने घर में मृत पायी गयी।
   इंस्पेक्टर प्रभुदयाल इस कत्ल का अन्वेषण करता है और उसकी दृष्टि जिस कातिल के तौर पर वैशली पाहूजा पर जाती है और पत्रकार सुनील वैशाली पाहूजा को बेगुनाह मानता है‌।
    पुलिस और सुनील दोनों ही असली कातिल तक पहुंचना चाहते हैं‌। इसी दौरान सुनील के हाथ लगता है एक सामान्य सी जगह पर एक सामान्य सा, छोटा सा फिंगर प्रिंट का धब्बा। और बुद्धिमान पत्रकार जासूस सुनील उसी धब्बे को आधार बना कर असली कातिल तक जा पहुंचता है।
    उपन्यास में एक बात तो है कि अगर तीक्ष्ण दृष्टि से किसी भी घटना का अन्वेषण किया जाये तो कोई न कोई ऐसा सबूत मिल ही जाता है जो अपराधी की पहचान करवा देता है।
    
उपन्यास के कुछ रोचक बिंदुओं पर भी चर्चा कर ली जाये। उपन्यास का आरम्भ एक कवि मुशायरे से होता है जो की काफी रोचक है और उसमें रमाकांत का प्रवेश उसे और भी हास्यजनक बना देता है।
एक कविता आप भी पढ लीजिए-
आगे पीछे टायं टायं
दायें बायें कायं कायं
ऊपर नीचे, नीचे ऊपर
टायं टायं, कायं कायं
कायं कायं,टायं टायं
जीना हो तो जिंदगी में
बोले कोई कहां जायें।। (पृष्ठ-20)
वैसे स्वयं रमकांत का किरदरा भी बहुत हास्यजनक है।
खेमकी का किरदार, बिलकुल अलग तरह का है। जो उपन्यास में कुछ रोचक और हास्यास्पद स्थितियां पैदा रहता है। हालांकि इस किरदार का चित्रण ज्यादा नहीं है।
   
सुनील सीरीज का यह मर्डर मिस्ट्री उपन्यास सामान्य कथानक युक्त है। कोई अतिरिक्त, यादगार ट्विस्ट नहीं है, बस एक मुशायरे के।
पन्यास- धब्बा
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशक- राजा पॉकेट बुक्स, दिल्ली
पृष्ठ- 333

1 comment:

  1. बढिया लेख ! बहुत सुंदर समीक्षा 🙏

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