Tuesday 8 October 2019

228. केशव पण्डित- वेदप्रकाश शर्मा

केशव पण्डित का पहला उपन्यास।
केशव पण्डित- वेदप्रकाश शर्मा

"क्या नाम है तुम्हारा?"
"केशव।"
"अदालत में पूरा नाम बताना चाहिए बेटे।"
"केशव पण्डित"
"उम्र"
"चौदह साल, दो महिने, पांच दिन।"
"पढते हो?"
"जी।"
"कहां?"
"नैनीताल कैम्ब्रिज स्कूल में।"
"क्लास?"
"टैंथ स्टैंडर्ड।"
"आजकल यहाँ, इलाहाबाद में क्या कर रहे हो?"
"यहाँ मेरा घर है। मम्मी-पापा और दीदी यहीं रहते हैं...।"
(पृष्ठ-05)

नक्की झील,माउंट आबू, राजस्थान
    यह दृश्य है वेदप्रकाश शर्मा के बहुचर्चित उपन्यास 'केशव पण्डित' का। केशव पण्डित वह उपन्यास और पात्र है जिसने लोकप्रिय जासूसी उपन्यास साहित्य की धारा को एक नया रास्ता दिखाया था। अपने समय में ब्लैक में बिकने वाला उपन्यास। यह स्वाभाविक जिज्ञासा भी उठती है की आखिर इस उपन्यास में ऐसा क्या था जो ब्लैक में बिका। आखिर इस पात्र में ऐसा क्या था जिसके नकल हर प्रकाशन ने की। जिसके नाम से बहुसंख्यक लेखक पैदा हो गये, असंख्य उपन्यास प्रकाशित हुये। आखिर क्या करिश्मा था केशव पण्डित में।
इसी जिज्ञासा का शमन करने के लिए मैं जब केशव पण्डित नामक उपन्यास पढने बैठा तो उसकी कहानी में उतरता चला गया, हालांकि यह उपन्यास किशोरावस्था में पढा था लेकिन जो आनंद और इसका महत्व अब समझ में आया वैसी समझ तब कहां थी।
            'केशव पण्डित' मात्र एक उपन्यास नहीं है। ये तो भारतीय कानून के उन विसंगतियों का वर्णन है जहां एक अपराधी सजा से बच सकता है और एक बेगुनाह फंस सकता है।

        यह कहानी केशव नामक एक चौदह वर्षीय बालक की। जिसकी सिर्फ इतनी ही 'गलती' थी की उसने कानून का साथ दिया, उसने सत्य का साथ दिया, उसने अपनी साक्षी में वहीं कहा जो देखा, जो सत्य था। और परिणाम....?। परिणाम इतना वीभत्स था की उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता।
हम एक तरफ कानून की बात करते हैं। क्या यह कानून सभी पर लागू होता है। नन्हां सा केशव जब इन व्यवस्थाओं को देखता है तो चिल्ला उठता है- "सब दायरे में बंधे हैं अंकल, सिर्फ जुनेजा जैसे गुण्डे आजाद हैं। अजीब कानून है, अनोखी व्यवस्था है....।(पृष्ठ-71)
यही जुनेजा जैसे गुण्डे व्यवस्था के साथ मिलकर, कानून को अपना गुलाम बनाकर निर्दोष लोगों पर अत्याचार करते हैं। मैंने किताबों में पढा है अंकल, कि जंगल में ताकत का कानून चलता है, जो ताकतवर है वही सबका राजा है, वहाँ कोई व्यवस्था नहीं है, मगर अब मालूम‌ पड़ रहा है कि किताबों में पूर्ण सबक नहीं लिखा। किताबों में यह लिखा जाना चाहिए कि हमारे समाज में भी कोई व्यवस्था नहीं, यहाँ सिर्फ और सिर्फ ताकत का कानून चलता है।"(पृष्ठ-71)

वास्तविकता  तो यह है की कानून से ज्यादा सक्रिय मुजरिम है। कानून के रक्षक भी गुनाहगार का साथ देते हैं। कहने को अदालतें हैं, कानून व्यवस्था है, प्रशासन है लेकिन वास्तविकता क्या है? केशव के शब्द देखें- "कानून और उसके प्रहरी यह दावा करते नहीं थकते कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, मगर हमारे साथ जो हुआ, जो हो रहा है उससे एक बात साबित होती है। यह कि मुजरिमों के हाथ कानून से कई गुणा ज्यादा लंबे होते हैं।(पृष्ठ-105)

ऐसी बात नहीं की सभी गलत हैं। कुछ अच्छे लोग भी हैं लेकिन उनकी बात को महत्व कहां दिया जाता है। ऐसा ही एक इंस्पेक्टर था तीरथ सिंह।
       तीरथ सिंह नाम एक ऐसे 'ब्रिलिएंट' पुलिस इंस्पेक्टर का है, जो जांच के दौरान कभी कोई 'चूक' नहीं करता। अपने विभाग में वह 'शर्लाक होम्ज' के नाम से जाना जाता है। (पृष्ठ-27)
      अपराधी का साथ देने वाला भी गुनाहगार माना जाता है, लेकिन जब एक वकील जानबूझ कर,तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने, झूठी गवाही दिलवा कर मुजरिमों का साथ देता है तब कानून क्यों नहीं कुछ करता।
"...कानून कुछ खास लोगों को कुछ खास किस्म के जुर्म करने के लिए खुद नियुक्त करता है और उन्हें इसलिए मुजरिम नहीं मानता, क्योंकि वे उसी के द्वारा नियुक्त किए गये हैं? (पृष्ठ-49)
     तब कहां गये कानून के रक्षक, निर्माता। क्या वे थक गये हैं। यही बात केशव पण्डित भी कहता है।- "यानी हमारे देश का कानून बनाने वाले, उसे लागू करने की व्यवस्था करने वाले दिमागी तौर पर थक गये हैं। इससे उचित व्यवस्था वे सोच नहीं सकते?(पृष्ठ-73)

शिक्षा विभाग के जुनेजा, कुकरेजा, वकील मुन नारंग जैसे शिक्षित लोग जब बब्बन जैसे लोगों जैसे हो जाते हैं, तो कानून भी इनके साथ हो जाता है।
 बब्बन उस्ताद- गंदे जूते, मैली जीन और हाफ बाजू वाला सस्ता बनियान पहने था वह। लंबी गरदन में लाल रूमाल बंधा था और उस गरदन पर टिका सिर हंडिया सा दिखाई देता था। उसकी बढी मूंछ-दाढी और सिर के बाल कंटीली झांड़ियों की याद दिलाते थे।(पृष्ठ-54)
 
     केशव पण्डित उपन्यास कानून और समाज में व्याप्त कुछ कमियों और बुराईयों की ओर ईशारा करता है। कैसे चंद लोग कानून की देवी को गुमराह कर देते हैं। कैसे सत्य को असत्य साबित कर दिया जाता है। और क्यों समाज सब कुछ गलत देखते हुए भी चुप रह जाता है।
और कैसे एक मासूम परिवार खत्म हो जाता है। समाज और कानून बस देखते रह जाते हैं। बुराई निरंतर बढ रही है और अच्छाई सिमट रही है।
केशव पण्डित उपन्यास ऐसे ही कुछ मार्मिक प्रसंगों का कथानक है।  

वक्त और परिस्थितियों के चलते। मासूम केशव एक अपराधी घोषित कर दिया जाता है। बड़ा अजीब कानून और उसके तथाकथित रक्षक एक व्यक्ति का घर जलाकर उसे ही दोषी बना देते हैं। और कानून....सिर्फ साक्ष्य देखता है। आम आदमी कहां से लाये सबूत। मजबूर होकर वह गलत रास्ते पर चलता है। यहीं केशव ने किया। लेकिन सोनू को यह अच्छा न लगा। क्यों- किसी भी इंसान को बुरे से बुरे हालात में अपना होश नहीं गंवाना चाहिए, क्योंकि होश गंवाते ही दूसरी अनेक बुराईयां पैदा हो जाती हैं।(पृष्ठ-164)
इन बुराईयों को रोकने के लिए सोनु ने केशव को बना दिया कानून का बेटा। हथियार की जगह उसे दी कानून की किताब।
"...अगर मेरे पास रिवॉल्वर नहीं होगा तो बदला कैसे लूंगा मैं?"
"कानून का बेटा बनकर।"
"क्या मतलब?"
"तेरा हथियार रिवाॅल्वर नहीं केशव, ये किताब है।"
"किताब?"
"हां,कानून की किताब...क्या अब भी तेरी समझ में नहीं आया केशव, कि यह दुनियां का सबसे नायाब, माकूल और अचूक हथियार है। जिस पर वार किया जाए वह बच नहीं सकता और उससे भी ज्यादा मजे की बात ये है कि इस हथियार को इस्तेमाल करने वाले, इससे किसी को मार देने वाले का दुनियां की कोई अदालत कुछ नहीं बिगाड़ सकती।"
(पृष्ठ-175)


केशव पण्डित उपन्यास एक शुद्ध थ्रिलर उपन्यास है। यह एक ऐसा उपन्यास है जो पाठक के मन को छू जायेगा। आँखें नम हो जायेगी और पाठक स्वयं ही केशव पण्डित पात्र के साथ जुड़ता चला जायेगा। अगर कहीं आंखें नम होंगी तो कहीं गुस्सा भी आयेगा।
समाज और कानून की विसंगतियों को उजागर करता यह उपन्यास, एक बार पढकर देखें।
उपन्यास-  केशव पण्डित
लेखक-    वेदप्रकाश शर्मा
ISBN-    978-93-808-7134-9
प्रकाशक- राजा पॉकेट बुक्स
पृष्ठ-        216

केशव पण्डित उपन्यास के द्वितीय भाग 'कानून का बेटा' की समीक्षा। - कानून का बेटा

1 comment:

  1. वेद प्रकाश शर्मा सर का एक ऐसा किरदार जिसे जिसने पढ़ा वह उसका दीवाना हो गया। में बस इतना कह सकता हूं की केशव पंडित और कानून का बेटा एक बार यह उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए।

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