कहानी साहसी बालक निशा और विशु की
विशु जंगल में - सरोज कृष्ण
"निशा, आज तो जल्दी घर पहुंचना होगा," विशु ने स्कूल बस से उतरते ही निशा को बताया.
"क्यों ? कल डांट पड़ी थी क्या ?"
"नहीं, मगर मां कहती हैं कि बस से उतरते ही सीधे घर आया करो."
"हम सीधे ही तो घर जाते हैं, " निशा ने इतने भोलेपन से कहा कि विशु की हंसी छूट गई.
"हां, बस, नीम के पेड़ के नीचे जरा सा सुस्ता लेते हैं, "
विशु ने शरारत से कहा तो दोनों एक साथ खिलखिला पड़े. उन की सरल व मासूम हंसी बड़ी ही मनमोहक थी.
"ठीक है विशु, आज हम सचमुच जल्दी घर पहुंच जाएंगे. मां और आंटी को नाराज होने का अवसर ही नहीं देंगे."
"हां, ठीक है, चलो भाग कर चलते हैं."
निशा और विशु ने अपने स्कूल बैग को कंधों पर ठीक से चढ़ाया और एकदूसरे का हाथ पकड़ कर कदम से कदम मिला कर दौड़ने लगे.
कंधों पर भारी बैग, उस पर चिलचिलाती धूप, अभी आधी फरलांग की दूरी भी तय नहीं हो पाई थी कि वे पसीने से भीग गए और उन की सांस फूलने लगी.
निशा के कदमों की गति धीमी होती देख विशु ने उस का उत्साह बढाया, ''बस थोड़ा सा और चलो, नीम का पेड़ आने ही वाला है." कहानियाँ पढने की रुचि मुझे बचपन से ही थी । बचपन में बालहंस, चंपक, लोटपोट, मधु मुस्कान के अतिरिक्त नन्हें सम्राट भी हाथ लग जाती थी। बालपत्रिकाओं से काॅमिक्स और फिर किशोर पत्रिकाएं भी पढी हालांकि किशोर पत्रिकाएं कम ही आती थी जिनमें से कादम्बिनी प्रमुख थी ।
चंपक मुझे अतिप्रिय थी और बाद में मेरी प्रथम बाल कहानी 'जंगल में प्रजातंत्र' चंपक (2007) में प्रकाशित हुयी थी।
चंपक में कुछ अन्य रोचक किताबों की जानकारी भी विज्ञापन रूप में आती थी । जैसे 'विशु जंगल में', 'मनीष और नरभक्षी' ,'ढोंगी साधू' इत्यादि । उस समय तो खैर यह किताबें नहीं उपलब्ध हो सकी पर अब पढने को मिली हैं -विशु जंगल में ।
यह एक साहसी बाल कहानी है जो छोटे बच्चों में उत्साहौर जोश पैदा करती है, उन्हें कठिन परिस्थितियों से डटकर सामने करने की हिम्मत देती है।
'विशु जंगल में' कहानी है निशा और विशु नामक दो छोटे बच्चों की ।
विशु और निशा दोनों पड़ोसी होने के साथसाथ अच्छे दोस्त भी थे. दोनों के पिता में गहरी छनती थी, दोनों की माताओं में भी खूब पटती थी. विशु और निशा तो खैर दिन भर साथ ही साथ रहते थे. दोनों एक ही स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे.
उन दिनों शहर में एक अपराधी आया हुआ था, जिसे उसका जी चाहता, पकड़कर मार डालता था ।(पृष्ठ09)
इसी के चलते शहर भय में जी रहा था, छोटे बच्चों का बाहर निकलना मना था। पुलिस सक्रिय थी पर पुलिस के हाथ कुछ भी न लगा था ।
एक दिन शाम को इंसपेक्टर चौहान निशा के घर आए.
इंसपेक्टर साहब और निशा के पिता नरेश वर्मा बचपन के दोस्त थे. वे अक्सर एक दूसरे के यहां आतेजाते थे, कभी अकेले और कभी सपरिवार. उस दिन वे अकेले थे.
इंस्पेक्टर चौहान शहर में आये उस अज्ञात अपराधी चर्चा करते हैं जिसे निशा भी सुनती है और बाद में अपने पड़ोसी और सहपाठी विशु को सब बातें बताती है।
दोनों उस अज्ञात अपराधी को पकडने की सोचते हैं। पर यह इतना आसान काम न था ।
उन दिनों निशा- विशु स्कूल के अन्य बच्चों के साथ स्काउट की तरफ से जंगल कैम्प में जाते हैं । इसी जंगल में वह विभिन्न जानवरों को देखते हैं और मनोरंजन करते हैं। अपने स्काउट अध्यापक निगम साहब के साथ घूमते हुये उन्हें एक जगह कटे हुये सांपॊं के सिर मिलते और वहीं एक पेड़ पर एक मचान भी। सभी हैरान थे कि घने जंगल में यह मचान क्यों बनाया गया है।
फिर यही से आरम्भ होता है विशु और निशा का साहसी और रोमांचक अभियान और दोनों रात्रि को स्काउट कैम्प से निकलकर खतरनाक जानवरों से भरे जंगल में जा पहुंचते हैं जहाँ था एक खतरनाक अपराधी जिसे लोग कहते थे 'मुरदों का शहजादा'
अब मुरदों का शहजादा और साहसी बच्चों में कैसे संघर्ष होता है और फिर आगे क्या होता है यह आप उपन्यास को पढकर अच्छे से जान सकते हैं।
120 पृष्ठ की किताब को (किताब का आकार लघु है इसलिए 120 को ज्यादा न मानें ) और छोटी होने से रोकने के लिए बीच में जंगल के दृश्यों को अनावश्यक विस्तार दिया गया है। वहीं अंत में कहानी की कुछ घटनाओं का लेखक स्पष्टीकरण नहीं दे पाया ।
एक अच्छी कहानी को अच्छी होने से कैसा रोका जाये यह इस में अच्छे से स्पष्ट होता है। और यह छोटे से उपन्यास की बड़ी कमी है।
हालांकि बच्चों की दृष्टि से यह बाल उपन्यास रोचक और मनोरंजन से परिपूर्ण है। बस बच्चे इस उपन्यास को पढकर भालू को मित्र इतना भी मित्र न समझ बैठे की उससे हाथ मिलाने का प्रयास करें, कहीं अपराधी की सूचना पुलिस को देने की बजाय स्वयं उस से उलझ जायें।
उपन्यास का नाम चाहे 'विशु जंगल में' है पर विशु के साथ निशा भी थी और दोनों का योगदान भी बराबर था । दोनो ही चतुर और साहसी थे।
फिर भी बचपन की इच्छा थी अब जाकर पूर्ण हुयी है और बाल उपन्यास में कुछ मनोरंजन भी किया है। इसलिए लेखक महोदय को धन्यवाद ।
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