Wednesday 30 January 2019

170. विवेकानंद की आत्मकथा

सत्य मेरा ईश्वर है, समग्र जगत् मेरा देश है।- स्वामी विवेकानंद

             12 जनवरी स्वामी विवेकानंद जी का जन्म दिवस है जिसे युवा दिवस के रूप में‌ मनाते हैं। मेरी यह इच्छा रहती है की विवेकानन्द जी साहित्य यथासंभव पढा जाये। इसी क्रम में एक रचना हाथ लगी 'विवेकानंद की आत्मकथा' शीर्षक से।
         इस रचना में विवेकानंद जी के जीवन को सहजता से समझना जा सकता है। युवा वर्ग के प्रेरणा पुरुष विवेकानंद जी ने अपने जीवन में जो परेशानियां देखी, जो संघर्ष किया और जिस सफलता के मुकाम पर वे पहुंचे वे सब तथ्य इस आत्मकथा में उपलब्ध हैं।
          विवेकानन्द जी के बचपन से लेकर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस से होते हुये यह आत्मकथा शिकागो धर्म सम्मेलन और पुन: भारत यात्रा का लंबा वर्णन है।

              विवेकानंद जी पर लिखना तो संभव नहीं है, हाँ, उनकी आत्मकथा की कुछ बाते यहाँ सांझा की जा सकती है जिससे उनके जीवन या उनकी रचना 'विवेकानंद की आत्मकथा' को समझा जा सके।

           धर्म के विषय पर इस रचना में जो पंक्तियाँ मिलती है वे वास्तव में धर्म और धर्म के नाम पर अंधविश्वास को रेखांकित करती हैं।
"तरह जब तक तुम्हारा धर्म तुम्हें ईश्वर की उपलब्धि न कराए, तब तक वह व्यर्थ है! जो लोग धर्म के नाम पर सिर्फ ग्रंथ-पाठ करते हैं, उनकी हालत उस गधे जैसी है, जिसकी पीठ पर चीनी का बोझा लदा हुआ है, लेकिन वह उसकी मिठास की खबर नहीं रखता।’’

        "धर्म सत्य है, इसकी अनुभूति की जा सकती है। हम सब जैसे यह जगत् प्रत्यक्ष कर सकते हैं, उससे ईश्वर के अनंत गुणों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष किया जा सकता है।’’


सच ही, ईश्वर में दृढ़ विश्वास और उन्हें पाने के लिए अनुरूप आग्रह को ही ‘श्रद्धा’ कहते हैं।

जीवन की कठिन परिस्थितियों से निकल कर वे एक दिन संन्यासी मार्ग पर चल दिये। संन्यासी किसे कहते हैं? -

    "मैं जिस संप्रदाय में शामिल हूँ, उसे कहते हैं—संन्यासी संप्रदाय। संन्यासी शब्द का अर्थ है—‘जिस व्यक्ति ने सम्यक॒रूप से त्याग किया हो।’ यह अति प्राचीन संप्रदाय है। ईसा के जन्म से 560 वर्ष पहले महात्मा बुद्ध भी इसी संप्रदाय में शामिल थे। वे अपने संप्रदाय के अन्यतम संस्कारक भर थे। पृथ्वी के प्राचीनतम ग्रंथ ‘वेद’ में भी आप लोगों को संन्यासी का उल्लेख मिलेगा।

गुरु किसे कहते हैं? इस रचना में 'गुरु' शब्द की जो परिभाषा दी गयी है वह पठनीय और अनुकरणीय भी है।

      भारत में ‘गुरु’ का हम क्या अर्थ लेते हैं, हमें यह भी याद रखना होगा। शिक्षक का अर्थ सिर्फ ग्रंथकीट नहीं होता। गुरु वे ही हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष की उपलब्धि की हो, जिन्होंने सत्य को साक्षात् जाना हो, किसी दूसरे से सुनकर नहीं।

       "मैं एक ऐसे इंसान को जानता था, लोग जिसे पागल कहते थे, वे उत्तर देते थे, ‘‘बंधुगण, समस्त जगत् ही तो एक पागलखाना है। कोई सांसारिक प्रेम में उन्मत्त है, कोई नाम के लिए पगलाया हुआ है, कोई यश के लिए, कोई धन-दौलत के लिए और कोई स्वर्ग-लाभ के लिए पागल है। इस विराट् पागलखाने में मैं भी एक पागल हूँ। मैं भगवान् के लिए पागल हूँ। तुम अगर रुपए-पैसों के लिए पागल हो, मैं ईश्वर के लिए पागल हूँ। तुम भी पागल, मैं भी पागल! मुझे लगता है कि अंत में मेरा पागलपन ही सबसे ज्यादा खरा है।’’

       'विवेकानंद की आत्मकथा' में बहुत से रोचक प्रसंग हैं‌‌। उन्हीं में से एक प्रसंग यहाँ उपलब्ध है।

        -एक बार मैं काशी की किसी सड़क से होकर जा रहा था। उस सड़क के एक तरफ विशाल जलाशय था और दूसरी तरफ ऊँची दीवार! जमीन पर ढेरों बंदर थे। काशी के बंदर दीर्घकाय और बहुत बार अशिष्ट होते हैं। बंदरों के दिमाग में अचानक झख चढ़ी कि वे मुझे उस राह से नहीं जाने देंगे। वे सब भयंकर चीखने-चिल्लाने लगे और मेरे पास आकर मेरे पैरों को जकड़ लिया। सभी मेरे और नजदीक आने लगे। मैंने दौड़ लगा दी। लेकिन जितना-जितना मैं दौड़ता गया, उतना ही वे सब मेरे और करीब आकर मुझे काटने-बकोटने लगे। बंदरों के पंजों से बचना असंभव हो गया। ऐसे में अचानक किसी अपरिचित ने मुझे आवाज देकर कहा, ‘‘बंदरों का मु़काबला करो।’’
     मैंने पलटकर जैसे ही उन बंदरों को घूरकर देखा, वे सब पीछे हट गए और भाग खड़े हुए। समस्त जीवन हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी होगी—जो कुछ भी भयानक है, उसका मु़काबला करना है, साहस के साथ उसे रोकना है। दुःख-कष्ट से डरकर भागने के बजाय उसका मु़काबला करना है। बंदरों की तरह वे सब भी पीछे हट जाएँगे।



         हिंदू धर्म तो यह सिखाता है कि जगत् में जितने भी प्राणी हैं, सब तुम्हारी ही आत्मा के बहुरूप मात्र हैं। 

         जब मैंने ‘अमेरिकावासी बहनो और भाइयो’ कहकर सभा को संबोधित किया तो दो मिनट तक ऐसी तालियाँ बजीं कि कान बहरे हो आए। उसके बाद मैंने बोलना शुरू किया। जब मेरा बोलना खत्म हुआ तो हृदय के आवेग के मारे अवश होकर मैं एकदम से बैठ गया।

शिकागो, सितंबर 1894
      इन दिनों मैं इस देश में सर्वत्र घूमता फिर रहा हूँ और सबकुछ देख रहा हूँ और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि समग्र पृथ्वी में एकमात्र एक ही देश है, जहाँ लोग समझते हैं कि धर्म क्या चीज है! वह देश है—भारतवर्ष! हिंदुओं में तमाम दोष-त्रुटियाँ हों, इसके बावजूद नैतिक चरित्र और आध्यात्मिकता में अन्य जाति से भी काफी ऊर्ध्व हैं। 




         "लंदन में जब मैं व्याख्यान देता था, तब एक सुपंडित मेधावी मित्र अकसर ही मुझसे बहस किया करते थे। उनके तरकश में जितने भी तीर थे, सब-के-सब मुझ पर निक्षेप करने के बाद एक दिन अचानक तार-स्वर में बोल उठे, ‘‘तो फिर आप लोगों के ऋषि-मुनि हमें इंग्लैंड में शिक्षा देने क्यों नहीं आए?’’ जवाब में मैंने कहा, ‘‘क्योंकि उस जमाने में इंग्लैंड नामक कोई जगह थी ही नहीं, जहाँ वे आते। वे क्या अरण्य में पेड़-पौधों में प्रचार करते?’’


शीर्षक- विवेकानंद की आत्मकथा
विधा- आत्मकथा
लेखक- स्वामी विवेकानंद
प्रकाशक- प्रभात पैपरबैक्स

169. नया ज्ञानोदय- पत्रिका

'नया ज्ञानोदय' का जनवरी-2019 अंक हस्तगत हुआ। यह पत्रिका साहित्य, समाज, संस्कृति और कलाओएपर केन्द्रित एक सार्थक पत्रिका है।
किसी भी पत्रिका को पढने का सुखद पहलू ये है की आप समाज और साहित्य के विभिन्न पक्षों की जानकारी मिलती है।
इस अंक में भी साहित्य और समाज के विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं।
इस अंक में 06 हिन्दी की कहानियाँ है और इसके अतिरिक्त एक-एक जापानी और बांग्ला भाषा की भी कहानी है।
मुझे कहानियों में ज्यादा दिलचस्पी है इस लिए इस अंक की कहानियाँ पहले पढी, जो ठीक ही है लेकिन प्रभाव पैदा करने वाली नहीं है।



इस अंक में मुझे रोचक लगा फणीश सिंह का यात्रा वृतांत 'यूरोप और एशिया के संगम की कहानी-आर्मीनीया'। आर्मीनीया एक छोटा सा देश है। जो रूस और इरान की सीमाओं से संबद्ध है। आर्मीनीया का संबंध भारत से भी रहा है। कोलकाता में सन् 1821 ई. में स्थापित एक आर्मीनियाई काॅलेज भी है।
स्वयं प्रकाश का आलेख 'मेरे थोड़े से फिल्मी दिन' भी रोचक संस्मरण है। एक आलेख 'रजिया सज्जाद जहीर' पर केन्द्रित है जिसके लेखक जाहिद खान है। रजिया जहीर की प्रसिद्ध कहानी 'नमक' जिसने पढी है वह पाठक समझ सकता है इनकी रचनाओं में संवेदना का क्या स्तर था। एक बहुत ही मार्मिक कहानी है नमक।
अशोक ओझा का एक आलेख है जो बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर है। आलेख का शीर्षक है 'सेंटिनल द्वीप के सांस्कृतिक अस्तित्व'। भारतीय आदिवसायों को किसी तरह ईसाई धर्मप्रचारक अपने बहकावे में ले रहे हैं, इस विषय को इंगित करता यह आलेख सार्थक है।


नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला-2019 के दौरान यह पत्रिका ज्ञानपीठ प्रकाशन की स्टाॅल से ली थी।
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पत्रिका- नया ज्ञानोदय
अंक- जनवरी-2019
प्रकाशक- भारती ज्ञानपीठ

Wednesday 23 January 2019

168. कत्ल की पहेली- संतोष पाठक

एक उलझी हुयी मर्डर मिस्ट्री
कत्ल की पहेली-संतोष पाठक, मर्डर मिस्ट्री, रोचक, पठनीय।

         संतोष पाठक एक जासूसी उपन्यासकार हैं। पहली बार इनका उपन्यास 'कत्ल की पहेली' पढने को मिला। लेखक प्रथम पंक्ति से जो प्रभाव पाठक पर पैदा करता है वह अंतिम पंक्ति तक यथावत रहता है।
            कहानी दिलचस्प और पूर्णत: मनोरंजन है। उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है। 
            उपन्यास का आरम्भ प्राइवेट जासूस विक्रांत गोखले से होता है।
  22 जनवरी 2018
 रात के दस बजने को थे।
     साहिल भगत शहर का नामी बिजनैस मैन है जो एक दिन अपनी पत्नी सोनाली भगत के कत्ल के इल्जाम में गिरफ्तार हो जाता है। पुलिस के पास गवाह और सबूत सब थे। वे तो विक्रांत गोखले को भी कहते हैं।
           ".... कत्ल का चश्मदीद गवाह है हमारे पास! आलाएकत्ल पर उसकी उंगलियों के निशान मौजूद हैं। ऊपर से रिवाल्वर उसकी खुद की मिल्कियत है। अब मैं तुम्हारा ही सवाल दोहराता हूं, तुम बोलो उम्मीद है उसके बेगुनाह निकल आने की।”
        लेकिन साहिल भगत का कहना है वहाँ कोई तीसरा शख्स भी था।
“और वो तीसरा शख्स था कौन?”
“पता कर, यही तो तेरा काम है। मुझे बेगुनाह साबित करके दिखा और अपनी मोटी फीस कमा।”(पृष्ठ-31)
    विक्रांत गोखले जब इस तीसरे शख्स की तलाश में निकलता है तो उसके सामने कत्ल दर कत्ल होते जाते हैं।
- सोनाली भगत का कत्ल किसने किया?
- साहिल भगत कत्ल के इल्जाम में कैसे फंसा?
- साहिल भगत के अनुसार वह तीसरा शख्स कौन था?
- क्या विक्रांत गोखले अपने उद्देश्य में सफल हो पाया?
         ऐसे एक नहीं अनेक सवाल हैं, जिनका उत्तर तो संतोष पाठक के उपन्यास 'कत्ल की पहेली' को पढकर ही मिल सकते हैं।
           उपन्यास एक तेज रफ्तार मर्डर मिस्ट्री है। घटनाक्रम बहुत तेज गति से चलता है, पाठक को कहीं से भी बोरियत महसूस नहीं होती।       
      उपन्यास मूलतः एक कत्ल से आरम्भ होता है और जैसे जैसे आगे बढता है वैसे वैसे इसमें अनेक रोचक प्रसंग जुड़ते चले जाते हैं। पाठक के सामने भी एक चुनौती होती है की आखिर कातिल कौन है?
                    प्राइवेट जासूस विक्रांत गोखले का किरदार दमदार है और उसके साथ वकील नीलम का किरदार अच्छा है।
           लेखक ने उपन्यास के नायक को सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक नायक 'सुधीर कोहली' के स्तर का बनाने की कोशिश की है और लेखक सफल भी रहा। जब लेखक स्वयं इतना अच्छा लिख सकता है तो पता नहीं क्यों किसी की नकल कर रहा है।  भविष्य जब भी विक्रांत गोखले की चर्चा होगी तो इस पर एक इल्जाम तय होगा की यह सुधीर कोहली की नकल है। लेखक इस में अभी सुधार कर सकता है।
           उपन्यास में सुरेन्द्र मोहन पाठक की तर्क पर महिलावर्ग का चरित्र निम्नस्तर का दिखाने की कोशिश की गयी है। क्या एक लेखक का नैतिक दायित्व नहीं बनता वह इस तरह का व्यभिचार न पैदा करे।
           दो उदाहरण देखें  
- कुछ लड़कियां बहन जी होती हैं और ताउम्र वही बनी रहना चाहती हैं।(पृष्ठ-54)
- “सुधर जा वरना किसी दिन मुझे रेप केस में जेल जाना पड़ेगा।"(पृष्ठ-)
 क्या किसी लड़की का सादापन में रहना गलत है। दूसरे उदाहरण में लेखक बिलकुल अपनी निकृष्टता का परिचय दे रहा है।
    एक जगह तो मात्र वर्ष वर्ष की लड़की का अश्लील उदाहरण देता है। सिर्फ एक बार स्वच्छ मानसिकता से सोचिएगा 15 वर्ष की एक मासूम बच्ची, स्कूल जाने वाली बच्ची के प्रति क्या दर्शा रहे हो।
       हद होती है।
निष्कर्ष
           प्रस्तुत उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है। एक उलझी हुयी मर्डर मिस्ट्री। पाठक को आदि से अंत तक जबरदस्त मनोरंजन उपलब्ध है। कहीं से पाठक को निराशा नहीं ‌मिलेगी।
             उपन्यास पठनीय है, अगर उपलब्ध हो तो पढें।
उपन्यास- कत्ल की पहेली
लेखक-    संतोष पाठक
प्रकाशक- सूरज पॉकेट बुक्स, मुंबई



Tuesday 22 January 2019

167. सत्यानाशी- प्रतिमा जायसवाल

कुछ प्रेम कथा, कुछ समाज कथा।

सत्यानाशी- प्रतिमा जायसवाल, कहानी संग्रह

          दिल्ली विश्व मेला 2019 के दौरान कुछ नये लेखकों की पुस्तकें भी खरीदी थी, जिनमें से एक प्रतिमा जायसवाल जी का कहानी संग्रह है 'सत्यानाशी'।
वेदप्रकाश कंबोज जी का जासूसी उपन्यास 'दांव खेल, पासे पलट गये', राम पुजारी जी का 'अधूरा इंसाफ...एक और दामिनी' तथा द्वय लेखक सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर' व मनीष खण्डेलवाल का उपन्यास 'रावायण- लीला आॅफ रावण' आदि उसी समय की खरीदी गयी रचनाएँ हैं।
               प्रतिमा जायसवाल, सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर' और पुजारी जी की ये प्रथम रचनाएं हैं। वेदप्रकाश कंबोज जी तो सन् 1957 ई. से निरंतर लेखन कर रहे हैं।

             'सत्यानाशी' लघु- गुरु कुल बारह कहानियों का संग्रह है, सभी कहानियाँ कथ्य के स्तर पर अलग हैं। जहां इनका कथ्य और परिवेश अलग है वहीं इनमें एक बात सामान्य है वह है इनकी मार्मिकता और संवेदना। कहानियाँ पढते वक्त ऐसा लगता है जैसे ये कहानियाँ अपने आस पास के वातावरण की हो।
संग्रह की कहानियां
1. सत्यानाशी
2. कब्रिस्तान- श्मशान
3. राजनीति
4. आशिका का आशियाना
5. दिमागी अपाहिज
6. बाजार
7. कृष्णा- अर्जुन
8. चौधराइन का इस्तीफा
9. फिर मिलेंगे
10. संस्कारी सुहागरात
11. स्टेज
12. शेरा दे दिलरे दी जन्नत


"वो मुझसे जब भी मिलती थी, मेरे साथ कुछ अच्छा ही होता था, फिर भी ना जानें सब उन्हें 'सत्यानाशी' क्यों कहते थे।" (पृष्ठ-01)
            'सत्यानाशी'  इस संग्रह की प्रथम कहानी है और इसी पर इस संग्रह का नाम भी है। कहानी भारतीय समाज में‌ प्रचलित अंधविश्वास गहरी चोट करती एक सार्थक रचना है। हम लड़कियों की प्रतिभा की परख न कर लड़कों को महत्व देते हैं। लेखिका ने इस कहानी में जो छाप छोड़ी है वह प्रशंसनीय है।
कहानी बाजार भी रिश्तों पर आधारित एक अच्छी कहानी है।
      कहानी राजनीति चाहे शीर्षक से राजनैतिक लगती हो लेकिन यह एक पारिवारिक कथा है। परिस्थितियाँ बदलते ही कैसे लोग बदलते हैं यह इसी कहानी में स्पष्ट होता है। हालांकि कहानी का अंत थोड़ा फिल्मी लगता है। लेकिन कहानी एक पंक्ति भारतीय राजनीति की निकृष्टता जाहिर करती है। "इस लड़के में दम है, कैलाश जी.... ये बेरोजगार लड़के़ दंगों और आंदोलनों में बड़े काम आते हैं।" (पृष्ठ-31)


     आशिक का आशियाना
 एक एक मार्मिक रचना है। यह कहानी है माया और रोमित की। दोनों की परिस्थितियाँ उन्हें एक ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ उनका मिलना और मिलकर विलग होना तय है। "हम दोनों बचपन से आशियाने के लिए तरसे हैं।" (पृष्ठ-66)
लेकिन यह आशियाना इतनी आसानी से मिलना भी संभव नहीं।

      'दिमागी अपाहिज' कहानी हमारे समाज में व्याप्त जातिवाद को परिभाषित करती एक अच्छी कहानी है। "हिम्मत देखों उस कमीने की...छोटी जाति का होकर बैंड-बाजे का शौक करेगा।" (पृष्ठ-67)। यह परिस्थिति बहुत बार समाचार पत्रों में पढने को मिलती है। समाज को इंगित करती एक और कहानी है 'क्रबिस्तान- श्मशान'।

        कृष्णा-अर्जुन इस संग्रह की एक प्रेम कथा है। इस संग्रह में और भी कई प्रेम कहानियां है लेकिन यह कहानी अन्य सभी कहानियों से बिलकुल अलग। यह कहानी 'थर्ड जेंडर' पर आधारित है और बहुत कुछ कहने में सक्षम है।
"वैसे अर्जुन तुझे नहीं लगता कि तुम दोनों नदी के दो किनारे हो, जो एक-दूसरे को देख तो सकते हैं लेकिन‌ कभी मिल नहीं सकते....।" (पृष्ठ-74)
       यह कृष्णा और अर्जुन की प्रेम कथा। कृष्णा एक थर्ड़-जेंडर' है जिसे अर्जुन प्यार करता है लेकिन पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियाँ उसके प्यार को मान्यता नहीं देती। "कृष्णा-अर्जुन अगर साथ मिल गए, तो महाभारत होगा और हमें योद्धा बनकर अपनों के खिलाफ युद्ध लड़ना पड़ेगा।" (पृष्ठ-75)
क्या कृष्णा-अर्जुन समाज से जीत पाये?

        'चौधराइन का इस्तीफा' एक छोटी सी रचना है। एक अपराध बोध से ग्रस्त व्यक्ति के जीवन को परिभाषित करती अच्छी कहानी है। ऐसी ही दो और छोटी-छोटी कहानियाँ है 'फिर मिलेंगे' और 'संस्कारी सुहागरात'। दोनों अलग- अलग स्वभाव की कहानियाँ है।
इस संग्रह की अधिकाश कहानियाँ प्रेम परक हैं। प्यार है और प्यार के साथ धोखा है‌। प्यार के दोनों रंग इस कहानी संग्रह में उपस्थित हैं।

             कहानी 'स्टेज' भी समय ले साथ बदलते संबंधों की कहानी। जीवन के स्टेज पर विभिन्न पर प्रकार के कलाकार मिलते हैं। लेकिन उनकी वास्तविकता क्या होती है यह हमें नहीं पता। जैसे स्टेज पर एक कलाकार विभिन्न भूमिका अदा करता है, वैसे ही वास्तविकता जीवन में भी वह कई भूमिकाएं अदा करने लग जाता है।
             संग्रह की अंतिम कहानी 'शेरा दे दिलरे दी जन्नत' एक अलग तरह की रोचक कहानी है। कहानी सिर्फ मनोरंजन है, जैसे खुशवंत सिंह की कहानियाँ होती। मनोरंजन, हल्का सा सस्पेंश और ढेर आनंद इसी कहानी में मिलेगा वह भी हैप्पी एंडिग के साथ। अब 'हैप्पी एंडिंग' किस का कहानी का या कहानी संग्रह का। यह तो भाई आप इस कहानी संग्रह को पढकर ही जान पायेंगे।
         कहानी संग्रह को पढ ही लीजिएगा 'Best Seller' जैसे तथाकथित शोर से दूर एक अच्छा व रोचक कहानी संग्रह है।

निष्कर्ष-
          इस संग्रह की सभी कहानियाँ मन को छू लेने वाली संवेदनशील कहानियाँ है। अधिकांश कहानियाँ आपकी आँखों को नम करने में सक्षम है।
लेखिका का यह प्रथम कहानी संग्रह है यह कहानी संग्रह पढकर ही पता चलता है, कुछ कहानियों में अनावश्यक विस्तार और कुछ में सुखद समापन लाने के लिए कहानियाँ एक स्तर से उपर नहीं उठ सकी। उम्मीद और विश्वास है लेखिका महोदया का आगामी कथा संग्रह एक परिपक्व कथा संग्रह होगा।
एक अच्छे प्रयास के लिए प्रतिमा जी को हार्दिक धन्यवाद।
पाठक वर्ग को यह कहानी संग्रह अच्छा लगेगा यह मेरा विश्वास है। पठनीय कहानियाँ है, आप भी पढें।
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पुस्तक- सत्यानाशी
लेखिका- प्रतिमा जायसवाल
प्रकाशक- nation press
मूल्य- 149₹
पृष्ठ- 118
संपर्क- nationpress.com

प्रतिमा जायसवाल जी के साथ।

Monday 14 January 2019

166. दांव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज

दो जासूसों की टक्कर।
दांव-खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज। जासूसी उपन्यास

नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेला  2019 के दौरान गुल्ली बाबा पब्लिकेशन द्वारा 06.01.2019 को वेदप्रकाश कंबोज जी के दो उपन्यास 'दांव- खेल' और 'पासे पलट गये' के संयुक्त संस्करण का विमोचन किया गया। विवरण यहाँ देखें- विश्व पुस्तक मेला- 2019                   
       इस अवसर पर हम मित्रगण भी उपस्थित थे। पुस्तक मेले से काफी पुस्तकें ली। यह उपन्यास तो खेर लेना ही था, क्योंकि वेदप्रकाश कांबोज जी द्वारा हम आमंत्रित भी थे।
                  
     वेदप्रकाश कांबोज का उपन्यास 'दांव खेल, पासे पलट गये' एक अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर आधारित उपन्यास है। भारत की प्रगति को सहन न करने वाले देश भारत के आगामी विकास कार्य को समझना चाहते हैं। उसकी योजना को खत्म करना चाहते हैं।
आर्यभट।
भारतीय तकनीशियनों द्वारा रूस के सहयोग से निर्मित संतति में छोड़ा गया भारत का पहला उपग्रह।
          चीनी जासूसों को भारत के इस प्रयास के बारे में काफी देर जानकारी मिली थी और जब उन्हें इस प्रयास के बारे में जानकारी मिली तो वे कुछ नहीं कर सकते थे।
(पृष्ठ-06)
          एक बार फिर चीन को एक जानकारी मिली। "एक भारतीय शिष्टमंडल मॉस्को गया हुआ है"- चीनी बाॅस ने कहा-" ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत और रूस केcomबीच फिर कोई गुप्त समझौता होने जा रहा है........अगर ऐसा है तो हमें यह मालूम होना चाहिए कि उसकी योजना क्या है।"(पृष्ठ-08)
               इस बार भारत और रूस की जो भी योजना थी उसकी डील इरान में होनी थी। इस डील के भारतीय जासूसी विजय को नियुक्त किया गया। वहीं चीन इस डील की तह तक पहुचना चाहता था, चीन ने अपना जासूस हुचांग मैदान में उतारा।
       दोनों तरफ खतरनाक, धुरंधर और चालबाज जासूस हैं। दोनों ही एक दूसरे की शक्ति को जानते हैं। दोनों चाल पर चाल चलते हैं। दोनों को पता है जरा सी गलती पासे पलट कर रख देगी।
हुचांग दाँव खेलना चाहता था। लेकिन जब तक दुश्मन की शक्ति के बारे में मालूम न हो तब तक दाँव खेलना भी मूर्खता थी। (पृष्ठ-57)
               हुचांग,  विजय की शक्ति को पहचानता है। इसलिए उसने विजय को फंसाने के लिए चाल चल दी। लेकिन विजय भी किसी से कम न था। उसने भी चाल पर चाल चल दी। ऐसी चाल जो हुचांग के लिए भी खतरा बन गयी।
  हुचांग को लगा जैसे उसने जो जाल विजय को फँसाने के लिए तैयार किया था, उसमें वह स्वयं ही  उलझकर रह गया था। (पृष्ठ-58)
          लेकिन कम हुचांग भी न था, स्वयं विजय भी उसका लोहा मान गया। इसलिए तो विजय को कहना पड़ा तो   "....मैंने वास्तव में यह नहीं सोचा था कि यह आदमी इतना भारी निकलेगा कि हम सभी के पर काटके रख देगा।(पृष्ठ-193)
             हुचांग विजय के अकेले के बस का रोग न था‌ इसलिए विजय ने दो और साथी साथ लिए। एक तातारी और दूसरा कबाड़ी। दोनों एकदम जाहिल और मूर्ख से, बस नजर आते हैं। पर हैं दोनों रोचक आदमी। नमूना देख लीजिएगा-
"जी हाँ मैं शादी-शुदा कुँवारा हूँ।" तातारी बोला "और शादी-शुदा कुँवारा वैसे भी कुँवारे से अधिक बेचारा होता है।" (पृष्ठ-105)
 
- क्या सौदा था रूस और भारत के बीच?
- क्या हुचांग इस डील की जानकारी ले पाया?
- कबाड़ी और तातारी की वास्तविकता क्या थी?
- विजय और हुचांग की टक्कर का क्या परिणाम रहा ?

     इन प्रश्नों के उत्तर तो प्रस्तुत उपन्यास को पढकर ही मिल सकते हैं।
          उपन्यास का घटनाक्रम दो जासूस विजय और हुचांग की टक्कर और उनकी चालकियों पर आधारित हैं। दोनों जासूस एक दूसरे को जैसे टक्कर देते हैं, कैसे सफलता और असफलता से जूझते हैं।
-           
            
     उपन्यास का विस्तार बहुत ज्यादा है।‌ भारत और रूस का सौदा इरान में होना तय है और चीनी जासूस उनके पीछे हैं। कथानक इरान से निकल कर अफगानिस्तान और तुर्की तक जा पहुंचता है। कहां अफगानिस्तान, कहाँ तेहरान और कहाँ तबरिज। (पृष्ठ-118)
        उपन्यास का आरम्भ एक अच्छे कथानक से होता है लेकिन उपन्यास जैसे-जैसे आगे बढता है वैसे-वैसे ही कथानक कमजोर और धीमा होता जाता है। नायक से हटकर सह नायक कबाड़ी और तातारी पर आश्रित हो जाता है।
          उपन्यास में कोई रोचक प्रसंग नहीं जो कमजोर कथानक को सहारा से सके। अनावश्यक विस्तार भी कथानक का और नीरस बना देता है जिस पर तातारी और कबाड़ी के नीरस प्रसंग उपन्यास को आगे बढने ही नहीं देते।
             
निष्कर्ष-  
              यह उपन्यास वेदप्रकाश जी के दो उपन्यास 'दांव खेल' और 'पासे पलट गये' का संयुक्त संस्करण है। उपन्यास मूलतः एक छोटे से कथानक पर आधारित है, जिसे अनावश्यक विस्तार देकर खींचा गया है। आदि से अंत तक कहीं कोई रोचकता नहीं है।
           उपन्यास मनोरंजन के दृष्टि से पढा जा सकता है।
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उपन्यास-  दांव खेल, पासे पलट गये
लेखक-    वेदप्रकाश कांबोज
प्रकाशक- गुल्ली बाबा पब्लिकेशन
पृष्ठ-         215
मूल्य-       199₹
ISBN-      978-93-88149-52-2
Site-        gullybaba.com
लेखक-      vedprajashkamboj39@gmail.com
वेदप्रकाश कांबोज जी के साथ। उपन्यास विमोचन पर
उपन्यास का पुराना संस्करण
         

Saturday 12 January 2019

165. रावायण- सिद्धार्थ अरोड़ा, मनीष खण्डेलवाल

अब हर घर में रावण है।

रावायण- लीला आॅफ रावण, सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर', मनीष खण्डेलवाल

                दिल्ली पुस्तक मेला-2019 के दौरान हमें भी अवसर मिला इस मेले में भ्रमण का। दिनांक 06.01.2019 को वेदप्रकाश कंबोज जी और राम पुजारी जी के उपन्यासों का 'गुल्लीबाबा पब्लिकेशन' से विमोचन था। इस कार्यक्रम में हम भी शामिल थे।
   ‌            सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर' और मनीष खण्डेलवाल कृत 'रावायण- लीला आॅफ रावण' की चर्चा फेसबुक पर काफी दिनों से चल रही थी। इस अवसर पर 'राॅक पिजन' की स्टाॅल पर 'सहर जी' भी मिलना भी हो गया और उपन्यास भी खरीद लिया।

     
       'कलयुग बैठा मार कुण्डली जाऊं तो मैं कहां जाऊं,
       अब हर घर में रावण बैठा, इतने राम कहां से लाऊं'

               यह एक प्रसिद्ध भक्ति गीत की पंक्तियाँ हैं। जो हमारे समाज की वास्तविकता का चित्रण करती नजर आती हैं। आज हमारे मन में, घर में, समाज में अनेक रावण पैदा हो गये हैं। हमें वास्तविकता का पता है लेकिन हम उस वास्तविकता से मुँह चुराते नजर आते हैं। प्रस्तुत उपन्यास उसी वास्तविकता का चित्रण करता नजर आता है। हमारे दोहरे व्यक्तित्व का पर्दाफाश करता है।
                     अगर आपने हिन्दी के प्रसिद्ध रचनाकार मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' नाटक पढा है तो आपको याद होगा उसमें एक परिवार का बिखराव दिखाया गया है। उस परिवार के पीछे आर्थिक कारण हैं। वहीं 'रावायण' उपन्यास का परिवार एक बिजनेस मैन का परिवार है।

कहानी चाहे एक परिवार की नजर आती है लेकिन यह सत्य पूरे समाज का है।
                     हम आर्थिक दृष्टि से इतने समृद्ध होते जा रहे हैं नैतिक दृष्टि से हमारा उतना ही पतन हो रहा है।
                     यह उपन्यास आरम्भ होता है कथानायक से। "मेरा घर कुछ मामलों में बहुत रोचक था। कब, कौन किस दिन आ धमके कुछ पता नहीं चलता था.....मैं बचपन से ही सोचता आ रहा हूँ की हमारे घर को धर्मशाला क्यों नहीं कहते थे।" (पृष्ठ-08)
                     खैर इस धर्मशाला में मेरे सिवा मेरे पापा, मेरी छोटी बहन और मेरे तीन और भाई भी रहते थे....इसके बाद घर की डाॅन मेरी माँ। (पृष्ठ-08)
                     कहानी का नायक है जीतू। जिसे उसके बदतमीज व्यवहार के कारण घर से निष्कासित किया जाता है। वह कहता है-  "मैं बदतमीज हूँ इसलिए बाहर हूँ। बदचलन होता तो घर के अंदर होता।" (पृष्ठ-72)      
                     लेकिन जीतू स्वयं को पहचाना भी है। वह स्वीकार करता है अपनी कमियों, जिसे हमें छुपाना चाहते हैं।
"है मुझमें भी....इसलिए सबको बोला, पर मुझे पता है कि मेरी कमी क्या है, बाकी इसी मुगालते में जी रहें हैं कि उनमें कोई कमी ही नहीं।" (पृष्ठ-30)
                    
                     उर्मी की परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी होती हैं की वह घर से बाहर जाने को मजबूर हो जाती है। यहीं से दोनों शमशेर उर्फ रावण के संपर्क में आते हैं। रावण के बारे में लोगों की एक ही राय है।
"अरे वो कमीना जिसको उसकी बीवी छोड़कर चली गई थी।" (पृष्ठ-31)
                     लोगों की उसके प्रति धारणा भी यही होती है की इसका व्यक्तित्व रावण की तरह नाकारात्मक है।
                     मूलतः यह कथा हमारे आंतरिक और बाहरी व्यवहार को रेखांकित करती है। उपन्यास अंतिम चरण में इस तथ्य को बखूबी परिभाषित कर देती है की जो बाहर से अच्छा दिखता है वह जरूरी नहीं की अंदर से अच्छा हो। कुछ लोगों का बाहरी व्यक्तित्व अच्छा नहीं होता लेकिन अंदर से बहुत अच्छे होते हैं।
                     उपन्यास में उन लोगों को बेनकाब किया है जिबके हृदय में रावण रूपी विकृतियाँ विकसित हैं
                    
- कौन रावण है और कौन नहीं ?
- जीतू और उर्मी को घर से क्यों निकाला  ?
- रावण उर्फ शमशेर को लोग गलत क्यों कहते थे ?
- उर्मी और जीतू का भविष्य क्या रहा ?

इन प्रश्नों के उत्तर तो 'रावायण' उपन्यास पढने पर ही मिलेंगे।

                   इन दिनों 'नई वाली हिन्दी' नामक फण्डा खूब चल रहा है। कुछ लेखक हो रोमन को ही हिन्दी समझने लगे हैं। अगर आप 'रावायण' उपन्यास पढते हैं तो आपको इसमें नयी वाली हिन्दी का फण्डा नहीं मिलेगा। उपन्यास हिन्दी में होकर नयी वाली हिन्दी फण्डे का नकारती है। दम कहानी में होना चाहिए 'किसी फण्डे' में नहीं।
      भाषा शैली के स्तर पर उपन्यास अच्छी है। भाषा शैली सहज, सरल और प्रवाहमयी है। कहीं कोई क्लिष्ट शब्दावली नहीं है।
    रोचकता का एक उदाहरण देखिएगा  
कपि छ: फिट से निकलते कद का हाथी-ब्राण्ड बालक था। (पृष्ठ-94)

     उपन्यास के कुछ संवाद प्रभावशाली हैं।
'मैं बदतमीज हूँ इसलिए बाहर हूँ। बदचलन होता तो घर के अंदर होता।" (पृष्ठ-72)
"अपने घर की छत कभी टपकती नहीं जीतू, और टपके भी तो सुकून होता है...।" (पृष्ठ-85)
"तजुर्बा महंगी शै होता है, क ई कीमती घड़ियाँ चुकाने पर ही मिलता है।" (पृष्ठ-88)
"बात खत्म करने और बात टालने में फर्क होता है।" (पृष्ठ-89)

              उपन्यास में कहीं-कहीं हल्की सी कमियां दृष्टिगत होती हैं। एक अभाव सा महसूस होता है। कुछ एक शाब्दिक गलतियाँ भी है। लेकिन ऐसी कोई कमी नहीं है जो कथा के महत्व को प्रभावित करती हो।
          संपादन की दृष्टि से उपन्यास का प्रत्येक परिच्छेद थोड़ा नीरस सा लगता है। अगर परिच्छेद थोड़ा आगे पीछे होता तो ज्यादा अच्छा लगता।
          कुछ शाब्दिक गलतियाँ हैं, जैसे 'सब्जी' को 'सवजी' (पृष्ठ-22), 'शरारत' को 'सरारत'(पृष्ठ-22) 'अनेक' शब्द को 'अनेकों' लिखा है(पृष्ठ-77), 'ढीठ' को जगह-जगह 'ढीट' (पृष्ठ-111, )लिखा है, 'समृद्धि' को 'सम्रद्धि' (पृष्ठ-78), 'नुकसान' को 'नुक्सान'(पृष्ठ-83) लिखा है।
          ये सब सामान्य टंकण गलतियाँ है इससे कथा पर कहीं कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

   
निष्कर्ष-
            लघु कलेवर का यह उपन्यास हमारे समाज में व्याप्त दोहरे आचरण की भूमिका पर गहरा कटाक्ष करता है। हमारे अंदर के रावण का अच्छा चित्रण करता है। यह भ्रांति भी दूर करता है की हमें किसी के बाहरी व्यक्तित्व को उसकी वास्तविकता न समझें।
            उपन्यास रोचक और पठनीय है। मनोरंजन की दृष्टि से पाठक को कहीं कोई निराशा नहीं होगी।

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उपन्यास- रावायण- लीला आॅफ रावण
लेखक द्वय- सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर', मनीष खण्डेलवाल
ISBN- 978-93-87507-05-0
प्रकाशक- राॅक पिजन
पृष्ठ-142
मूल्य- 135₹
                
संपर्क-
www.rockpigeonpublication.com   

164. लल्लू- वेदप्रकाश शर्मा

एक खतरनाक साजिश...

लल्लू- वेदप्रकाश शर्मा, जासूसी उपन्यास,  रोचक, पठनीय।

               वेदप्रकाश शर्मा जी का एक बहुचर्चित उपन्यास है 'लल्लू'। जब इस उपन्यास का शीर्षक घोषित हुआ था तो पाठकवर्ग में यह चर्चा थी की यह क्या नाम हुआ?. सबसे अलग नाम था 'लल्लू'। लेकिन उपन्यास ने जो सफलता हासिल की वह स्वयं में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया।
तहलका मचा देने वाला वह उपन्यास जिसने हिन्दी उपन्यास मार्केट को हिलाकर रख दिया।
           कई वर्ष पूर्व यह उपन्यास पढा था एक बार फिर इस उपन्यास को पढने की इच्छा जागृत हुयी।

नीता उनकी एकमात्र पुत्री। विनाश नामक एक युवक एक दिन मिस्टर खन्ना की जान बचाकर उनके घर का एक सदस्य बन जाता है। लेकिन मिस्टर खन्ना की एकमात्र पुत्री सुनीता इस शख्स को बिलकुल भी पसंद नहीं करती और वह उसे लल्लू कह कर बुलाती है।
यह भी संयोग था की मिस्टर खन्ना मरते समय एक अजीब सी वसीयत कर गये। वसीयत अजीब इसलिए थी की सुनीता मिस्टर खन्ना की संपत्ति की मालकिन तभी बन सक सकती है जब वह लल्लू से शादी करेगी।
सुनीता तो अमित से प्यार करती थी। अमित जो हद से आगे जाकर विनाश को बोलता है- "अब मैं यही रहूंगा लल्लूराम। तुम्हारी बीवी के बेडरूम में सोया करूंगा। चाहो तो इसे चरित्रहीन सिद्ध करके तलाक ले सकते हो।" (पृष्ठ-65)
      एक दिन लल्लू को सुनीता और अमित के प्यार की भेंट चढ जाता है। लेकिन यह सब इंस्पेक्टर केकड़ा के होते हुए इतना आसान तो न था। केकड़ा एक खतरनाक इंस्पेक्टर था। उसके जिस्म पर पुलिस इंस्पेक्टर की वर्दी थी। बेहद पतला-दुबला था वह। लम्बा चेहरा, बड़े-बडे़ कान, तोते जैसा नाक और बाहर को उबली हुयी आँखें, पतले होठों के ऊपर मौजूद दो बैठी हुयी मक्खियों जैसी मूँछे उसे कुछ ज्यादा ही हास्यास्पद बनाये दे रही थी। (पृष्ठ-11)
       केकड़ा स्वयं को इस हद तक समझदार मानता है की वो कहता है- "क्या तुमने अपनी पिछली लाइफ में ऐसा पुलसिया देखा है जो मर्डर होने से पहले मर्डर स्पाॅट का निरीक्षण करने गया हो?" (पृष्ठ-71)

- मिस्टर खन्ना की हत्या कौन करना चाहता है?
- मिस्टर खन्ना इतनी अजबी वसीयत क्यों करके गये?
- अमित और सुनीता के प्रेम प्रकरण से विनाश के दिल पर क्या बीती?
- इस प्रेम कहानी का परिणाम क्या निकला?
- विमला कौन थी? विनाश उससे क्यों डरता था?
- केकड़ा जैसा खतरनाक इंस्पेक्टर क्या रंग दिखाता है?
- क्या केकड़ा वक्त से पहले सब जान जाता है या फिर वह भी कोई चाल चल रहा है?
           ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्नों के उत्तर तो वेदप्रकाश शर्मा के इस बहुचर्चित उपन्यास 'लल्लू' को पढकर ही मिल सकते हैं।

      उपन्यास के सभी पात्र एक से बढकर एक हैं। विनाश उर्फ लल्लू तो स्वयं में एक अजूबा है।‌ एक तरफ तो उसका नाम 'विनाश' ही खतरनाक है और दूसरी तरफ उसे लोग 'लल्लू' कहते हैं।
क्या वह वास्तव में 'लल्लू' (मूर्ख) था या वह विनाश (विनाशक) था।
केकड़ा तो पूरे उपन्यास में सभी पर भारी पड़ता है। वह भी ऐसा कर्मशील और रिश्वतखोर भी "...तो जनाब, हम भी जो खाते हैं मेहनत का खाते हैं, दिमाग का खाते हैं, भले ही दुनिया उसे रिश्वत कहती फिरे।" (पृष्ठ-119)
        लेकिन कम इंस्पेक्टर अविनाश भी नहीं है। वह तो सभी पात्रों को बुरी तरह से हिलाकर रख देता है।
उपन्यास के अन्य पात्र भी दमदार हैं।

     प्रस्तुत उपन्यास बहुत दिलचस्प है। वेदप्रकाश शर्मा को 'सस्पेंश का जादूगर या बादशाह' कहा जाता है। उस उपन्यास को पढकर पता चलता है की यह उपाधि किसनी सत्य है।
         उपन्यास आरम्भ के कुछ पृष्ठों पर अपनी पकड़ इतनी मजबूत बना लेता है की पाठक उस पकड़ से आजाद होना भी नहीं चाहता। उपन्यास का एक -एक पात्र स्वयं में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाने सक्षम है। जब भी नया पात्र आता है तो वह एक रहस्य ही बनता है। चाहे वह विमला हो या विनाश।
     इस प्रसिद्ध उपन्यास पर फिल्म नायक अक्षय कुमार की सुपर हिट फिल्म 'सबसे बडा़ खिलाड़ी' भी बन चुकी है। यह इस उपन्यास की प्रसिद्ध का एक उदाहरण है। उपन्यास केे विषय में ज्यादा चर्चा करने का मतलब है कहानी का वास्तविक रस खत्म करना। यह उपन्यास अपने प्रकाशन दिवस से लेकर आज तक चर्चा में है। अगर आपने आज तक यह उपन्यास नहीं पढा तो एक बार अवश्य पढें। 

निष्कर्ष-
प्रस्तुत उपन्यास एक बहुत ही पेचीदा उपन्यास है। पृष्ठ दर पृष्ठ रहस्य से लिपटा यह उपन्यास पाठक को रोमांच की एक नयी दुनियां में ले जायेगा।  उपन्यास में मनोरंजन के सभी तत्व समान मात्रा में उपलब्ध हैं।     

 अगर आप रोचक, मर्डर मिस्ट्री जैसे उपन्यास पढने के इच्छुक हो तो यह उपन्यास अवश्य पढें।

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उपन्यास- लल्लू
लेखक- वेदप्रकाश शर्मा
प्रकाशक- तुलसी पैपर बैक्स, मेरठ
पृष्ठ- 288
मूल्य- 80₹

Friday 4 January 2019

163. काले कुएं- अजीत कौर

 मन को छू लेने वाली संवेदनशील कहानियां।

      'काले कुएं' अजीत कौर का कहानी संग्रह है। हालांकि इससे पहले अजीत कौर जी की कोई भी रचना नहीं पढी। एक बार विकास नैनवाल जी के ब्लॉग पर अजीत कौर जी के बारे में पढा तो इनकी रचनाएँ पढने की इच्छा जगी।
           मेरे पास अजीत कौर जी का कहानी संग्रह 'काले कुएं' उपलब्ध था, समय मिलते ही पढना आरम्भ किया तो एक के बाद एक रचना में उतरता चला गया। शब्द और भाव का एक ऐसा प्रवाह है जिसमें पाठक बहता चला जाता है।
इस संग्रह में कुल 09 कहानियाँ है। सभी कहानियाँ बेहतरीन और पठनीय है।  


1. मौत अलीबाबा की
2. ना मारो
3. सूरज, चिड़ियाँ और रब्ब
4. काले कुएं
5. आक के फूल
6. बाजीगरनी

7.सन्नाटे की चीख

8. शहर या घोंघा
9. चौरासी का नवम्बर

       प्रथम कहानी मौत अलीबाबा की हमारे सिस्टम या समाजें व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करती एक सशक्त कहानी है। इस भ्रष्टाचार के अंदर भी कुल लोगों का जमीर जिंदा है। यह कहानी वर्तमान भ्रष्टाचार की तह को खोलती नजर आती है।

         कहानी 'चौरासी का नवम्बर' जो इस संग्रह की अंतिम कहानी है लेकिन मुझे सर्वाधिक इसी कहानी ने प्रभावित किया है। कहानी का आधार दिल्ली में हुए सन् 1984 के दंगे है। उन दंगों से उपजी पीड़ा को इस कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। कहानी पढने वक्त उस समय को लेखिका ने स्वयं के माध्यम से जीवंत कर दिया है। एक-एक दृश्य और घटना सजीव लगती है।
         नवंबर का महीना था। नवम्बर के शुरु के दिन थे वे। चौरासी का नवम्बर। (पृष्ठ-135)
         इस काले अतीत को जिसने भोगा है, वही इसे अच्छी तरह से समझ सकता है। लेखिका ने स्वयं इस यातना को सहा है इसलिए इनके शब्दों में चौरासी की वास्तविकता अभिव्यक्त हुयी है।
         टी.वी. पर, रेडियों पर बस मरने वाली मलिका के शब्द बार-बार बजाये जा रहे थे "मेरे खून की एक-एक बूँद..." खून-खून-खून....।(पृष्ठ-136)
           खून की ये बूंद यही नहीं बिखरी बल्कि यह पंजाब में भी बिखरी। या यूं कहें पंजाब में बिखरी खून की बूंदों का दिल्ली से गहरा संबंध है। कहानी 'ना मारो' की पृष्ठभूमि में चाहे पंजाब के काले अतीत का आतंकवाद रहा हो लेकिन कहानी में मानवीय संवेदना जिंदा है।
           वे कहते थे, मेरे भाई की हत्या आतंकवादियों ने की थी। मैं नहीं जानती। उसकी किसी से क्या दुश्मनी थी? पर हत्या तो कोई भी कर सकता  था। आतंकवादी भी और कोई दूसरा भी। (पृष्ठ-18)
            एक बहन का भाई चला गया, एक माँ का एकमात्र पुत्र चला गया।  लेकिन वह पीछे एक दर्द छोड़ गया। यह दर्द चाहे एक बहन का हो या माँ का लेकिन कहानी में उतर कर यह दर्द सभी का हो गया। माँ को अब अपने पुत्र का ही नहीं हर एक उस युवक का दर्द होता है जो 'मार दिये जाते हैं।'
               ये दोनों कहानियाँ बहुत ही संवेदनशील हैं।
   'सूरज, चिड़िया और रब्ब' मनुष्य के मनुष्य होने की कथा है। सच्चा मनुष्य वही है जो सभी के लिए जीता है। उसके लिए तो प्रत्येक जीव में ईश्वर का वास है।
   'काले कुएं' एक प्रतीकात्मक कहानी है। इस कहानी का शिल्प पक्ष बहुत मजबूत है। शब्दों का जो प्रयोग इस कहानी में लेखिका ने किया है वह प्रशंसनीय है।  चाहे कहानी में संवाद या कोई तय कथा नहीं है, मात्र प्रतीक हैं और भावनाएं हैं लेकिन प्रस्तुतीकरण बेहतरीन है।
   'आक के फूल' कहानी एक ऐसी औरत की कहानी है जिसके जीवन में अकेलापन है। निर्मल वर्मा की एक कहानी है 'परिंदे' जो अकेलेपन और विषाद की कथा है। 'आक के फूल' भी एक उसी तरह के भावों से लबरेज कथा है।
   यह कहानी है मनसुखानी और राज नामक दो स्त्रियों की। जो एक साथ एक कमरे में रहती है। जहां मनसुखानी के जीवन में अकेलापन और विषाद है वहीं राज के जीवन में आने वाली खुशियाँ उससे सहन नहीं होती।
  
कहानी 'शहर या घोंघा' अपनी जड़ों को तलाश करती एक स्त्री की कथा है। हम चाहे वक्त मे साथ कितना भी बदल जाये  लेकिन अपने अतीत विस्मृत करना मुश्किल है।

                'सन्नाटे की चीख' कहानी वर्तमान समाज का नग्न चित्रण है। अपने परिवार से ज्यादा जब व्यक्ति अपनी सफलता को महत्व देने लग जाता है तो उसका क्या हश्र होता है। यही इस कहानी में दर्शाया गया। कहानी की नायिका मिसेज मल्होत्रा, वही मिसेज मल्होत्रा जो कहानी 'आक के फूल' में हाॅस्टल वार्डन है। मिसेज मल्होत्रा हाॅस्टल वार्डन होने के साथ-साथ एक लेखिका भी है। जिसे सफलता नहीं मिली। इसी सफलता की प्राप्ति के लिए वह अपना परिवार तक तबाह कर लेती है।

        इस संग्रह की कहानियों की कई विशेषताएं हैं। प्रत्येक कहानी के पीछे एक और कहानी है वह कहानी मुख्य कहानी के आयाम को विस्तार देती नजर आती है। कहानी 'आक के फूल' की मनसुखानी के जीवन में कुछ ऐसा हुआ जिसके कारण वह पुरुष वर्ग से नफ़रत करती नजर आती है।
        कई कहानियाँ एक दूसरे से संबंध रखती हैं। कहानियों के पात्र चाहे एक दूसरी कहानी में पहुंच गये लेकिन कहानियों का भाव अलग-अलग है।
इस कहानी संग्रह के संवाद शैली की बात करें तो यह एक आकर्षण पैदा करती है, स्वयं को अपने में समाहित करती है।

           यह पुस्तक मुझे दरियागंज (दिल्ली) में प्रति रविवार को लगने वाले पुस्तक बाजार से मिली थी। यह एक बेहतरीन कहानी संग्रह है जो बहुत ही मार्मिक है।
      अगर आप कहानियाँ पढने में रुचि रखते हैं तो यह कहानी संग्रह अवश्य पढें।

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पुस्तक- काले कुएं (कहानी संग्रह)
लेखिका- अजीत कौर
प्रकाशक- किताबघर प्रकाशन
पृष्ठ-147
मूल्य- 120₹      

162. मैं जल्लाद हूँ- एन. सफी

मेजर राजन और राजेश का खतरनाक सफर....

मैं जल्लाद हूँ- एन. सफी, जासूसी उपन्यास, एक्श‌न, रोचक

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     एन. सफी का कोई भी उपन्यास मैंने पहली बार पढा है। उस उपन्यास से एन. सफी के विषय में कहीं से कोई भी जानकारी तो उपलब्ध नहीं होती। बस फेसबुक से उनके कुछ उपन्यासों की जानकारी उपलब्ध होती है। वह जानकारी आप यहाँ देख सकते हैं- एन. सफी, साहित्य देश

              प्रस्तुत उपन्यास 'मैं जल्लाद हूँ' एन. सफी का एक एक्शन प्रधान उपन्यास है। जो आदि से अंत तक एक्शन से भरपूर है, उपन्यास में सिर्फ एक्शन ही नहीं रोमांच भी भरपूर है। 

          एक विशाल जहाज तेजी से आगे बढ रहा था। चारों ओर खिली हुयी चांदनी का साम्राज्य फैला हुआ था। उस चांदनी रात में सभी लोग अपनी-अपनी मस्ती में खोये वातावरण का आनंद ले रहे थे। (प्रथम पृष्ठ से) 

            यहाँ से उपन्यास का आरम्भ होता है। इस जहाज में मेजर राजन और राजेश भी सफर कर रहे हैं। इस समय मेजर राजन इंग्लैंड अपने पिता की अथाह संपति की वसीयतनामे के सिलसिले में यात्रा कर रहे थे। (पृष्ठ-04)

            उपन्यास में कुछ ट्विस्ट आते हैं, एक ट्विस्ट खत्म होता है और दूसरा आरम्भ हो जाता है। उपन्यास अंत में स्वयं एक ट्विस्ट बन कर पाठक को सोचने को मजबूर करते हुए खत्म हो जाता है।

            उपन्यास को कुल तीन भागों में बांटा जा सकता है।

प्रथम- तूफान और जहान का पतन

             अगर उपन्यास को तीन भागों में विभक्त करें तो उपन्यास का आरम्भ जलयान से ही होता है। कुछ पृष्ठों के पश्चात ही जलयान जलमग्न हो जाता है। यहीं से राजन और राजेश अलग- अलग हो जाते हैं।

             कुछ क्षण पश्चात वहां जहाज का नामोनिशान न था। अथाह जल राशि चारों तरफ थी। विशाल सागर अपना सीना गर्व से फैलाये हुये था। (पृष्ठ-11) 

द्वितीय-  कैप्टन माइकल का जहाज

              'आप निश्चित रहें आप इस समय एक मछली मार विशेष जलयान पर यात्रा कर रहे हैं।'(पृष्ठ-12)

              प्रथम जहाज के जलमग्न होने के बाद राजेश किसी तरह बच कर, सात दिन बेहोश रहने के बाद, होश में आता है तो स्वयं को एक और जहाज में पाता है। 

              उपन्यास का यह भाग काफी रोचक है। इसमें खतरनाक विलेन और कुछ नये साथी भी हैं और एक दिन उसे राजन भी मिल जाता है। 

              कैप्टन माइकल जो एक इस जहाज का मालिक और खतरनाक स्मगलर भी है। जो लोगों को गुलाम बनाकर अपने जहाज पर काम करवाता है। राजेश और राजन को भी वह गुलाम बनाना चाहता है।

              उपन्यास का यह भाग गजब और रोचक है। कैप्टन माइकल और राजेश का द्वंद भी चलता है और अन्य जलदस्यु के साथ मुकाबला करने पर दोनों एक साथ भी हैं।

              एक दिन यह जहाज भी खत्म हो जाता है। जहाज एक भयंकर आवाज के साथ समुद्र में जल समाधि बन गया था। (पृष्ठ-70)

              किसी तरह राजन और राजेश बच जाते हैं। लेकिन एक नयी मुसीबत में फंस जाते हैं।         

तृतीय- राजन और राजेश महारानी महामाया की कैद में।

            महारानी महामाया एक अंतरराष्ट्रीय अपराधी है। उसकी राजेश और राजन से पहले भी भिड़ंत हो चुकी है। 

            समुद्र से किसी तरह बच कर राजन और राजेश निकल आते हैं लेकिन महारानी महामाया के जाल में फंस जाते हैं।

- जहाज पानी में कैसे डूब गये?

- राजन और राजेश अलग-अलग कैसे हुए?

- समुद्र में राजन और राकेश कैसे मिले?

- महामाया की राजन और राजेश से क्या दुश्मनी थी?

- राजन और राजेश भारत कैसे पहुंचे?

          राजन और राजेश का यह खतरनाक सफर कैसा रहा? यह जानने के लिए इस उपन्यास को पढना पढेगा।

    उपन्यास की कहानी में कहीं तारतम्य ‌नहीं है। ऐसा कहां जा सकता है राजेश और राज‌न के सफर के दौरान कुछ खतरनाक घटनाएं घटी और उन्हीं घटनाओं को यह उपन्यास रोचक तरीके से प्रस्तुत करता है।

    लेखक की विशेषता यह रही की उपन्यास को दिलचस्प बना कर रखा है। उपन्यास में घटनाओं का प्रवाह तीव्र है जो कहीं बोरियत महसूस नहीं होने देता।

उपन्यास का शीर्षक 'मैं जल्लाद हूँ' कहीं कुछ स्पष्ट नहीं होता। पता नहीं कौन जल्लाद है।

निष्कर्ष-

            एन. सफी का प्रस्तुत उपन्यास 'मैं जल्लाद हूँ' एक एक्शन उपन्यास है। जिसमें घटनाएं तो बहुत है लेकिन कोई कहानी नहीं है। अगर यात्रा को एक कहानी मानकर चले तो भी उसमें कुछ बातें तर्कसंगत नहीं है।

            मनोरंजन की दृष्टि से यह उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।

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उपन्यास-  मैं जल्लाद हूँ

लेखक -   एन. सफी

प्रकाशक- कंचन पॉकेट बुक्स- मेरठ

प्रकाशन- ....

पृष्ठ- 138

मूल्य-

161. मेरे प्रिय- इरा टाक

प्रिय को समर्पित कविताएं

    इरा टाक का नाम पहली बार कब सुना यह तो  याद नहीं लेकिन इतना याद जरूर है की इरा जी का पहली बार नाम 'राजस्थान पत्रिका' समाचार पत्र में ही पढा था।
    इरा जी अच्छी लेखिका के साथ-साथ एक अच्छे चित्रकार भी हैं। चित्र और कविता दोनों ही अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अच्छा माध्यम है जिसमें इरा टाक जी सफल रहे हैं।

   'मेरे प्रिय' कविता संग्रह में छोटी -छोटी कविताओं का संग्रह है, लगभग पांच से दस पंक्तियों की ये कविताएं मर्मस्पर्शी हैं।  सभी कविताएँ 'मेरे प्रिय' को संबोधित है।
                    एक कविता कहीं
                    गुम हो गी।
                    सम्भाल न सके तुम
                    मेरे प्रिय।

  इस 'प्रिय' को समर्पित इन कविताओं में आपसी प्रेम, समर्पण,  उपालंभ और नाराजगी है। लेकिन उस नाराजगी में भी प्रेम है जो इस रिश्ते को और भी ज्यादा परिपक्व करता है।

               कई बार लगता है भूला दूँ
                              मैं तुम्हें
               जैसे हम कभी मिले ही नहीं हों
                       पर ऐसा कर नहीं पाती
               मेरी हर खुशी और दुख
                       की वजह बन गए हो
                                मेरे प्रिय।

                               
              
  पुस्तक की भूमिका में प्रभात रंजन लिखते हैं- 'इरा टाक की कविताओं में 'मैं' से 'तुम' तक की यात्रा है। मैं से तुम तक की इस यात्रा के बीच निजी और सार्वजनिक का वह द्वंद्व है जो कविता का सबसे बड़ा निकष है।'

      इस संग्रह की कविताएं चाहें आकर में छोटी हैं लेकिन भावना के स्तर पर इनका विस्तार बहुत है। कविताएं अपने परिवेश की सी महसूस होती हैं। जिनके साथ सहज ही संबंध स्थापित हो जाता है।

लेखिका संपर्क-
ब्लॉग- www.eratak.blogspot.in
FB पेज- www.fb.com/merepriye

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पुस्तक- मेरे प्रिय (कविता संग्रह)
लेखिका- इरा टाक
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन
ISBN- 978-93-83878-30-7
पृष्ठ    - 104
मूल्य  - 70₹  

आयुष्मान - आनंद चौधरी

अमर होने की चाह.... आयुष्मान- आनंद चौधरी ये अजीबोगरीब दास्तान मोर्चरी के पोस्टमार्टम रूम में पोस्टमार्टम टेबल पर रखी गई एक लाश से शुरू होती...