Friday, 24 January 2025

624. डाक बाबू का पार्सल- द्रोणवीर कोहली

संवेदना और रोमांच की प्यारी सी कहानी
डाक बाबू का पार्सल- द्रोणवीर कोहली
नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा 'नेहरू बाल पुस्तकालय' के अंतर्गत बच्चों के लिए बाल साहित्य का प्रकाशन किया जाता है और इसी में सन् 1994 में एक किताब प्रकाशित हुई 'डाक बाबू पार्सल' जिसकी आठवी आवृत्ति 2012 में हुयी । मेरे पास उपलब्ध संस्करण 2012 का है।
  यह एक डाक बाबू के माध्यम से रची गयी हास्य, रोमांच और संवेदना से परिपूर्ण लघु रचना है।
पहले हम 'डाक बाबू का पार्सल' का प्रथम पृष्ठ देखते हैं जो कहानी को स्पष्ट करने में सहायक होगा।

हिमाचल प्रदेश में कुल्लू घाटी में एक पहाड़ी कसबा है। नाम है उसका पनारसा ।
पनारसा के डाकघर में कभी एक डाक बाबू थे। नाम था उनका रामधन । मगर हर कोई प्यार से उन्हें "डाक बाबू” कहता था ।
लगभग पचपन की उम्र थी डाक बाबू की। शरीर से दुबले-पतले थे । मगर थे बड़े चुस्त और फुरतीले। फिर मिलनसार भी थे। हर किसी से नम्रता से बोलते और व्यवहार करते थे ।
डाक बाबू बहुत पहले शहर से बदली करवा कर यहां आये थे। पनारसा में उनका मन ऐसा लगा कि यहीं के होकर रह गये ।
शहर में थे, तो दिन-रात चिल्ल-पौं मची रहती थी। भीड़-भाड़ में मन सदा व्याकुल रहता । पनारसा आकर डाक बाबू को बड़ी शांति मिली। यहां कोई हल्ला-गुल्ला नहीं था। कोई शोर-शराबा नहीं था। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे। लगता था जैसे बाहर के कोलाहल को रोकने के लिए ही ये पहाड़ खड़े हों।
फिर आकाश से बातें करते पेड़ थे। हरे-भरे खेत-खलिहान थे । फलों-फूलों से लदे बाग-बगीचे थे। शुद्ध हवा थी। व्यास नदी का कलकल करता निर्मल जल था। इससे भी अधिक, यहां सीधे-सादे, भोले-भाले लोग थे।
    डाक बाबू के नाम एक दिन एक पार्सल आता है और यही पार्सल डाक बाबू और उनके सहायक केशव के किए हैरत का विषय बन जाता है । वह पार्सल 'डाक घर के डाक बाबू' के नाम था न की किसी व्यक्ति के नाम ।
   बात यह थी कि डाक बाबू जितने ठिंगने और दुबले-पतले थे, केशव उतना ही मोटा और लंबा-तगड़ा था। फिर एकदम ढिल्लड़ भी था। जहां बैठ गया, बैठ गया। डाक बाबू से आधी उम्र का था। मगर उनसे आधी चुस्ती भी नहीं थी उसमें । जब-तब बैठा-बैठा ऊंघने लगता था ।(पृष्ठ-07)
   जब केशव और डाक बाबू ने देखा की दिल्ली से आने वाले इस पार्सल में एक गोल चपटा पत्थर है तो दोनों विस्मय से उसे देखने लगे की आखिर इतनी दूर से उन्हें किसी ने पत्थर क्यों भेजा है।
     अब डाक बाबू ने नहीं चाहते थे कि गांव के लोगों को यह पता चले की किसी ने मजाक के लिए उनके पास पार्सल में पत्थर भेजा है लेकिन बात कहां तक छुपी रह पाती । और गांव लोग बहाने से डाक बाबू के पास आने लगे। लाला आया, हैड मास्टर आया, पुरोहित आया, बच्चे आये इत्यादि... इत्यादि... किसी ने पार्सल को बम से जोड़ा, किसी ने भूतों से, तो किसी ने किसी से....

उसके बाद और भी कई लोग आये ।
किसी ने कहा, "डाक बाबू ! जमाना बड़ा खराब है। जल्दी कुछ कीजिए।"
किसी ने कहा, "डाक बाबू ! ऐसा तो नहीं, किसी ने जादू-टोना किया हो ?"
किसी ने कहा, "पुलिस को खबर की आपने?"
     यह पार्सल का पत्थर डाक बाबू के लिए रहस्य और हास्य का विषय बन गया । पूरे गांव में उसी की चर्चा थी और डाक बाबू हैरान थे आखिर वह पार्सल द्वारा उन्हें पत्थर क्यों भेजा गया और फिर डाक बाबू उस पत्थर के रहस्य को जानने के लिए बैचेन हो उठे, तब उन्हें एक राह दिखाई दिया ।
   यह रास्ता ही डाक बाबू को पत्थर के रहस्य से परिचित करवाता है और कहानी को संवेदना की तरफ ले जाता है। अब देखना यह है की आखिर वह पार्सल किसने और क्यों भेजा और डाक बाबू उसके रहस्य तक कैसे पहुंच पाये। आप जब इस कहानी का अंत पढेंगे तो आपकी आँखें नम हो जायेंगी।
कहानी चाहे छोटी है लेकिन मनुष्य स्वभाव को अच्छे से रेखांकित करती है हमारी भावनाओं को छूती है।
  एक अच्छा लेखक पत्थर माध्यम से कैसे एक रोचक बात कहता है यह भी पठनीय है।
बच्चों के लिए गयी यह किताब सभी के लिए पठनीय है । कहानी में हास्य है, गाँव के लोगों का कुतूहल है, संवेदना है, केशव का मसखरापन है और रोमांच है।
 चित्रकार जगदीश जोशी के चित्रों ने कहानी को और भी ज्यादा रोचक बना दिया है। कथा अनुसार बने चित्र प्रभावित करते हैं।

पुस्तक- डाक बाबू का पार्सल
लेखक- द्रोणवीर कोहली
प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट
सन् - 2012
मूल्य-    35₹
पृष्ठ-    52

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