कहानी एक भूतिया बंगले की
बंगला नम्बर-420- परशुराम शर्मा
लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में परशुराम शर्मा एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके पाठकों का एक विस्तृत क्षेत्र है। वर्तमान में विभिन्न प्रकाशको से उनके उपन्यास पुनः प्रकाशित हो रहे हैं।
प्रस्तुत उपन्यास 'बंगला नम्बर 420' उनके उपन्यास 'कानून की आँख' का द्वितीय और अंतिम भाग है। यह एक जिन्न पर आधारित हाॅरर उपन्यास है।
पहला बयान
बंगला नम्बर-420- परशुराम शर्मा
लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में परशुराम शर्मा एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके पाठकों का एक विस्तृत क्षेत्र है। वर्तमान में विभिन्न प्रकाशको से उनके उपन्यास पुनः प्रकाशित हो रहे हैं।
प्रस्तुत उपन्यास 'बंगला नम्बर 420' उनके उपन्यास 'कानून की आँख' का द्वितीय और अंतिम भाग है। यह एक जिन्न पर आधारित हाॅरर उपन्यास है।
"और जब मेरी आँख खुली तो न सिर्फ मेरा बेडरूम, मेरा लिबास अजनबी था बल्कि मेरा जिस्म और मेरी शक्ल भी अपनी नहीं थी। मैं अपने बंगले में सोया था पर आँख खुली बंगला नंबर 420 में।
दूसरा बयान
“मैंने खुद अपनी लाश बंगला नंबर 420 में देखी है, इंस्पेक्टर।”
तीसरा बयान
“धुएं का आदमी – हाँ – धुएं का आदमी। वह इंसानों का खून पीता है और जिसका भी खून वो पी लेता है वो उसका गुलाम होकर रह जाता है । बंगला नंबर 420 में उसकी पूजा होती है।”
हॉरर, थ्रिल और सस्पेंस से लबरेज सुप्रसिद्ध लेखक परशुराम शर्मा का महाविशेषांक।
यह कहानी है अरविंद नामक एक युवा पत्रकार की, जो एक युवती को इंसाफ दिलवाने ले चक्कर में कुछ गैंग से टकरा जाता है और यहीं टकराव उसकी जिंदगी को बर्बाद कर देता है।
पुलिस हवालात में अरविन्द की मुलाकात एक जिन्न 'अरबन' से होती है। और वही जिन्न अरविंद को अर्जुन बना देता है।
अरविन्द और अरबन को पता चलता है की अरविंद की जिंदगी को तबाह करने वालों का संबंध बंगला नम्बर 420 से संबंध है।
वहीं बंगला नम्बर 420 के विषय में यह कहा जाता है की यह बंगला भूतिया है और एक रात अपने आप इस जगह पर तैयार हो गया था। माना जाता है की राजा-महाराजों का खजाना यहीं बैंक की तरह रखा जाता है।
वहीं CBI इंस्पेक्टर जावेद इस बंगले की जांच में अपने एक दर्जन साथियों को बलि चढवा बैढता है।
अब अरविंद- अरबन और जावेद और उसके साथी गोर्वधन का लक्ष्य बंगला नम्बर 420 है।
- आखिर वह बंगला क्या था?
- क्या वहाँ सच में आज भी राज-महाराजा अपना खजाना रखते हैं?
- खतरनाक सामर कैसा जिन्न/ प्रेत था?
उन सब प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए 'अरबन, अरविंद, जावेद और गोवर्धन' इस रहस्य को जानने के लिए जा पहुंचते हैं बंगला नम्बर 420 में और टकराते है भूतों के मालिक सामर से।
उपन्यास 'कानून की आँख' की कहानी जिस स्तर से आरम्भ होती है, आगे पता नहीं कहां से कहां पहुंच जाती है। बस पाठक रहे और कहानी पर तार्किक स्तर पर चर्चा न करे।
उपन्यास मानते हैं एक कहानी है, पर वह कहानी नहीं जिस से उपन्यास आरम्भ होता है। एक के बाद एक खल पात्र, एक खत्म तो दूसरा तैयार है। और अरविंद-अरबन हर किसी से टकराने को तैयार बैठे हैं।
उपन्यास में कुछ पात्रों की अनावश्यक लम्बे कहानियाँ पात्र पृष्ठ वृद्धि ही करती हैं।
जावेद जैसे पात्रों का तो यह भी पता नहीं चलता की वह कहानी से कहां गायब हो गये।
दूसरा बयान
“मैंने खुद अपनी लाश बंगला नंबर 420 में देखी है, इंस्पेक्टर।”
तीसरा बयान
“धुएं का आदमी – हाँ – धुएं का आदमी। वह इंसानों का खून पीता है और जिसका भी खून वो पी लेता है वो उसका गुलाम होकर रह जाता है । बंगला नंबर 420 में उसकी पूजा होती है।”
हॉरर, थ्रिल और सस्पेंस से लबरेज सुप्रसिद्ध लेखक परशुराम शर्मा का महाविशेषांक।
यह कहानी है अरविंद नामक एक युवा पत्रकार की, जो एक युवती को इंसाफ दिलवाने ले चक्कर में कुछ गैंग से टकरा जाता है और यहीं टकराव उसकी जिंदगी को बर्बाद कर देता है।
पुलिस हवालात में अरविन्द की मुलाकात एक जिन्न 'अरबन' से होती है। और वही जिन्न अरविंद को अर्जुन बना देता है।
अरविन्द और अरबन को पता चलता है की अरविंद की जिंदगी को तबाह करने वालों का संबंध बंगला नम्बर 420 से संबंध है।
वहीं बंगला नम्बर 420 के विषय में यह कहा जाता है की यह बंगला भूतिया है और एक रात अपने आप इस जगह पर तैयार हो गया था। माना जाता है की राजा-महाराजों का खजाना यहीं बैंक की तरह रखा जाता है।
वहीं CBI इंस्पेक्टर जावेद इस बंगले की जांच में अपने एक दर्जन साथियों को बलि चढवा बैढता है।
अब अरविंद- अरबन और जावेद और उसके साथी गोर्वधन का लक्ष्य बंगला नम्बर 420 है।
- आखिर वह बंगला क्या था?
- क्या वहाँ सच में आज भी राज-महाराजा अपना खजाना रखते हैं?
- खतरनाक सामर कैसा जिन्न/ प्रेत था?
उन सब प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए 'अरबन, अरविंद, जावेद और गोवर्धन' इस रहस्य को जानने के लिए जा पहुंचते हैं बंगला नम्बर 420 में और टकराते है भूतों के मालिक सामर से।
उपन्यास 'कानून की आँख' की कहानी जिस स्तर से आरम्भ होती है, आगे पता नहीं कहां से कहां पहुंच जाती है। बस पाठक रहे और कहानी पर तार्किक स्तर पर चर्चा न करे।
उपन्यास मानते हैं एक कहानी है, पर वह कहानी नहीं जिस से उपन्यास आरम्भ होता है। एक के बाद एक खल पात्र, एक खत्म तो दूसरा तैयार है। और अरविंद-अरबन हर किसी से टकराने को तैयार बैठे हैं।
उपन्यास में कुछ पात्रों की अनावश्यक लम्बे कहानियाँ पात्र पृष्ठ वृद्धि ही करती हैं।
जावेद जैसे पात्रों का तो यह भी पता नहीं चलता की वह कहानी से कहां गायब हो गये।
अगर आपने जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी का प्रसिद्ध पात्र 'भूतनाथ' पढा है तो यहाँ परशुराम शर्मा जी ने वैसा ही पात्र 'अरबन' प्रस्तुत किया है। जिसका हास्य कुछ हद तक सफल भी है।
मैंने परशुराम शर्मा जी के जितने भी उपन्यास पढें हैं, उनका आरम्भ बहुत अच्छा होता है लेकिन फिर कथा अपनी राह से भटक कर अन्यत्र चली जाती है।
उपन्यास के कुछ संवाद मुझे बेहद पसंद आये।
- जो बदमाश, पुलिस के हाथ नहीं आता वह शराब और औरत के चक्कर में मारा जाता है।”
- यह ऐसी दफा है कि अगर किसी हरे-भरे पेड़ पर दफा तीन सौ दो लिख दो तो पेड़ तक सूख जाता है।”
प्रस्तुत उपन्यास कथा स्तर पर कमजोर है। वहीं अगर पाठक इसे हाॅरर की दृष्टि से पढना अवश्य पढ सकता है, हालांकि इसमें डरावनापन नहीं है।
मेरी दृष्टि से यह एक सामान्य स्तर का उपन्यास है।
उपन्यास- बंगला नम्बर 420
लेखक- परशुराम शर्मा
प्रकाशन- सूरज पॉकेट बुक्स
श्रेणी- हाॅरर
उपन्यास के कुछ संवाद मुझे बेहद पसंद आये।
- जो बदमाश, पुलिस के हाथ नहीं आता वह शराब और औरत के चक्कर में मारा जाता है।”
- यह ऐसी दफा है कि अगर किसी हरे-भरे पेड़ पर दफा तीन सौ दो लिख दो तो पेड़ तक सूख जाता है।”
प्रस्तुत उपन्यास कथा स्तर पर कमजोर है। वहीं अगर पाठक इसे हाॅरर की दृष्टि से पढना अवश्य पढ सकता है, हालांकि इसमें डरावनापन नहीं है।
मेरी दृष्टि से यह एक सामान्य स्तर का उपन्यास है।
उपन्यास- बंगला नम्बर 420
लेखक- परशुराम शर्मा
प्रकाशन- सूरज पॉकेट बुक्स
श्रेणी- हाॅरर
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