Sunday 9 August 2020

364. चक्कर पर चक्कर- वेदप्रकाश कांबोज

यहाँ हर कोई चला रहा था अपना-अपना चक्कर
 चक्कर पर चक्कर- वेदप्रकाश कांबोज, सस्पेंश-थ्रिलर

       कभी कभी किस्मत ऐसे चक्कर चलाती है कि मनुष्य कुछ भी समझ नहीं पाता और जो वह समझता है वह हो नहीं पाता और जो होता है वह समझ नहीं पाता। इस होने, न होने, समझने और न समझने का जो ही किस्मत का चक्कर कहते हैं। अगर मनुष्य इसे समझ ले तो फिर किस्मत जा चक्कर ही कहां रह जाता है।
       आदरणीय वेदप्रकाश कांबोज का उपन्यास 'चक्कर पर चक्कर' पढा यह वास्तव में एक चक्करदार और दिमाग को चक्करा देने वाला रोचक उपन्यास है।
       मैं अगस्त 2020 में क्रमशः 'कदम-कदम पर धोखा', 'चन्द्रहार के चोर 'चन्द्रमहल का खजाना' के पश्चात चौथा उपन्यास 'चक्कर पर चक्कर' पढा।
अब चर्चा करते हैं उपन्यास के कथानक पर।
पहली बात यह है कि कहानी में कुछ 'चक्कर' है इसलिए एक तरफ की बात करें तो दूसरी तरफ की चर्चा छूट जाती है। अब बात कहां से आरम्भ करें......सोचने दो...
    वकील दिलीप बनर्जी से चर्चा शुरू करते हैं। उपन्यास 'विजय-रघुनाथ सीरीज' का है। जिसमें रघुनाथ का किरदार बहुत कम है और विजय का किरदार मध्य पश्चात रफ्तार में आता है‌ और उससे पहले विजय का एक शिष्य दिलीप बनर्जी उपन्यास में नायक की तरह नजर आता है। वह नायक की तरह नजर आता है, वास्तव में उपन्यास नायक तो विजय है।
       वकील दिलीप बनर्जी से एक महिला मिलती है- वह अपनी सुरक्षा के लिए वकील से चर्चा करती है। लेकिन दिलीप बनर्जी सत्य का अन्वेषण, महिला की सुरक्षा के लिए कहीं और ही जा उलझता है।
वह बहुत ही खतरनाक आदमी है।" वह अपनी नाक साफ करती हुई बोली - "तुम्हें उसे धमकाना नहीं चाहिये था...धमका कर उसे किसी काम के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता...बल्कि धमकाने से वह और भी ज्यादा जिद्दी और खतरनाक हो जाता है।"
"आखिर तुम मुझे उससे इतना डराने की कोशिश क्यों कर रही हो?"
"मैं तुम्हें डरा नहीं रही...बल्कि असलियत बता रही हूँ।"

        वहीं विजय के पास एक अज्ञात फोन आता है की एक आदमी का कत्ल होने वाला है। लेकिन दिलीप बनर्जी तो एक कत्ल के केस में उलझ ही जाता है।
       यहीं से उपन्यास उलझ जाता है। कहानी घुमावदार हो जाती है। एक एक किरदार संदिग्ध नजर आने लगता है। दिलीप बनर्जी जैसा तीव्र दिमागधारी वकील भी चक्कर में आ जाता है।
          विजय जिस कत्ल का अन्वेषण करता है उस घर में मात्र चार सदस्य हैं। जिनमें से दो संदिग्ध है और और मजे की बात ये है की एक को विजय ज्यादा संदिग्ध मानता है और दूसरे को उस घर के सदस्य संदिग्ध मानते हैं।
दिलीप बनर्जी कुछ अलग ही उलझ जाता है-
"तुम्हें देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि आखिर तुम यह क्या चक्कर पर चक्कर चलाए जा रही हो और क्यों चला रही हो?"
"क्या मतलब?"

बस यही मतलब समझने के लिए उपन्यास 'चक्कर पर चक्कर' पढना होगा।        उपन्यास का घटनाक्रम चक्करदार है। कहानी की प्रवाह तेज है और कहीं भी नीसरता नहीं है। पाठक एक बार पढना आरम्भ करने के पश्चात समापन पर ही जाकर ठहरता है।
        एक बात और मेरी दृष्टि में कातिल का रहस्य थोड़ा कमजोर है। कुछ तथ्यों और शब्दों के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है। या फिर ये हो सकता है मेरा अनुमान सही लगा है तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ हो। फिर भी उपन्यास कहानी के स्तर पर रोचक और सस्पेंश वाला है।

        चलो अब उपन्यास से कुछ रोचक बातों की चर्चा करते हैं। कुछ लेखकों ने उपन्यासों में हास्य रस का प्रयोग किया है, जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा जी के उपन्यासों में परिस्थितियों के अनुसार कुछ रोचक हास्य-व्यंग्य मिल जाते हैं।
वहीं वेदप्रकाश कांबोज जी ने भाषा सौन्दर्य पर और एक सामान्य बुध्दि परीक्षण का प्रयोग उपन्यास में दिखाया है।
आप देखें-
   एक पालतू परिंदो के व्यापारी ने एक कस्मटर को एक पालतू तोता इस दावे के साथ बेचा की तोते को जो शब्द भी सुनाई देता है वह फौरन उसे दोहरा देता....।
कस्टमर ने तोता खरीद लिया, लेकिन तोता खरीदने के बाद उसे पता चला कि तोता तो एक भी शब्द नहीं बोलता।
कारण...?
इतना ज्यादा कुछ सोच ने वाली बात नहीं है। सिर्फ काॅमनसेंस का सवाल है यह।

        अब अगर आपका काॅमनसेंस काम करता है तो ठी कह, अगर नहीं काम करता तो आप आदरणीय वेदप्रकाश कांबोज जी का उपन्यास 'चक्कर पर चक्कर' पढ लीजिएगा।
धन्यवाद।
भाषा सौन्दर्य पर भी कुछ रोचक देख लीजिएगा की कैसे एक ही शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैं।

हरि बोले हरि ने सुना, हरि गये हरि के पास
वे हरि गये हरि में, ये हरि हुए उदास।

यह यमक अलंकार का बहुत अच्छा उदाहरण है। जासूसी साहित्य में पहली बार किसी लेखक ने शब्दों के अर्थ को इस तरह से उपन्यास में उठाया है। यह एक अच्छा प्रयास है।
एक उदाहरण आप मेरी तरफ से भी देख लीजिएगा -
सारंग ले सारंग चली, सारंग पूगो आय,
सारंग ले सारंग धरयो, सारंग सारंग माय।

( यह उपन्यास अंश नहीं है।)
उपन्यास के पात्र एक नजर में-
दिलीप बनर्जी- वकील
गौरी गुप्ता- दिलीप बनर्जी की क्लाईंट
ब्रजेन्द्र गुप्ता- गौरी का पति
विद्या देवी- ब्रजेन्द्र गुप्ता की नौकरानी
नंदिता- विद्यादेवी की पुत्री
सत्यनारायण- एकता उद्योग का मालिक
सरला मित्तल- सत्यनारायण की बहन
कैलाशनाथ- सरला का पति
एकता- सत्यनारायण की पुत्री
रतन थापर- एकता उद्योग का मैनेजर
हरेन्द्रपाल- एक नेता
गोविन्द गोयल- डाक्टर, ब्रजेन्द्र गुप्ता का भानजा
कमला- राधिका उद्योग की कर्मचारी
सलूजा- इंस्पेक्टर
रघुनाथ- पुलिस सुपरिडेंट
विजय- उपन्यास नायक
हरेन्द्र पाल एक अच्छे कद का खूबसूरत व्यक्ति था। जिसने नेताओं की तरह से ही सफेद कुर्ता पाजामा और नेहरू कट बास्कट पहनी गुई थी। बातचीत करने के अंदाज में भी नेताओं जैसी झलक रही थी।

रतन थापर.... वह लगभग अठाईस तीस साल का कद्दावर युवक था जिसे खूबसूरत भी कहा जा सकता है। रंग थोड़ा सांवला लेकिन बाल काले थे।


       जैसा की उपन्यास का शीर्षक है कहानी उसी के अनुरुप 'चक्कर' वाली है। कुछ किरदार स्वयं चक्कर में हैं तो कुछ दूसरों को चक्कर में डाल रहे हैं‌ और इसी चक्कर में पाठक भी चक्करघिन्नी बना नजर आता है।
       हालांकि कुछ रहस्य समय पूर्व अनुमान में आ जाते हैं, लेकिन उनके कारण समझ में नहीं आते। कारण समझने के लिए उपन्यास के क्लाईमैक्स तक पहुंचना ही होगा।

'चक्कर पर चक्कर' एक रोचक मर्डर थ्रिलर उपन्यास है। कहानी का ताना बहुत अच्छे से बुना गया है। वेदप्रकाश कांबोज जी का प्रस्तुत उपन्यास रोचक और पठनीय है।

उपन्यास- चक्कर पर चक्कर
लेखक-    वेदप्रकाश कांबोज
प्रकाशक- सूर्या पॉकेट बुक्स, मेरठ


2 comments:

  1. Bahut hi badhiya sameeksha.
    Lage raho Guru bhai, bahut hi badhiya kaam kar rahe ho aap-sahitya jagat ke liye

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  2. बहुत जबरदस्त सर जी

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