शिव रचना त्रय का तृतीय भाग
वायुपुत्रों की शपथ- अमीश
वायुपुत्रों की शपथ अमीश द्वारा रचित शिव रचना त्रय का तृतीय भाग है। एक शिव रचना एक विशाल ग्रंथ है और यह उसका अंतिम भाग है।
वायुपुत्रों की शपथ के अंतिम आवरण पृष्ठ लिखा हुआ उपन्यास अंश पहले पढ लेते हैं।
शिव अपनी शक्तियाँ जुटा रहा है। वह नागाओं की राजधानी पंचवटी पहुंचता है और अंततः बुराई का रहस्य सामने आता है। नीलकण्ठ अपने वास्तविक शत्रु के विरूद्ध धर्मयुद्ध की तैयारी करता है। एक ऐसा शत्रु जिसका नाम सुनते ही बडे़ से बड़ा योद्धा थर्रा जाता है।
एक के बाद एक होने वाले नृशंस युद्ध से भारतवर्ष की चेतना दहल उठती है। ये युद्ध भारत पर हावी होने के षड्यंत्र हैं। इसमें अनेक लोग मारे जायेंगे। लेकिन शिव असफल नहीं हो सकता, चाहे जो भी मूल्य चुकाना पड़े। अपने साहस से वह वायुपुत्रों तक पहुंचता है, जो अब तक उसे अपनाने को तैयार नहीं थे।
- क्या वह सफल हो पायेगा?
- बुराई से लड़ने का उसे क्या मूल्य चुकाना होगा?
इस कथा का आरम्भ होता है। शिव के नागाओं से मिलने के बाद जहाँ उन्हें पता चलता है की 'बुराई क्या है।' और शिव उस बुराई को खत्म करने की ओर बढते हैं। यहाँ शिव का सामना उन से होता है जिन्होंने शिव को नीलकण्ठ नाम दिया।
कहानी के अंत तक आते -आते शिव पूर्णतः बदल जाता है। जहाँ आरम्भ में शिव का उद्देश्य मात्र बुराई को खत्म करना था वहीं अंत में उनका उद्देश्य एक पारिवारिक बदला प्रधान फिल्म की तरह हो जाता है।
शिव द्वारा जो असंख्य निर्दोष लोग मारे गये वह पूर्णतः अनुचित है। उपन्यास में जो हिंसा दिखाई गयी वह तो अति है।
अंत में तो शिव अपने बदले की लिए 'वायुपुत्रों की शपथ' को भी तोड़ देता है और अपने काका की शिक्षा भी उसके लिए महत्व नहीं रखती। शिव के लिए बुराई के नाश से भी महत्वपूर्ण हो जाता है स्वयं का बदला। हालांकि जिनसे बदला लेना है उन तीन में से दो तो पूर्णतः सुरक्षित रहते हैं और मारा वह जाता है जो कठपुतली है।
उपन्यास अंत में अपने भावुक और एक्शन के कारण चाहे याद रह जाये लेकिन कहानी के स्तर पर पूर्णतः मात खाती नजर आती है।
हर लेखक का कहानी कहने का अपना एक दृष्टिकोण होता है। वह कुछ नयी कल्पनाएँ करता है, कुछ मान्यताओं को नकारता भी है। अगर किसी ने जयंशकर प्रसाद की रचनाएँ पढी हैं तो देखा होगा प्रसाद जी बहुत नये पात्र पैदा करते हैं, नवीन कल्पनाएँ करते हैं लेकिन इतिहास और पौराणिक आख्यान की मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए।
अमीश जी ने चाहे नयी कल्पना संजोयी हैं लेकिन वे आधारहीन नजर आती हैं।
निष्कर्ष-
उपन्यास का आरम्भ रोचक तरीके से होता है अंत उतना ही विपरीत है। उपन्यास अंत में एक बदला प्रधान फिल्म की तरह समाप्त होता है।
मेरा व्यक्तिगत विचार है- मुझे यह शृंखला विशेष अच्छी न लगी। उपन्यास में कहीं कोई वैज्ञानिक आधार नहीं, पौराणिक आख्यान के स्तान पर जो नयी कल्पनाएँ हैं वह भी भावनाओं के साथ खिलवाड़ है।
उपन्यास- वायुपुत्रों की शपथ
लेखक- अमीश
प्रकाशक- वेस्टलैण्ड
वायुपुत्रों की शपथ- अमीश
वायुपुत्रों की शपथ अमीश द्वारा रचित शिव रचना त्रय का तृतीय भाग है। एक शिव रचना एक विशाल ग्रंथ है और यह उसका अंतिम भाग है।
वायुपुत्रों की शपथ के अंतिम आवरण पृष्ठ लिखा हुआ उपन्यास अंश पहले पढ लेते हैं।
शिव अपनी शक्तियाँ जुटा रहा है। वह नागाओं की राजधानी पंचवटी पहुंचता है और अंततः बुराई का रहस्य सामने आता है। नीलकण्ठ अपने वास्तविक शत्रु के विरूद्ध धर्मयुद्ध की तैयारी करता है। एक ऐसा शत्रु जिसका नाम सुनते ही बडे़ से बड़ा योद्धा थर्रा जाता है।
एक के बाद एक होने वाले नृशंस युद्ध से भारतवर्ष की चेतना दहल उठती है। ये युद्ध भारत पर हावी होने के षड्यंत्र हैं। इसमें अनेक लोग मारे जायेंगे। लेकिन शिव असफल नहीं हो सकता, चाहे जो भी मूल्य चुकाना पड़े। अपने साहस से वह वायुपुत्रों तक पहुंचता है, जो अब तक उसे अपनाने को तैयार नहीं थे।
- क्या वह सफल हो पायेगा?
- बुराई से लड़ने का उसे क्या मूल्य चुकाना होगा?
इस कथा का आरम्भ होता है। शिव के नागाओं से मिलने के बाद जहाँ उन्हें पता चलता है की 'बुराई क्या है।' और शिव उस बुराई को खत्म करने की ओर बढते हैं। यहाँ शिव का सामना उन से होता है जिन्होंने शिव को नीलकण्ठ नाम दिया।
कहानी के अंत तक आते -आते शिव पूर्णतः बदल जाता है। जहाँ आरम्भ में शिव का उद्देश्य मात्र बुराई को खत्म करना था वहीं अंत में उनका उद्देश्य एक पारिवारिक बदला प्रधान फिल्म की तरह हो जाता है।
शिव द्वारा जो असंख्य निर्दोष लोग मारे गये वह पूर्णतः अनुचित है। उपन्यास में जो हिंसा दिखाई गयी वह तो अति है।
अंत में तो शिव अपने बदले की लिए 'वायुपुत्रों की शपथ' को भी तोड़ देता है और अपने काका की शिक्षा भी उसके लिए महत्व नहीं रखती। शिव के लिए बुराई के नाश से भी महत्वपूर्ण हो जाता है स्वयं का बदला। हालांकि जिनसे बदला लेना है उन तीन में से दो तो पूर्णतः सुरक्षित रहते हैं और मारा वह जाता है जो कठपुतली है।
उपन्यास अंत में अपने भावुक और एक्शन के कारण चाहे याद रह जाये लेकिन कहानी के स्तर पर पूर्णतः मात खाती नजर आती है।
हर लेखक का कहानी कहने का अपना एक दृष्टिकोण होता है। वह कुछ नयी कल्पनाएँ करता है, कुछ मान्यताओं को नकारता भी है। अगर किसी ने जयंशकर प्रसाद की रचनाएँ पढी हैं तो देखा होगा प्रसाद जी बहुत नये पात्र पैदा करते हैं, नवीन कल्पनाएँ करते हैं लेकिन इतिहास और पौराणिक आख्यान की मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए।
अमीश जी ने चाहे नयी कल्पना संजोयी हैं लेकिन वे आधारहीन नजर आती हैं।
निष्कर्ष-
उपन्यास का आरम्भ रोचक तरीके से होता है अंत उतना ही विपरीत है। उपन्यास अंत में एक बदला प्रधान फिल्म की तरह समाप्त होता है।
मेरा व्यक्तिगत विचार है- मुझे यह शृंखला विशेष अच्छी न लगी। उपन्यास में कहीं कोई वैज्ञानिक आधार नहीं, पौराणिक आख्यान के स्तान पर जो नयी कल्पनाएँ हैं वह भी भावनाओं के साथ खिलवाड़ है।
उपन्यास- वायुपुत्रों की शपथ
लेखक- अमीश
प्रकाशक- वेस्टलैण्ड
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