Tuesday, 21 October 2025

मुझे मौत चाहिए - अनिल सलूजा

दिल्ली के डाॅन से बलराज गोगिया की टक्कर
मुझे मौत चाहिए - अनिल सलूजा
# साठ लाख शृंखला +
- बलराज गोगिया सीरीज- 14

  एक कातिल को ढूंढकर उस मौत के घाट उतारने का काम मिला था बलराज गोगिया को। तफ्तीश करते हुये वह आगे बढा तो उल्टा अपनी ही जान के लाले पड़ गये उसे और....
और किसने कहा था- मुझे मौत चाहिए

"नहीं... नहीं... भगवान के लिये मेरे बेटे को कुछ मत कहना... मुझ गरीब का बस एक ही बेटा है...। अगर उसे कुछ हो गया तो मेरी पत्नी रो-रो कर अपनी जान दे देगी...। त... तुम मेरी पत्नी की हालत जा कर देखो... बेटे की जुदाई में वह मरने को हो रही है।" अपने कमरे की तरफ बढ़ते बलराज गोगिया के कदम वहीं ठिठक गये।
मोहन गेस्ट हाउस के बारह नम्बर कमरे में ठहरा हुआ था वह... ।
     उस वक्त वह दिल्ली से निकलने के लिये बाहर का माहौल देखकर आया था...। लेकिन अभी वो माहौल नहीं बना था कि वह दिल्ली से बाहर निकल सके।
सड़कों पर भागती पुलिस की गाड़ियां... जगह-जगह नाकेबंदी... और सख्ती से उसकी तलाश उसे अभी दो-चार दिन और वहां रुकने को मजबूर कर रही थी।
इस वक्त वह सिख युवक के मेकअप में था। सो उसे पूरा विश्वास था कि इस रूप में उसे कोई नहीं पहचान सकेगा... । लेकिन फिर भी वह कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था।
वजह साफ थी...।
उसके यार राघव के लिये साठ लाख की सख्त जरूरत थी उसे... जिसमें वे वह अभी सिर्फ दस लाख ही जम्मू में बैठे अपने यार तक पहुंचा पाया था। अभी पचास लाख की और जरूरत थी उसे।
वे पचास लाख उसने हासिल कर भी लिये थे... 'लाश बिकाऊ है' तथा 'आधात' वाले केस में यह पचास लाख हासिल -कर चुका था... लेकिन ऐन वक्त पर पुलिस ने उसे घेर लिया और गोली मार दा उसे ।
लेकिन गोली उसे लगने की बजाय उसके कंधे पर टंगे पचास लाख के बैग की तनी पर जा लगी थी... और बैग नीचे गिर पड़ा था। सो उसे बैग को वहीं छोड़कर फरार होना पड़ा था।
बहुत ही गहरा आघात पहुंचा था उसे...। अगर उसे वो पचास लाख मिल जाता तो वह अब तक राघव को लेकर डाक्टर कुलकर्णी के पास पहुंच चुका होता... और डाक्टर उसकी कटी हुई टांग को दोबारा लगा देता।
मगर किस्मत को यह मंजूर नहीं था।
वह पुलिस के घेरे से तो निकल गया था... मगर पुलिस ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था। तभी तो वह चार दिन बीत जाने के बाद भी दिल्ली में ही था।
हां... इतनी सावधानी वह जरूर बरत रहा था कि वो हर रोज अपनी जगह बदल रहा था।
( मुझे मौत चाहिए- अनिल सलूजा, उपन्यास प्रथम पृष्ठ से)
    नमस्ते पाठक मित्रो,
एक बार फिर हम उपस्थिति हैं अनिल सलूजा जी के बलराज गोगिया सीरीज के उपन्यास 'मुझे मौत चाहिए' की समीक्षा लेकर । यह कहानी बलराज गोगिया की सीरीज के साठ लाख शृंखला का ही एक अंग है।
  अनिल सलूजा द्वारा बलराज गोगिया सीरीज में साठ लाख  या लंगड़ा यार वह शृंखला है जिसमें बलराज गोगिया अपने मित्र राघव की कटी हुयी टांग को लगवाने के लिए साठ लाख की व्यवस्था करने घर से निकलता है। वह कठिन परिस्थितियों में पैसा की व्यवस्था कर भी लेता लेकिन अंत समय में किस्मत उसे अकसर धोखा दे जाती है और रूपया उसके हाथ से निकल जाता है। जैसे शूटर उपन्यास में उसके हाथ से रुपये निकल गये थे ।
  तो एक बार बलराज गोगिया दिल्ली में उपस्थित है और वह एक सेठ हंसराज तनेजा के लिए एक कत्ल करने को तैयार हो जाता है।
तनेजा ने सोफे की पुश्त से टेक लगाई और उसे देखते हुए बोला- "एक कत्ल करना है।"
"कत्ल...?" हल्के से चौंका बलराज गोगिया- "किसका कत्ल करना है?"
"पता नहीं...।"
बुरी तरह से उछल पड़ा बलराज गोगिया- "तुम्हें पता ही नहीं कि किसका कत्ल करना है?"
"मैं तो यह भी नहीं जानता कि वह रहता कहां है।"
गंभीरता से बोला तनेजा- "तुम्हें उसे ढूंढना है... और मुझे पूरी तसल्ली कराकर कि वह वही है... जिसे मैं मरा हुआ देखना चाहता हूं... उसको मार डालोगे।"
बलराज गोगिया की खोपड़ी चक्कर खा कर रह गयी
(पृष्ठ- 37)
अपनॆ यार राघव की जिंदगी के लिए बलराज गोगिया यह काम पचास लाख में अपने हाथ में लेता है और फिर निकल पड़ता है एक अनजान मिशन पर और उसे खोजना था हंसराज तनेजा के बीवी और बच्चों के हत्यारे को । और बलराज गोगिया जैसा खतरनाक अपराधी पहली बार यहां एक डिटेक्टिव जैसा नजर आता है हालांकि वह अपराधी है तो उसका अंदाज कुछ अलग ही होता है।
     बलराज गोगिया के सामने दो संदिग्ध नाम आते हैं एक तो हंसराज तजेना के बड़े भाई.... और दूसरा हंसराज तनेजा की पत्नी का कथित भाई किशन कुमार ।
किशन कुमार पैंतीस-छत्तीस साल का गठीले शरीर वाला... सख्त चेहरे वाला आदमी था... जिसकी आंखों में एक अजीब-सी वहशत थी। लगता था उसकी बदमाशी को आसमान तक पहुंचाने में उसकी आंखों ने बहुत साथ दिया था।
     किशन कुमार अपने समय का बदमाश रह चुका है। और स्वयं की नजर में उसकी दहशत आज भी है ।
वहीं उपन्यास में द्वितीय पक्ष और सामने आता है और वह है दिल्ली का डाॅन है अहसान भाई । अहसान भाई के गुर्गे बलराज गोगिया से उसका पचास लाख छीन लेते है और यहीं से बलराज गोगिया और अहसान भाई में ठन जाती है और जब ठनती है तो दिल्ली पोलिस सिर्फ तमाशा देखती है। उनकी नजर में दोनों में से किसी एक का खत्म होना दिल्ली पुलिस के लिए लाभदायक है।
  वहीं पुलिस इंस्पेक्टर प्रभात कुमार तो बलराज गोगिया से इसलिए खार खाये हुये है की बलराज गोगिया उसे चोट पहुंचा कर उसके हाथ से निकल गया था ।
   अहसान का खास आदमी है जिंदल । जिंदल अहसान भाई को यही सलाह देता है की बलराज गोगिया से पंगा न लिया जाये ।
"माफी चाहता हूँ अहसान भाई...इस मामले में आपको **** की कोई मदद नहीं करनी चाहिए थी। बलराज गोगिया के बारे में आप भी जानते हैं कि वो कैसा है। जिसे इतने राज्यों की पुलिस भी नहीं पकड़ पाई...उससे आप कैसे पार पा सकते ?
         वहीं अहसान भाई का कहना है पीछे हटना का मतलब है अण्डरवर्ल्ड में स्वयं की बेइज्जती करवाना ।
  और फिर अण्डरवर्ल्ड डाॅन अहसान भाई और बलराज गोगिया के मध्य संघर्ष आरम्भ हो जाता है। और बलराज गोगिया उसके एक एक गुर्गे- प्यादे को खत्म करता जाता है।
"वो पचास लाख मेरे लिये बहुत कीमती था जिन्दल...।
उस पचास लाख से मेरे यार की कटी टांग दोबारा लगनी थी-लेकिन तेरे बाप अहसान भाई ने मेरे से वो पचास लाख छीन लिया... । अब तो उसकी मौत पर ही यह खेल खत्म होगा और जब बड़ा मरता है तो उससे पहले उसके गुलामों की मौत होती है।"
(पृष्ठ-294)
    दिल्ली के डाॅन के खास आदमी को कोई खत्म कर दे और डाॅन चुप हो जाये यह तो संभव ही नहीं । और फिर अहसान भाई के आदमी निकल पड़ते हैं बलराज गोगिया की तलाश में ।
   और अहसान भाई की भी बलराज गोगिया को खुली धमकी थी -
“ बुरा किया तूने बलराज गोगिया... बहुत बुरा किया... पूरी दिल्ली में किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि कोई अहसान भाई के कुत्ते को आंख उठाकर देख सके... और तूने अहसान भाई के आदमी को मार डाला... बहुत बुरा किया तूने । ऊपर वाले से प्रार्थना कर ले कि वह तेरी मौत को आसान बना दे....क्योंकि अहसान भाई से उलझने वालों को बहुत ही बुरी मौत नसीब होती है।"(पृष्ठ-237-38)
   तो अब देखना है यह मौत किसे नसीब होती है । किसे मांगने पर मौत मिली और किसे बिना मांगे भी मौत मिल गयी ।
वैसे तो एक्शन उपन्यासों में स्मरणीय संवादों की संभावनाएं नगण्य होती है लेकिन कभी-कभार कुछ संवाद अपना प्रभाव छोड़ ही जाते हैं। ऐसे ही कुछ संवाद यहाँ पढें-
"मौत जब सामने होती है तो हर किसी को अपने किये हुए गुनाह याद आने लगते हैं... और जब मौत उस पर तरस
खा कर वापिस लौटती है तो वो फिर से शेर हो जाता है।"
(पृष्ठ-177)
उक्त संवाद मानव स्वभाव को बहुत अच्छे से व्यक्त करता है। यही वास्तविकता है।
वहीं एक और संवाद देखें
निशाना वही सही होता है जो वक्त पर सही जगह पर लगे...
  इस संवाद को एक अच्छे उदाहरण से स्पष्ट किया है-
आगे पीछे तुम रिवाल्वर से लटक रही चवन्नियों को भी उड़ाते रहो... और वक्त पर तुम उससे तरबूज ना भेद सको तो निशाने बाज नहीं कहलाता ।"
    प्रस्तुत उपन्यास में कथा पहली बार बलराज गोगिया एक डिटेक्टिव के रूप में नजर आता है और वहां तक कहानी कोई विशेष नहीं है क्योंकि पाठक बलराज गोगिया को एक अलग तरह के किरदार के लिए जानते है। अगर उपन्यास डिटेक्टिव ही बनाना था तो अलग पात्र पैदा किया जा सकता था। क्योंकि बलराज गोगिया कोई जासूस नहीं हो एक हत्यारे को खोज सकता। वहीं यह घटनाक्रम जासूसी कम और सामाजिक उपन्यास की तरह नजर आता है।   क्योंकि संदिग्ध घर सदस्य हैं, पारिवारिक मसले हैं ।
वहीं उपन्यास में दिल्ली के डाॅन अहसान भाई के आगमन के साथ उपन्यास बलराज गोगिया शैली में ‌नजर आने लगता लगता है  । लेकिन यहां भी अनिल सलूजा जी अपने तय पैटर्न से बाहर नहीं निकल पाते ।
लेखक महोदय का कथन देखें-जब बड़ा मरता है तो उससे पहले उसके गुलामों की मौत होती है।" (पृष्ठ-294)
यहां भी पहले एक-एक अहसान भाई के गुर्गे खत्म होते हैं और अंत में अहसान भाई का मरना भी तय है।
     लोकप्रिय उपन्यासकार अनिल सलूजा जी का विशेष पात्र है बलराज गोगिया जो की परिस्थितियों के चलते गलत राह पर निकल पड़ा है । वहीं साठ लाख शृंखला में वह अपने दोस्त राघव के जीवन के लिए रुपयों की व्यवस्था करता नजर आता है।

उपन्यास- मुझे मौत चाहिए
लेखक-    अनिल सलूजा
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स, मेरठ
पृष्ठ-        335

3 comments:

  1. अनिल सलूजा जी के कुछ उपन्यास पढ़े हैं। रोचक होते थे। कुछ रखे भी हैं मेरे पास। कई बार विधाओं के मिलने से उपन्यास न इधर का रहता है और न उधर का। लगता है ऐसा ही इसके साथ हुआ है। बलराज गोगिया का अब तक मैंने कोई उपन्यास नहीं पढ़ा। कोई मिलता है तो पढ़ने की कोशिश रहेगी।

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  2. बढ़िया समीक्षा 👍

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