कुण्ठा के शिकार युवक की अश्लील कथा।
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कुछ रचनाएँ अपनी चंद पंक्तियों से ही प्रभावित कर लेती हैं। एक ललक पैदा कर देती हैं, पढने की इच्छा जगा देती हैं। जो प्रभाव शब्दों में होता है वैसा प्रभाव और किसी में नहीं होता। ऐसे ही प्रभावशाली शब्द थे संदीप नैयर जी के उपन्यास 'डार्क नाइट' के।
इस उपन्यास के सूत्रधार 'काम' के शब्दों में -
-'आखिर सौन्दर्य है क्या? क्या सौन्दर्य सिर्फ मूर्त में है? सिर्फ रंगों और आकृतियों में बसा है? क्या वह सिर्फ रूप और श्रृंगार में समाया है? क्या वह दृश्य में है? या दृश्य से परे दर्शक की दृष्टि में है? या दृश्य और दृष्टि के पारस्परिक नृत्य से पैदा हुए दर्शन में है? मगर जो भी है, सौन्दर्य में एक पवित्र स्पंदन है। सौन्दर्य हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा होता है। हमारे मिथकों में, पुराण में, साहित्य में, सौन्दर्य किसी गाइड की तरह प्रकट होता है, जो अँधेरी राहों को जगमगाता है, पेचिदा पहेलियों को सुलझाता है, भ्राँतियों की धुंध को चीरता है, और पथिक को कठिनाइयों के कई पड़ाव पार कराता हुआ सत्य की ओर ले जाता है।'
- इन प्रभावशाली शब्दों को पढ कर मैं सौन्दर्य के सत्य को जानने का इच्छुक हुआ। आखिर वह सत्य क्या है? इस सौन्दर्य से परे वह कौनसा सौन्दर्य है जिसे हम समझ नहीं पाये।
- साहित्यकार समाज का निर्माता होता है, उसकी दृष्टि आप पाठक से अलग हटकर होती है। वह पाठक को एक नया दृष्टिकोण देता है। मैं लेखक से इसलिए प्रभावित हुआ की इस उपन्यास में मात्र पढने को ही नहीं कुछ नया समझने/ सीखने को भी मिलेगा।
यह कहानी एक एक भारतीय युवक कबीर की जो लगभग पन्द्रह वर्ष की उम्र में ब्रिटेन का निवासी हो गया। भारतीय समाज के संस्कारों में पोषित कबीर लंदन के उन्मुक्त समाज में स्वयं को सहज नहीं बना पाता और कुण्ठा का शिकार हो जाता है।
मूलतः लेखक इस कहानी के माध्यम से एक ऐसे युवक की कहानी दर्शाना चाहता है जो एक स्वच्छंद वातावरण में आकर कैसी घुटन महसूस करता है। वह स्वयं को एक अजीब सी स्थिति में पाता है।
हम नारी की देह, उसके रूप, और उसके श्रृंगार में ही सौन्दर्य देखते हैं, पुरुष ही नहीं, नारी भी यही करती है। मगर नारी का सौन्दर्य, उसकी देह, रुप और शृंगार से परे भी बसा होता है।
उसके सौम्य स्वभाव में, उसकी ममता में, उसकी करुणा में उसके नारीत्व की दिव्य प्रकृति में।
इस सौन्दर्य तक कोई पहुंच भी नहीं पाता। न तो कबीर इस सौन्दर्य को समझ पाता है और न ही प्रिया, माया, हिकमा और टीना। समझ तो इस सौन्दर्य को योग गुरु 'काम' भी नहीं पाता।
क्योंकि कबीर का जो प्रेम है वह मात्रा शारिरिक है। उसके लिए बाहरी आकर्षण महत्व रखता है। जब वह शारीरिक सौन्दर्य की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह मानसिक कुंठा का शिकार हो जाता है। लेखक के शब्दों में कहें तो वह 'डार्क नाइट' में चला जाता है।
आखिर डार्क नाइट है क्या? आप भी देख लीजिएगा-
'द डार्क नाइट एक मानसिक या आध्यात्मिक संकट होता है, जिसमें मनुष्य के मन में जीवन और अस्तित्व पर प्रश्न उठते हैं, जीवन जैसा है, उसके उसे मायने नहीं दिखते, जीवन को उसने जो भी अर्थ दिये होते हैं वे टूटकर बिखर जाते हैं, जीवन उसे निरर्थक लगने लगता है।"(पृष्ठ128
लेकिन यहाँ कबीर का कोई आध्यात्मिक संकट उत्पन्न नहीं होता, उसके एक ही संकट उत्पन्न होता है वह है शारीरिक वासना की पूर्ति न होना। क्योंकि उसका प्रेम.....कबीर का प्रेम भी देख लीजिएगा। वह प्यार नहीं मात्र मानसिक विकृति है, जिसे अच्छे मनोचिकित्सक की जरुरत है। 'नेहा की हील्स से उठती ताजे लेदर की गंध, उसे और उत्तेजित कर गयी।(पृष्ठ-97)
क्या किसी चमड़े से उठती बदबू (गंध) से संबंधित लड़की से प्यार होना, कहां का प्यार है। 'हील्स से उठती मादक गंध, उसे एक बार फिर मदहोश कर गई'(पृष्ठ-98)
योग गुरु की मदद से कबीर इस डार्क नाइट से बाहर भी निकल आता है। आखिर उसने योग गुरु से क्या सीखा, आप भी पढ लीजिएगा। वो पूरे आत्मविश्वास से किसी लड़की पर अपना प्रेम जाहिर कर सकता है, उसे आसानी से अपनी ओर आकर्षित कर अपने बिस्तर तक ला सकता है। (पृष्ठ-)186
तो यह है डार्क नाइट या कबीर का सच। उसका प्रेम 'बिस्तर' से आगे का नहीं है। लेखक जिसे आध्यात्मिक संकट बता रहा है वह आध्यात्मिक नहीं मात्र वासना पूर्ति का संकट है।
वह हर लड़की से यही चाहता है।
"कबीर, क्या तुम प्रिया को बिलकुल भूल जाना चाहते हो?"- माया ने धीमी आवाज में पूछा।
" माया, मैं तुम्हें चाहता हूँ, और तुम्हारे लिए मैं सब कुछ भूलने को तैयार हूँ।"- कबीर ने भावुक स्वर में कहा। (पृष्ठ-166,67)
कबीर ही नहीं प्रिया भी इसी प्रकार की पात्र है। "हाँ, कबीर मुझे माया से जलन हो रही है। माया में ऐसा क्या है, क्या वो मुझसे ज्यादा हाॅट है? मुझसे ज्यादा सेक्सी है? मुझसे ज्यादा सुंदर है?"(पृष्ठ-176)
एक तो यह पता नहीं चलता की लेखक आखिर साबित क्या करना चाहता है। लेखक उपन्यास का आरम्भ/ लेखकीय में बहुत उच्च कोटि की दार्शनिकता दिखाता है लेकिन उपन्यास की कहानी उससे जरा भी नजदीक नहीं है। लेखक जहां देह से परे के सौन्दर्य की बात करता है लेकिन पूरा का पूरा उपन्यास मूर्त सौन्दर्य तो क्या स्त्री की नाभि से भी उपर नहीं उठ पाता।
उपन्यास का नायक हो सकता है किसी कुण्ठा का शिकार रहा हो, उसकी दमित इच्छाएँ हो, लेकिन क्या यह लेखक का भी अनुभव है....?
उपन्यास का नायक अपने योग गुरु से मिलता है। जी हां, योग गुरु से। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से योग आपकी कलुषित विचारधारा को भी शुद्ध कर देता है। लेकिन उपन्यास पढकर लगता है जैसे लेखक ने योग का नाम ही सुना है वह भी योगा रूप में। जहां 'भोग से समाधि की ओर' की चर्चा चलती वहीं यह उपन्यास योग से भोग की ओर संकेत करता नजर आता है।
भक्तिकाल के भक्त कवि कबीर ने कहा है-
जाका गुरु भी अँधला, चेला खरा निरंध ।
अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत ।।
अज्ञानी गुरु का शिष्य भी अज्ञानी ही होगा। ऐसी स्थिति में दोनों ही नष्ट होंगे। यहाँ नायक कबीर और उसके गुरु काम, दोनों का स्वभाव एक जैसा ही है। लेखक चाहता तो कम से कम योग गुरु को तो सही दिखा सकता था लेकिन उपन्यास के अंत तक पहुंचते पहुंचते योग गुरु भी कामवासना से आगे नहीं बढ पाता।
साहब, आप सिर्फ 'ओम' का उच्चारण ही शुद्ध रुप से करते रहो, तो भी आपका आत्मा पवित्र हो जायेगी। यहाँ तो आपने लिख दिया योग गुरु लेकिन उस गुरु को भी योग की समझ नहीं है।
उपन्यास के कुछ संवाद बहुत अच्छे और रोचक हैं। अगर उपन्यास की कोई विशेषता है तो सिर्फ संवाद हैं।
- प्रेम में समर्पण का अर्थ है....अपने प्रेमी का संबल और सम्मान बनना...।(पृष्ठ-213)
- एक औरत किसी मर्द से क्या चाहती है....थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा सम्मान, थोड़ी सी हमदर्दी, थोड़ा सा विश्वास। (पृष्ठ-120)
लेखक ने एक तरफ तो ब्रिटेन का स्वच्छंद वातावरण चित्रित किया है। वहीं माया और कबीर के संबंध पर लिखता है।
आॅफिस में भी यह फुसफसाहट होने लगी थी, कि कबीर और माया के बीच कुछ गड़बड़ है। (पृष्ठ163)
इतने स्वच्छंद वातावरण में यह फुसफुसाहट क्यों?
उपन्यास का सच तो यह है की लेखक ने उपन्यास के लेखकीय में जो बहुत उच्च कोटि का दर्शन दर्शाया है वहाँ तक स्वयं भी पहुंच नहीं पाया। उपन्यास नायक कबीर के शब्दों में - "कबीर ने नशे में बात कुछ गहरी ही कह दी थी, मगर उसे खुद अपनी बात का मकसद समझ में नहीं आया था।" (पृष्ठ-180)
यह बात इस उपन्यास के लेखकीय पर सत्य साबित होती है।
उपन्यास में अश्लील चित्रण ज्यादा है, हद से ज्यादा है। लेखक शायद अश्लीलता बेचना चाह रहा है। लेखक वह होता है जो विकृत को भी सुंदर ढंग से प्रस्तुत करे। लेकिन यहाँ तो सुंदर को विकृत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। किसी बुरी चीजों को एक अंग्रेजी नाम देने से उसकी सुंदरता नहीं बढती। उपन्यास को मात्र 'इरोटिक' कह देने मात्र से उसकी अश्लीलता खत्म नहीं हो जाती। यह मात्र हल्की लोकप्रियता प्राप्त करने जैसा है।
निष्कर्ष-
यह उपन्यास एक अच्छी थीम से आरम्भ अवश्य होता है लेकिन उस पर स्थिर नहीं रह पाता। लेखक ने 'इरोटिक' शब्द देकर स्वयं को 'साहित्य का दिनेश ठाकुर' बनाने की कोशिश की है।
यह उपन्यास अश्लीलता से आगे बढ ही नहीं पाया। बात चाहे नारी के श्रृंगार से परे की सौन्दर्य की हो लेकिन वह लेखक की नजर में सौन्दर्य नाभि से नीचे ही रहा है।
मैं इस उपन्यास को न पढने की राय देता हूँ।
हालांकि किसी एक रचना से किसी लेखन को नकारा नहीं जा सकता। संदीप नैयर जी की 'समरसिद्धा' भी एक रोचक उपन्यास बतायी जाती है। वह एक काल खण्ड की कथा है, इस तरह के उपन्यास मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। अब 'समरसिद्धा' पठन की कतार में है।
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उपन्यास- डार्क नाइट
लेखक- संदीप नैयर
ISBN- 978-93-87390-03-4
प्रकाशक- redgrab
www.redgrabbooks.com
पृष्ठ-
मूल्य- 175₹, $8
लेखक संपर्क- info@sandeepnayyar.com
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