Tuesday 3 July 2018

124. खून की प्यासी- अनिल मोहन

घर में तीन सदस्य एक गायब....और शेष दोनों पर शक।
खून की प्यासी- अनिल मोहन, थ्रिलर उपन्यास।
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"प्रणाम भाभी।" एयरपोर्ट से बाहर आते ही राजेश ने प्रसन्नता भरी मुद्रा में चालीस वर्षीय विमला देवी के पांवों को छूकर कहा-"सब ठीक हैं ना?"
        "सब ठीक है देवर जी।"- विमला देवी ने उसके सिर पर आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ रखकर हँसते हुए कहा-" अमेरिका से काॅर्स ठीक तरह पूरा करके आये हो ना?"
"बिलकुल भाभी। बिजनेस मैनेजमेंट में टाॅप किया है। अब भैया के साथ सारे बिजनेस को संभालूंगा, ताकि उनके कंधों का बोझ कुछ कम हि सके।"- राजेश ने कहा।(पृष्ठ-07)
             वीरेन्द्र प्रताप सिन्हा का छोटा भाई राजेश जब अमेरिका से अपना काॅर्स पूरा करके घर लोटा तो उस तीन सदस्य घर में खुशी का माहौल था। लेकिन एक छोटी सी फोन काॅल ने सारी खुशियों को ग्रहण लगा दिया।
" जी हां, कौन हैं आप?" वीरेन्द्र प्रताप ने शांत लहजे में कहा।
"आपका शुभचिंतक.........आपका छोटा भाई राकेश आपके खिलाफ बहुत गहरी साजिश रच रहा है। ताकि वह करोङों‌ की दौलत का अकेला मालिक बन सके...और...।" (पृष्ठ-10,11). 
   
            वीरेन्द्र प्रताप सिन्हा की पत्नी विमला देवी का अपहरण हो गया और इल्जाम‌ लगा  वीरेन्द्र सिन्हा के छोटे भाई राजेश पर।  दुसरी तरफ राजेश ने इल्जाम‌ लगया मैनेजर पंकज वर्मा पर।
राजेश के सबूत और गवाह झूठ साबित हुए और दूसरी तरफ पंकज वर्मा गायब था।
      
       तो फिर सत्य क्या था?
-विमला देवी को गायब किसने किया?
- पंकज वर्मा ने या राजेश ने?

              वीरेन्द्र सिन्हा ने भी अपनी पत्नी को ढूंढने की बहुत कोशिश की पर कोई सबूत हाथ न लगा।
  06 माह बाद जब इस केस को‌ पुन: खोला गया तो फिर एक के बाद एक ऐसे रहस्य सामने आनर लगे की सभी दंग रह गये।
       कहानी एक ऐसे मोङ पर जा पहुंची जहाँ तक कोई सोच भी नहीं सकता था। अपराधी वर्ग का बिछाया हुआ एक ऐसा जाल था जिसमें एक- एक कर सभी उलझते चले गये। स्वयं पुलिस विभाग भी हैरान रह गया।
        
         उपन्यास की कहानी मध्यांतर तक बहुत ही रहस्यात्मक ढंग से आगे बढती है और पाठक आश्चर्यचकित सा रह जाता है। जब एक-एक कर रहस्य से पर्दे उठते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन उपन्यास मध्यांतर के पश्चात अपनी गति खोती नजर आती है।
  पहले उपन्यास में जहाँ रहस्य था वहीं बाद में उपन्यास बदला प्रधान फिल्म की तरह हो जाती है। अपराधी वर्ग से बदला लिया जाता है।
          अब एक-एक अपराधी मारे जाते हैं। आखिर इनको मार कौन रहा है। किसी को कुछ भी पता नहीं चलता लेकिन जब अंत में कातिल सामने आता है तो एक झटका सा लगता है की यार किस को कातिल ठहरा दिया।

             उपन्यास अच्छा था, उपन्यास का आरम्भ बहुत अच्छा था, मध्यांतर तक उपन्यास शानदार था लेकिन‌ बाद में अपराधियों से बदला ले‌ने के लिए उपन्यास अपने मूल तथ्य से भटक जाता है।

खून की प्यासी- उपन्यास का शीर्षक भी एक ऐसे व्यक्ति पर आधारित है जैसे जादूगर द्वारा पिटारे में से कबूतर निकाल गया हो।

कमियां- मुझे उपन्यास के अंत यह नहीं पता चला की वीरेन्द्र सिन्हा को अपने भाई राजेश के प्रति सजग करने वाला वह शुभचिंतक कौन था?
  और उसने वीरेन्द्र सिन्हा को फोन क्यों किया?

निष्कर्ष-               उपन्यास का आरम्भ और कहानी बहुत जबरदस्त है। उपन्यास में एक के बाद एक रहस्य पाठक को जबरदस्त झटका देने वाले हैं। कहानी बहुत घुमावदार है। पाठक को जब लगता है यह अपराधी होगा तो तब अगले पृष्ठ पर धारणा बदल जाती है। ऐसा कई बार होता है लेकिन यह रहस्य-रोमांच उपन्यास के मध्य भाग से पूर्व तक तो ठीक है लेकिन उपन्यास के मध्य भाग पश्चात उपन्यास अपने साफ इंसाफ नहीं कर पाता और कहानी का अंत/अपराधी जिस व्यक्ति को दिखाया गया है वह भी कोई उचित न लगा।
  उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।
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उपन्यास- खूनी की प्यासी
लेखक- अनिल मोहन
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स मेरठ
पृष्ठ- 222
मूल्य- 60₹

      

3 comments:

  1. मैंने भी काफी पहले पढ़ा था। सही कहा आपने कई जगह चीजें तर्कसंगत नहीं लगती। लेकिन एक बार पढ़ा जा सकता है। मनोरंजन तो होता है। अनिल जी को मैंने जितना पढ़ा है उसमें यही नोटिस किया है कि उनकी कमजोरी अंत है। वो घुमावदार कथानक को लिखते हैं लेकिन अंत तक उसे तर्क के साथ मेन्टेन नहीं कर पाते। (ये मेरे विचार खाली उनके उन उपन्यासों को पढने के बाद हैं जो अभी तक मैंने पढ़े हैं।)
    इस पुस्तक पर मेरे विचार ये रहे:
    http://vikasnainwal.blogspot.com/2014/12/khoon-ki-pyasi-anil-mohan.html

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  2. मुझे प्राइवेट जासूस अर्जुन भारद्वाज का दारोगा उपन्यास चाहिए

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