ब्रांच लाइन- दत्त भारती
ब्रांच लाइन की उपन्यास की कहानी जानने से पहले हम इस उपन्यास के प्राप्त होने की और इस से संबंधित कुछ रोचक कहानियां जान लेते हैं। जहां एक तरफ लोगों का पुस्तक पठन से रुझान कम हुआ है वहीं कुछ ऐसे पाठक भी हैं तो अंतिम सांस तक पढना ही चाहते हैं।
यहां मैं दो पुस्तक प्रेमियों का वर्णन कर रहा हूं और दोनों ही दत्त भारती जी के प्रशंसक हैं और एक उम्र विशेष में पहुकर सिर्फ दत्त भारती जी को ही पढना चाहते हैं। एक हैं गाजियाबाद से सतीश जी और दूसरे हैं राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले से श्री मनीराम जी सहारण। मनीराम जी की उम्र अस्सी वर्ष है और आज भी पढने की इच्छा खत्म नहीं हुयी । दत्त भारती जी को पढना पसंद करते हैं और आज भी उनके उपन्यास खोज-खोज कर पढ रहे हैं। ऐसी ही एक खोज के दौरान मनीराम जी को मेरा नम्बर ब्लॉग से मिला और उन्होंने एक उपन्यास का जिक्र किया जो उनके अनुसार मेरे पास उपलब्ध था हालांकि वह किताब ढूंढने पर भी मुझे मेरे संग्रह में न मिली । वह दत्त भारती जी का उपन्यास 'दहलीज' था।
यहाँ से मनीराम जी से बातों का सिलसिला चला और आज भी चल रहा है। उन्होंने बताया की परिवार के सदस्य कहते हैं अब तो बहुत उम्र हो गयी, अब तो पढना बंद कर दीजिए और सामने से मनीराम जी ने उत्तर दिया- अब तो उम्र हो ही गयी, अब तो पढने दीजिए।
यह होता है पुस्तकों से प्रेम, यह होता एक सच्चा पुस्तक प्रेमी। मनीराम जी को जितना पुस्तकों से प्रेम है उतना अपना पारिवारिक दायित्व भी समझते हैं।
श्री मनीराम जी मुझे एक सूची दी थी और उस सूची में नाम था उपन्यास 'ब्रांच लाइन' का और बहुत कोशिश के पश्चात यह उपन्यास मिला और मिला भी इसका पंजाबी अनुवाद। क्योंकि 'ब्रांच लाइन' की पृष्ठभूमि पंजाब की है और किसी ने इसका अच्छा पंजाबी अनुवाद किया था।
अब मैंने कोशिश की क्यों न पंजाबी अनुवाद से इसका हिंदी अनुवाद किया जाये। कोशिश आरम्भ हुयी पर 10-15 से आगे बात न बढी। क्योंकि मुझे लग रहा था पंजाबी से हिंदी अनुवाद करते वक्त पात्रों के भाव खत्म हो जायेंगे ।
इसी बीच मित्र जय मंदेरना जी से बात हुयी तो कुछ किताबें उन्होंने भी भेज दी । हां, इसी मध्य मनीराम जी द्वारा भेजी गयी काफी साहित्यिक किताबें मुझे मिलती रही, उनका हार्दिक धन्यवाद।
May 2025 में सैलर कासिफ जी ने कुछ पुस्तकें sell के लिए डाली तो उनमें मुझे 'ब्रांच लाइन' मिल गयी। और यहां भी देखिए कासिफ जी ने बिना कोई किताब या डाक खर्च लिये वह किताब मुझे भेज दी।
देखिए एक किसी पाठक की वांछित किताब कैसे घूम कर आगे से आगे चलती हुयी इच्छुक व्यक्ति तक पहुंचती है।
मैं धन्यवाद करता हूँ उन सभी साथी मित्रों/ पाठकों का जिन्होंने दत्त भारती जी की किताबें उपलब्ध करवाने में सहयोग किया ।
अब बात करते हैं उपन्यास -ब्रांच लाइन की।
सबसे पहले उपन्यास का प्रथम दृश्य देखते हैं-
रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म नहीं था। गाड़ी रुक रही थी। अमर दरवाजे में खड़ा उस छोटे से स्टेशन का निरीक्षण कर रहा था जो ई० पी० आर० की बाँच लाइन के स्टेशन का अवशेष-सा प्रतीत होता था । जानी-पहचानी सीमा, डेढ़ कमरे पर आधारित स्टेशन की बिल्डिंग और एक बाबू जो स्टेशन मास्टर, टिकट कलेक्टर, बुकिंग क्लर्क और टेलीग्राम क्लर्क के सम्पूर्ण कर्तव्य निभाता है, अपनी विशेष मुद्रा में टूटे हुए जंगले के पास खड़ा था ।
अमर ने सोचा, हर इन्सान के जीवन की गाड़ी प्लेटफार्म पर नहीं खड़ी होती और कई जीवन तो ब्रांच लाइन स्टेशन की तरह होते हैं, जहाँ एक ही बाबू होता है और वह हर काम करता है। एक ऐसा स्टेशन जिसका प्लेटफार्म ही नहीं होता ।
अमर ने अपनी टाई की गिरह ठीक करके वातावरण का निरीक्षण किया। उसके चेहरे पर पल को उच्च भावना-सी उत्पन्न हुई कि टाई लगाने वाले व्यक्ति को ऐसे स्टेशन पर न उतरना चाहिए ।
अन्तिम हिचकी लेकर गाड़ी एक गई। अमर चार-साढ़े चार फीट नीचे की जमीन पर कूद पड़ा। उसे सम्भवतः धीरे-धीरे उत्तरना अच्छा नहीं लगा ।
गाड़ी रुक गई तो उसने स्टेशन पर दृष्टि दौड़ाई। इस विचार से कि कहीं कुली दिखाई देगा, लेकिन वहां कुली कहां था ! कुछ देहाती भी उस स्टेशन पर उतरे थे ।
कहानी का मुख्य पात्र अमर है, जो की एक शहरी युवक है। अमर बिलकुल अकेला है, परिवार में उसके अतिरिक्त कोई जीवित सदस्य नहीं है। 150 रुपये की नौकरी करने वाले अमर के पास पुश्तैनी जायदाद है और फिर उसे अपने किराये पर दिये मकान से भी आय होती है ।
अमर के चचेरे भाई की शादी पंजाब के एक गांव में हुयी है। अपनी भाभी के कहने पर अमर अपनी भाभी विमला की चचेरी बहन निर्मल को देखने गांव आता है। हालांकि गांवों में तब ऐसे लड़के-लड़की देखने का रिवाज न था पर अमर अपनी भाभी से मिलने के बहाने निर्मल को देखने आता है।
वह कुछ दिन अपनी भाभी के पास रहा और उसे निर्मल पसंद थी, निर्मल को अमर भी पसंद था। दोनों में थोड़ी बहुत बातचीत और शरारतें भी चलती रही, उन दिनों निर्मल के पिताजी घर पर नहीं थे।
पर समय को कुछ और पसंद था। निर्मल की शादी अमर अए न होकर एक नौकरीपेशा व्यक्ति से हो गयी जिसकी आय तीन सौ रुपये माह थी। हालांकि वह व्यक्ति मनोहर निर्मल के अनुरूप न था।
निर्मल से शादी के सपने संजोय बैठे अमर के हृदय को गहरी ठेस लगी - उसे पहली बार महसूस हुआ कि वह बेखुदी में और सोचे-समझे बिना निर्मल के प्रेम में गिरफ्तार हो गया था । निर्मल से वह शादी करने न जा रहा था और अब उसके नन्हें दिल पर हथौड़े चलाये जा रहे थे। वह जवान था, खूबसूरत था, जायदाद का मालिक था, नौकरी कर रहा था और समाज के नैतिक दृष्टिकोण के अनुसार शराब तो दूर सिगरेट तक का व्यसन नहीं करता था-फिर ऐसा क्यों हुआ ?
लेकिन अब क्या हो सकता था ? उसकी भाभी ने बहुत समझाया, किसी और लड़की से शादी करवाने की बात की, पर अमर के हृदय में तो बस निर्मल ही थी । जवान लड़का पहली मोहब्बत को कैसे भूल सकता था।
उसके हृदय में दर्द और गुस्सा दोनों ही थे। इसी दर्द और गुस्से में उसने एक अजीब निर्णय लिया । अपनी भाभी विमला के कहे अनुसार, बिना देखे ही उसने भाभी की चचेरी एक और बहन शक्ति से शादी की अनुमति दे दी ।
- वह निर्मल को अगर पत्नी न बना सका तो साली बनायेगा और यह इसीलिए करेगा ताकि उसका सामीप्य प्राप्त रहे ।
हर गाड़ी मेन लाइन पर नहीं चलती है। कुछ गाड़ियों ब्रांच लाइन पर चलती हैं, और वहाँ से मेन लाइन पर आती हैं।
निर्मल यदि पत्नी न बन सकी तो साली बन जायेगी-यानि गाड़ी ब्राँच लाइन पर चल निकलेगी ।
जिस दिन वह निर्मल को देखने गया था उस दिन उसे निर्मल के गाँव में पहुँचने के लिए ब्राँच लाइन की गाड़ी पर सफर करना पड़ा था-और अब भी जिन्दगी ब्राँच लाइन पर जा रही थी ।
यही ब्रांच लाइन वाला निर्णय उसके लिए घातक सीद्ध हुआ। बिना देखे उसने शक्ति से शादी की अनुमति दे दी, लेकिन शादी करने पर उसे पता चला की शक्ति काले रंग की बदसूरत लड़की ही नहीं ब्लकि असभ्य और फूहड़ भी है।
अमर शादी के बाद भी शक्ति को पत्नी रूप में स्वीकार न कर सका और दिल्ली में निर्मल को बसाये वह धीरे-धीरे किरायेदार लड़की 'राज' से मोहब्बत करने लगा ।
एक तरफ अमर की पत्नी शक्ति है, दूसरी तरफ दिल में निर्मल की याद है और तीसरी तरफ 'राज' का सामीप्य है।
सिगरेट और शराब को हाथ ल लगाने वाला अमर अब शराब और सिगरेट के बिना अधूरा था । उसका जीवन अब इन्हीं के सहारे ही आगे बढ रहा था । और यह जीवन कहां जाकर ठहरेगा, यह उपन्यास पढकर ही जाना जा सकता है।
उपन्यास की मूल कहानी एक युवक अमर और उसके प्यार की है। उसके जीवन में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं। वहीं निर्मल के परिवार वाले अपनी लड़की शादी सिर्फ धन देखकर करते हैं।
कहानी काफी भावुक और दिलचस्प है। जो पृष्ठ दर पृष्ठ पाठकों को प्रभावित करती है।
उपन्यास का मुख्य पात्र अमर है लेकिन यह एक विरोधाभासी पात्र है, हालांकि लेखक महोदय ने अमर के विषय में एक दो जगह लिखा है कि अमर एक खुशमिजाज लड़का है पर वास्तव में उसका चरित्र अजीब सा है।
जब वह पहली बार अपनी भाभी से मिलने गांव जाता है तो वह चाहता है टिकट चैकर उसे 'साहब' कहे। वह चाहता है अपना हाई क्लास रेल्वे टिकट दिखा कर लोगों को प्रभावित करूं, वह चाहता की लोग सम्मान दें।
वहीं जब शक्ति से उसकी शादी होती है तो वह विदाई के समय हंगामा खड़ा कर देता है।
अपनी पत्नी शक्ति को पीटता है, गर्भवती शक्ति का बच्चा खत्म हो जाता है।
अमर के मन में शादी और राज के सामीप्य के बाद भी निर्मल हृदय में बसी है।
वह प्रेम के क्षेत्र में चाहे एक भावुक व्यक्ति है पर वास्तविक रूप से अपरिपक्व और स्वयं तक सीमित सोच का व्यक्ति है।
उपन्यास में निर्मल के पति मनोहर का किरदार काफी रोचक है, वह पैसे को महत्व देने वाला और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने वाला पात्र है। उसकी हरकतें हास्यजनक होती हैं।
इस उपन्यास से संबंधित एक कहानी अभी और बाकी है। और वह कहानी है 'मीता रानी' की। कौन मीता रानी ?
इस उपन्यास पर मीता रानी के हस्ताक्षर हैं और कुछ टिप्पणियां है, वह टिप्पणियां उनके सामाजिक विश्लेषण को प्रकट करने में सक्षम हैं।
एक उदाहरण देखें-
'अब जाने दीजिये, मेरा ख्याल है यह शक्कर का दोष नहीं है, आपके हाथ में मिठास बहुत होगी ।'
निर्मल लाज से दोहरी हो गयी ।
यह दृश्य उस समय का है जब निर्मल अमर को दूध का गिलास देती है और अमर उस से मजाक करता है की दूध में मिठास ज्यादा है।
अब इस पर मीता रानी जी की यथार्थवादी टिप्पणी देखें।-
सब बनावटी बातें हैं।
आगे तमाम जिंदगी का रोना शेष रह जायेगा।-मीता रानी
एक और रोचक टिप्पणी उस समय की है जब अमर अपनी भाभी के गांव से,निर्मल को पसंद कर के वापस जाता है।
गांव से विदा होते, तांगे में बैठे अमर की आंखों में विछोह के आंसू थे।
इस पर मीता रानी जी की टिप्पणी देखें-
शुरु -शुरु में बेटे ऐसा ही होता है।
आगे जा कर मालूम पड़ेगा।
इस उपन्यास पर अज्ञात मीता रानी जी की तीन टिप्पणियां हैं।
लिखी प्रथम टिप्पणी थी रेल्वे स्टेशन से संबंधित ।
उपन्यास की पंक्ति- रेल्वे स्टेशन का प्लेटफार्म नहीं था।
मीता रानी ने लिखा- रेल भी नहीं थी।
मीता रानी जी को धन्यवाद।
उपन्यास- ब्रांच लाइन
लेखक- दत्त भारती
प्रकाशक- विजय पॉकेट बुक्स, दिल्ली
पृष्ठ- 173
दत्त भारती जी का एक उपन्यास मैंने भी पढ़ा था। उसका किरदार भी कुछ ऐसा ऐसा ही था। अपनी पत्नी की शादी तो वो नैतिकता के कारण उसके प्रेमी से करवा देता है लेकिन फिर उसके बिछोह में सब नैतिकता छोड़ देता है। इसका किरदार भी कुछ उसी प्रकार का लग रहा है। रोचक टिप्पणी। मिलता है तो पढ़ने की कोशिश रहेगी।
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