मोह में जकड़ा एक निर्मोही
निर्मोही- कुशवाहा कांत, उपन्यास
निर्मोही- कुशवाहा कांत, उपन्यास
निर्मोही एक ऐसे युवक की कहानी है जिसे 'मोह' तो हर किसी से है लेकिन परिस्थितियों और अपने स्वभाव के चलते वह सभी के लिए 'निर्मोही' ही साबित होता है। यह एक युवक के दर्दभरे जीवन की संघर्ष गाथा है।
मई-2020 में मैंने कुशवाहा कांत के उपन्यास पढने की नीति बनाई थी और उसी क्रम में यह मेरा चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व मैंने कुशवाहा कांत के इसी माह में क्रमश 'अकेला', 'काला भूत', 'अपना-पराया' आदि उपन्यास पढे। और अब 'निर्मोही' की चर्चा।
यह कहानी है मधुकर नामक एक बेरोजगार युवक की। जो अपनी माँ के साथ मकान मालकिन दादी के पास रहता है। दादी भी अकेली है इसलिए वह भी मधुकर को अपना बेटा समझ कर पोषित करती है।
लेकिन मधुकर का जीवन भंवरे की तरह है जो कहीं भी स्थिर नहीं रहता। इसके जीवन में जो भी आता है वह उसी जो समर्पित हो जाता है, जो पीछे रह गया उसे विस्मृत भी कर देता है। मधुकर को इस व्यवहार के लिए उसकी आदत कहें, सहानुभूति की भूख कहे या निर्मोही कहें, लेकिन अपने इसी व्यवहार के चलते मधुकर एक समय जिसके लिए प्रिय तो दूसरे समय में वह उसके लिए नफरत का पात्र भी बन जाता है।
मधुकर को एक साथी की आवश्यकता है, जो उसके अव्यवस्थित जीवन के साथ चिपककर उसे क्रमानुसार कार्य करने को बाध्य करे, जो अपनी सहानुभूति से उसकी आँखों के आंसू सुखा सके, जो उसके तड़पते हुए दिल को अपने कलेजे से लगा कर उसकी हर पीड़ा को हर ले, जो उसके शिथिल शरीर में अपना खून डालकर उसे शक्ति प्रदान करे, जो उसकी उजड़ी दुनिया में, सुख-शांति की वर्षा कर हराभरा करे। (पृष्ठ-45)
इसी साथी की तलाश कंचन पर पूर्ण होती है। वह कंचन के साथ एक नया संसार बना लेता है- दो पंक्षी, जो दुनिया के बंधनों से परे एक अलग दुनिया बसाने की धुन में थे। जो प्यार भरी राशि से तिनके चुन चुन कर अनोखा नीड़ तैयार करना चाहते थे। (पृष्ठ-21)
वह कंचन के प्रेम में इतना लिप्त हो जाता है की वह अपनी माँ की नजर में निर्मोही बन जाता है और फिर माँ के पास आने पर वह कंचन के लिए निर्मोही बन जाता है। यह सिलसिला यही नहीं ठहरता अनवरत चलता रहता है फिर चाहे वह दादी हो, कला हो या रिबेला सभी उसे निर्मोही ही मानते हैं।
इसलिए मधुकर के लिए एक नारी ने कहा- एक नारी के हृदय में प्रेम और घृणा का साथ-साथ संघर्ष तुम्हारे लिए नवीन अनुभव की वस्तु प्रतीत होगी, परंतु नारी हृदय की महानता तुम जैसे निर्मोही पुरुष क्या जान सकेंगे? (पृष्ठ-157)
कंचन के प्रेम से विलग हो, जीवन जैसे मित्र का त्याग कर, माँ की यादों के सहारे नये मित्रों की दुनिया में चला जाता है लेकिन उसका व्यवहार यथावत रहता है और यही व्यवहार उसके जीवन में नयी-नयी परेशानियां पैदा करता है।
उपन्यास का मुख्य नायक मधुकर और उसका निर्मोही- स्वभाव है। वह कहीं भी एक जगह स्थिर नहीं रह पाता और इसी स्वभाव के चलते कुछ दुश्मन भी बना लेता है जो उसके जीवन में रूकावट पैदा करते हैं।
उपन्यास का दुखांत एक सिहरन पैदा कर जाता है। हालांकि यह एक तरह से उसके कर्मों की सजा रूप में अंत दर्शाया गया है वैसे अंत अन्य तरीके से भी हो सकता था।
मधुकर के जीवन की एक विशेषता भी है और वह है उसकी ईमानदारी और सरल स्वभाव। वही जीवन के साथ उसकी घनिष्ठता भी इसी स्वभाव के चलते है।
एक था गरीब-एक था अमीर। मगर दोनों में प्रगाढ मित्रता थी। जीवन कभी यह न सोचता था, कि वह धनवान है, उसे एक निर्धन से मित्रता नहीं करनी चाहिए...और न तो मधुकर ही कभी यह सोचता था कि वह गरीब है, उसे एक अमीर का सहानुभूति नहीं प्राप्त करनी चाहिए।(पृष्ठ-12)
एक अव्यवस्थित युवक के प्रेम-मोह और निर्मोह स्वभाव की यह रोचक कहानी चाहे रोमांच पैदा न करे लेकिन यथार्थ के बहुत नजदीक प्रतीत होती है। हालांकि उपन्यास में बहुत सी कमियां है, शिथिलता है, अनावश्यक प्रसंग भी है जो उपन्यास में भटकाव पैदा करते हैं। फिर भी सामाजिक उपन्यास की दृष्टि से उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।
उपन्यास- निर्मोही
लेखक- कुशवाहा कांत
प्रकाशक- डायमंड पॉकेट बुक्स
पृष्ठ- 172
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