Saturday 19 August 2023

571. लाश की जिंदा आँखें- टाइगर

बैंक डकैती और आँखों का रहस्य
लाश की जिंदा आँखें- टाइगर
प्रथम भाग
 वह एक लाश में तबदील हो चुका था और उसकी लाश खंडाला घाट की हजारों फुट गहराई में धकेली जा चुकी थी लेकिन उसकी आंखें फिर भी जिंदा थीं। उन आंखों ने बहुत कहर ढाया, उत्पात मचाया लेकिन उन आंखों का रहस्य कोई न जान पाया।
कैसा अनसुलझा रहस्य था वो, आंखें तो जिन्दा थी, मगर इन्सान लाश में तबदील हो चुका था।
(उपन्यास के अंतिम आवरण पृष्ठ से)
लाश की जिंदा आँखें- टाइगर

 राजा पॉकेट बुक्स के लेखक 'टाइगर' के उपन्यास रहस्य-रोमांच के साथ-साथ हास्य से परिपूर्ण होते हैं। इनका रहस्य जितना कथा में होता है उतना ही उपन्यास शीर्षक में भी। उपन्यास शीर्षक देखें- लाश की जिंदा आँखें, मुँह बोला पति जैसे शीर्षक पाठक को सहज ही आकृष्ट कर लेते हैं। उस पर अगर आप टाइगर के नियमित पाठक हैं तो आपको पता ही है टाइगर के उपन्यासों में जो कथा कहने का तरीका, हास्य रस और आमजन पात्रों का वर्णन होता है वह बहुत प्रभावित करता है।
   प्रस्तुत उपन्यास 'लाश की जिंदा आँखें' अपने समय का अत्यंत चर्चित उपन्यास रहा है। इसका कथानक एक बैंक डकैती से आरम्भ होता है।
कथा का मुख्य पात्र है बाबू राव पेंडरकर जो एक सजाप्राप्त, उम्रदराज व्यक्ति है और उसके साथ है उस जैसे ही तीन और सदाबहार दोस्त।
बाबूराव पेंडरकर के गिरोह में उसके तीन साथी थे-मनोहर, सदाशिव और गुरमेलसिंह उर्फ बिल्ला। बाबूराव उम्रदराज आदमी था, जबकि उसके तीनों साथी अभी जवान थे। बाबुराव एक ऐसा हाथ मारा चाहता था कि उसके बाद फिर उसे या उसके किसी भी साथी को दोबारा जुर्म की दुनिया में कदम न रखना पड़े। इस बात को मद्देनजर रखते हुए उसने अपने तीनों साथियों के साथ पूना शहर के करीब 'खड़की' नामक जगह पर स्थित नेशनल बैंक पर डाका डालने की योजना बनाई।
     बिल्ला की एक प्रेयसी है सोना। जिसे बिल्ला ने शादी के स्वप्न दिखा रखे हैं।  और सोना का भाई बालेराम एक आवारा किस्म का व्यक्ति है। 
नेशनल बैंक के कैशियर का नाम रत्नाकर राव था। आदतन वह अय्याश आदमी था। और बिल्ला इसी रत्नाकर राव को सोना के माध्यम से अपने जाल में फसाता है, लेकिन सब कुछ होने के बाद तक भी सोना हर बात से अनजान होती है। 
 जहाँ एक तरफ बाबूराव और साथी बैंक डकैती की योजना को अंजाम देने की तैयारी करते हैं वहीं सोना के भाई बालेराम को कुछ खिचड़ी पकती नजर आती है। तो वह अपने दो साथियों, भीमराव पहलवान और नेपाली को साथ ले बाबूराव के गिरोह की खुफिया निगरानी पर डट गया।
  तो यहाँ तक उपन्यास में दो दल नजर आते हैं। एक बाबू राव का जो डकैती की योजना बनाता है और द्वितीय बालेराम का जो 'चोर पर मोर' कहावत चरितार्थ करना चाहता है। और इनके बीच की कड़ी है बालेराम की बहन और बिल्ला की प्रयेसी सोना।
 अब चलते हैं कहानी के एक और पक्ष की तरफ जहां मुख्य पात्र है अशोक प्रधान, फिल्म फायनेंसर। एक दुर्घटना के दौरान अशोक प्रधान की आँखें खत्म हो जाती हैं। अशोक प्रधान अपनी पत्नी शालिनी उर्फ शालू से अथाह प्रेम करता है और शालू...। (यह तो आप उपन्यास में पढें तो अच्छा है।) यहां एक पात्र और है वह है महेश जौहरी।
      डाक्टर कामत जो अपने ड्राइवर बैजनाथ का सहयोगी के तौर पर साथ रखते हैं, उनकी इच्छा है अशोक प्रधान की आँखें सही हो जाये और अशोक प्रधान दुनिया देखने के साथ-साथ वह भी देखे जो वहां हो रहा है।
उपन्यास का चौथा पक्ष है गुरमेल सिंह उर्फ बिल्ला का परिवार। जहां उसके माता-पिता और एक भाई हरमेल सिंह है। हरमेल सिंह अपनी माँ से वादा करता है की वह बिल्ला का अपराधी की दुनिया से वापस ले आयेगा।
   तो यह उपन्यास चार पक्षों की कथा को लेकर आगे बढती है और पाठक को पृष्ठ दर पृष्ठ सम्मोहन में बांधे रखती है।
   जहां आरम्भ में एक डकैती का कारनामा प्रभावित करता है और फिर दूसरी पार्टी उस डकैती पर आँखें जमाये बैठी है। यहाँ दोहरा सस्पेंश लेकर चलती है एक बाबूराव और उसके साथियों की डकैती और दूसरा बालेराम और साथियों का 'चोर पर मोर' का कारनामा। पाठक अभी इन दो रोमांच में ही होता है की बीच में अशोक प्रधान की कहानी आ जाती है।
   अशोक प्रधान और उसकी पत्नी और उसके दोस्त का किस्सा भी प्रभावित करता है। और इनके साथ-साथ डाक्टर कामत का किरदार पाठक को रोमांच से भर देता है और उसके साथ बैजनाथ भी।
     अभी कहानी इन तीनों के रहस्य से बाहर भी नहीं निकलती की बिल्ला के परिवार और उसके भाई हरमेल का किरदार तो पाठक को और भी ज्यादा रोमांचित करता है।
   यहां एक बात और भी गौर करने योग्य है और वह है इन चार पक्षों के मध्य एक ना एक ऐसा पात्र है जो सभी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे से संबंध बनाये रखता है। जैसे बाबूराव और बालेराम के मध्य सोना का होना, अशोक प्रधान और बाबूराव के मध्य बिल्ला का होना।
 उपन्यास टाइगर का हो और उसमें हास्य न हो यह तो संभव ही नहीं। यहाँ भी दो पात्र हैं, पुलिस विभाग से एस. आई. गणेशीराम और उनका सहयोगी शीतला प्रसाद। दोनों की जोड़ी रोचक और मजाकिया है। हालांकि अभी तक दोनों का किरदार उपन्यास में कम आया है।
  पुलिस विभाग से इंस्पेक्टर सचिन वेलंकर और सब इंस्पेक्टर लेंगडे भी हैं, जो बैंक डकैती की खोज में व्यस्त हैं।
अब बात  करें शीर्षक 'लाश की जिंदा आँखें' तो यह घटनाक्रम उपन्यास के लगभग अंत में आता है और वह भी पाठक के लिए एक रहस्य बन कर रह जाता है क्योंकि  रहस्य तो इस उपन्यास के द्वितीय भाग 'करिश्मा आँखों का' में खुलेगा। 
लाश की जिंदा आँखें उपन्यास तो आगामी उपन्यास की भूमिका ही तैयार करता है। जब भूमिका इतनी रोचक है तो शेष कथा तो और भी रोचक होगी।  यह सच भी है यह कहानी बहुत ही रोचक और रहस्य लिये हुये है। यहाँ हर एक पात्र पाठक को प्रभावित करता है।
   एक्शन, रोमांच और हास्य से परिपूर्ण यह उपन्यास पठनीय है और पाठक को याद भी रहेगा। 
अगर आपने  टाइगर का 'लाश की जिंदा आँखें' उपन्यास पढा है तो अपनी राय अवश्य बतायें।
उपन्यास- लाश की जिंदा आँखें
लेखक-    टाइगर
प्रकाशक- राजा पॉकेट बुक्स
पृष्ठ-         240
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1 comment:

  1. उपन्यास के प्रति रुचि जगाती समीक्षा। मिला तो पढ़ने की कोशिश रहेगी। आभार।

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