एक डाकू की पश्चाताप कथा
कागज की नाव- गोविंद वल्लभ पंत, 1960
कागज की नाव- गोविंद वल्लभ पंत, 1960
'कागज की नाव' कहानी है दो दोस्तों की और पश्चाताप की।
मेरे विद्यालय 'राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय-माउंट आबू' में 'सरस्वती पुस्तकालय' है। जिसमें लगभग दस हजार से ज्यादा पुस्तकें हैं। हर विषय की किताबें यहाँ उपलब्ध हैं।
इन्हीं किताबों में से गोविन्द वल्लभ पंत का एक छोटा सा उपन्यास पढने के लिए निकाला 'कागज की नाव'।
जैसा की यह दो दोस्तों की कहानी है जो छोटी- मोटी चोरियां कर के अपना जीवनयापन करते हैं। इनके साथ इनका प्यारा कुत्ता विक्टर भी होता है। एक चोरी के दौरान दोनों मित्र विक्टर के साथ एक जंगल में पहुँच जाते हैं जहाँ इनकी मुलाकात एक डाकू से होती है।
एक दिन एक डकैती के दौरान इनके हाथ चाँदनी नामक युवती लग जाती है। वहीं घायल सरूपा मृत्यु से पूर्व प्रताप को गिरोह प्रमुख बना देता है।
गिरोह पण्डित विरुपाक्ष के कहने पर प्रताप रामधन बाबू के यहाँ डकैती करने जाता है जहाँ उसका सामना रामधन बाबू की विधवा जतद्धात्री और उनकी पुत्री सरिता से होता है।
यहीं से प्रपात के मन में वैराग्य जाग जाता है और वह पश्चाताप करने के लिए अपना अपना सर्वस्व अपर्ण कर देता है।
उपन्यास इतना नाटकीय है की पाठक पढते-पढते नीरस हो जाता है। हालांकि उपन्यास का आरम्भ बहुत रोचक है पर यह रोचकता पांच-सात पृष्ठ से ज्यादा नहीं है।
कहीं भी स्पष्ट नहीं होता की प्रताप के मन में वैराग्य क्यों जागता है। वहीं एक तरफ वह वैराग्य की बातें करता हैं तो दूसरी तरफ रामधन बाबू की बेटी सरिता के अपहरण की कोशिश भी करता है। इस विरोधाभास का कहीं स्पष्टीकरण नहीं है।
और अंत में आकर वह पश्चाताप का जो तरीका अपनाता है वह तो अत्यंत नाटकीय है।
निष्कर्ष में बस यही की उपन्यास नीरस और समय की बर्बादी है।
उपन्यास- कागज की नाव
प्रकाशन- अक्टूबर 1960
पृष्ठ-126
प्रकाशक- अशोक पाॅकेट बुक्स, दिल्ली
ओह!! उपन्यास की विषय वस्तु रोचक लगी थी लेकिन लेख से लगा लेखक उसके साथ न्याय नहीं कर पाए। ऐसा होना दुखद होता है।
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