Thursday, 4 December 2025

अधूरी प्यास- दत्त भारती

एक व्यक्ति की जीवनगाथा-
अधूरी प्यास- दत्त भारती
मनुष्य जीवन भी बहुत विचित्र है । इस विचित्र जीवन में न जाने कौन कौन से रंग भरे हुये हैं । न जाने कौनसा रंग सुख देगा और कौनसा दुख । सुख- दुख का संगम ही जीवन है । ऐसे ही संगम के साथ जीवन बीता था हमारे कथानायक जनक का । जिनसे जीवन में सभी रंग थे, पर कब कौनसा प्रभावशाली होगा यह कोई नहीं जानता था । न लेखक, न पाठक और न कथानायक ।


    उपन्यास के प्रथम पृष्ठ से आरम्भ करते हैं इस उपन्यास की समीक्षा ।
फलों की दुकान और मछली की दुकान साथ-साथ थीं । मुझे बालकोनी में खड़े एक घण्टे से अधिक हो गया था। दोनों ग्राहकों के इन्तज़ार में बैठे थे और ग्राहक नज़र न आ रहा था ।

ग्राहक आता भी कहां से ? अभी सिर्फ सवा आठ बजे थे । शाम अभी भीगी भी नहीं थी। अभी तो चिराग़ जले थे और मयखाने आबाद होने शुरू हुए थे। इसी लिए वह सिर्फ दुकान सजा कर ही बैठ सके थे। फल बेचने वाला और मछली बेचने वाला दोनों ही भारी भरकम थे और उन्होंने तोंद छोड़ रखी थी ।
मैंने तो सुना था कि तोंद सिर्फ बनिए ही छोड़ते हैं। लेकिन यह फल बेचने वाला और मछली बेचने वाला किस तरह के पूंजीपति थे जिन्होंने तोंद छोड़ दी थी।
दोनों दुकानें पटड़ी पर थीं। यानी बात यह थी कि कमेटी और पुलिस से मिलकर 'दुकानें' जमाए बैठे थे । बाज़ारे हुस्न की तवायफों की तरह सजधज कर दुकान सजाकर बैठे थे ।