शिलखण्डी से सावधान
टेढा मकान - कर्नल रंजीत
मेजर बलवंत सीरीज
नमस्ते पाठक मित्रो,आज 'SVNLIBRARY' ब्लॉग पर हम लेकर उपस्थित हैं प्रसिद्ध उपन्यासकार कर्नल रंजीत के एक मर्डर मिस्ट्री उपन्यास 'टेढा मकान' की समीक्षा।
इस उपन्यास का घटनाक्रम उत्तर प्रदेश के शहर गाजियाबाद से संबंध रखता है।
तो चलो हम पहले उस मकान के विषय में ही पढ लेते हैं ।
गाजियाबाद के मुकुन्दनगर मुहल्ले की आठवीं गली में एक मकान था, जो एक मंजिल का होते हुए भी बहुत ऊंचा था। अधिक पुराना नहीं था, लेकिन टेढ़ा जरूर था। यह मकान एक बहुत ही कंजूस बूढ़े का था। उस कंजूस बूढ़े के बारे में यह प्रसिद्ध था कि उसके पास सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात का विशाल भंडार है जिसकी वह रात-दिन चौकीदारी करता रहता है और जानबूझकर फटे हाल रहता है। बूढ़े की इस बनी हुई साख ने कि उसके पास सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात का विशाल भंडार है, उसे परेशान कर रखा था । कई बार उसके घर में सेंध लगाई गई। उसके हाथ-पांव और मुंह बांधकर मकान के फर्श की खुदाई की गई। दीवारें जगह-जगह से खोद डाली गई । छतों के शहतीर टटोले गए; लेकिन हीरे-जवाहरात का भंडार किसी को नहीं मिला। चोरों के हाथ बल आठ-दस रुपये या थोड़ी-सी रेजगारी लगी। कंजूस बूढ़ा एक समय में अपने आठ-दस रुपये से अधिक नहीं रखता था। उसके संदूक में पुराने घिसे पिटे और पैबन्द लगे कपड़े भरे रहते थे, जिन्हें चोर भी चुराना अपना अपमान समझते थे । उस कंजूस बूढे का नाम था देवकीनन्दन पराशर । वह स्वयं जैसा था उसे ठीक वैसा ही एक नौकर मिल गया था। उस कंजूस पराशर के नौकर को लोग विद्वान रतनू कहते थे।
एक प्रसिद्ध कंजूस और एक कथित विद्वान । दोनों का इस दुनिया में नितांत अकेले थे और यह अकेलापन उन दोनों ने मालिक नौकर बनकर दूर किया।
और एक दिन बूढा पराशर उस मकान के सबसे गंदे कमरे में एक पुरानी और टूटी हुयी कुर्सी पर मृत्यु पाया गया ।(पृष्ठ-11)
बूढा और कंजूस पराशर तो मर गया लेकिन उसके साथ ही कुछ कहानियाँ प्रचलित हो गयी।
बूढे नौकर रतनू का बयान था कि सागरचंद के भूत ने उसके मालिक को डराकर उसकी जान ली है ।(पृष्ठ-11)
अब यह सागरचंद कौन है और वह भूत कैसे बना यह भी जान लीजिए-
सागरचंद मुकुंदनगर की छठी गली का एक छोटा-सा दुकानदार था, जो बहुत कोशिश करने पर भी अपनी शादी नहीं कर पाया था । विधाता ने उसे बहुत ही बदसूरत बनाया था । घृणा के कारण स्त्रियां उसकी ओर देखती तक न थीं। उसकी दुकान के आगे से मुंह फेरकर निकल जाती थीं। उसकी दुकान पर जो लोग सौदा लेने आया करते थे, गरीब होते थे, क्योंकि वह उन्हें सौदा उधार दे दिया करता था। जिस दिन देवकीनन्दन पराशर की मृत्यु हुई, उससे डेढ़ महीने पहले उसके मकान की एक टूटी हुई खिड़की से बंधी एक मजबूत रस्सी से सागर चंद की लाश लटकी हुई पाई गई थी। (पृष्ठ- 11)
बदसूरत सागरचंद द्वारा कंजूस देवकीनंदन के घर में आत्महत्या और उसके पश्चात स्वयं कंजूस देवकीनंदन की मृत्यु ने पूरे गाजियाबाद शहर को अफवाह और डर से भर दिया था।
और फिर जानकीबाई की रहस्यमयी मृत्यु ने आग में घी का काम किया था । लोगों का कहना था यह काम भूतों का है आखिर बंद कमरे में कोई स्त्री की रहस्यमयी तरीके से मृत्यु कैसे हो सकती है।
जहाँ शहर में भूत और डर का वातावरण था वहीं कुछ लोग ऐसे भी थे जो भूतों को नहीं मानते थे ।
एक थे सम्पूरन सिंह और दूसरे थे सदानंद नेगी जिनमें भूत के अस्तित्व और गाजियाबाद शहर में होने वाली घटनाओं पर बहस छिड़ गयी और दोनों में इस विषय पर शर्त भी लग गयी ।
और इसी शर्त ने मुम्बई के प्रसिद्ध जासूस मेजर बलवंत को गाजियाबाद आमंत्रित किया और मित्रों इस तरह गाजियाबाद शहर के भूतों वाले इस विचित्र मामले में एक जासूस का पदार्पण होता है।
और जैसे ही जासूस महोदय अपने गवेषणा को आगे बढाते हैं उनके सामने कंजूस पराशर के कमरे का तहखाना और उसमें रखे विचित्र सामान सामने आते हैं।
मेजर हाथ डालकर उस खाने में से चीजें निकालने लगा । बीस शीशियां निकलीं। हर शीशी में छोटी-छोटी हड्डियां थीं। हर शीशी पर एक तिरंगी तस्वीर चिपकी हुई थी। ये हाथ से बनाए गए परिदों और जानवरों के चित्त थे । चिड़िया, छिपकली, मेढक, चुहिया, मैना, तोता, खटमल, मछली और इसी प्रकार के अन्य जानवरों के चित्र । (पृष्ठ-26)
कंजूस पराशर के पास डाक्टर धर्मपाल गुप्ता उसके स्वास्थ्य की देखभाल करने आते थे। पराशर का नौकर रतनू साधुओं के डेरे पर जाता था जहां उसका एक मित्र ज्ञानचंद भी आता था ।
अब कहानी में यहाँ से हत्याओं की गति बढती है और एक-एक पात्र की विचित्र ढंग से मृत्यु हो जाती है। कुछ लोगों को कंजूस पराशर का भूत दिखाई देता है और कुछ को उसकी रहस्यमयी आवाज सुनाई देती है।
'शिलखण्डी से सावधान....'
और इस आवाज के साथ सिक्कों की छनछनाहट गूंजती है। ठीक वैसी ही छनछनाहट जैसी अक्सर कंजूस पराशर अपने कमरे में सिक्के उछाल कर किया करता था।और फिर तो कंजूस पराशर के संपर्क में आने वाले एक-एक व्यक्ति की हत्या होने लगती है।
- "डाक्टर पराशर के रुपये में विचित्र बात है। डाक्टर पराशर का थोड़ा या बहुत रुपया जिसको भी मिला वही मारा गया । डाक्टर गुप्ता ने डाक्टर पराशर के रुपये में से छः हजार रुपये ज्ञानचंद को दिए तो ज्ञानचंद मारा गया । और डाक्टर पराशर के रुपये लेकर डाक्टर गुप्ता मारे गए। क्या तुम्हें इसके पीछे कोई बात दिखाई देती है ?"
वहीं मेजर बलवंत का विचार था की इस केस में मात्र देवकीनंदन पराशर का मकान ही टेढा नहीं था बल्कि बाकी पात्र भी टेढे थे।
-"तुमने ध्यान नहीं दिया सोनिया, इस केस से सम्बन्धित ॥ जो भी व्यक्ति सामने हैं, सभी टेढ़े हैं। सागरचन्द अपनी कुरूपता के कारण दुखी था । विधाता ने उसे बदसूरत बनाकर कितनी बड़ी सजा दी ! संसार में बहुत-से लोगों का जीवन जीवन नहीं होता एक दंड होता है। विद्वान रतनू के जीवन को ही ले लो। एक सीमा से अधिक कजूस आदमी के साथ उसने अपने जीवन के मूल्यवान वर्ष बिता दिए। इसमें भी मुझे कोई पेच दिखाई देता है। इंसान बहुत ही स्वार्थी है। रतनू अकारण ही कंजूस पराशर से इतने वर्षों से चिपटा नहीं रहा होगा। इस दृष्टिकोण से रतनू भी इस केस का एक अनोखा व्यक्ति है ।"
यह कहानी है अनोखे मकान और अनोखे लोगों की और जिसको हल करते हैं प्रसिद्ध जासूस मेजर बलवंत, उसकी टीम और प्रिय कुत्ता क्रोकोडायल।
संवाद:-
कर्नल रंजीत के उपन्यासों में संवाद कोई विशेष नहीं होते पर फिर भी कहीं-कहीं कभी-कभी कुछ अच्छा पढने को मिल ही जाता है।
"स्त्री और पुरुष में बस इतना ही तो अन्तर होता है। पुरुष जहां निःसंकोच अपने मन की बात कह डालता है, स्त्री नहीं कह पाती ।
जासूसी उपन्यासों में जासूस की कभी कोई परिभाषा नहीं मिलती, उसकी कार्यशैली का कहीं विवरण नहीं वर्णित होता है।
जासूसी उपन्यासों में जासूस के विषय में एक ही बात कही जाती है और सभी लेखक उसी एक बात को ही दोहराते रहते हैं, उस से आगे कभी नहीं बढ पाये।
- "जासूसी का पेशा ही ऐसा है जिसमें हर आदमी पर सन्देह करना जरूरी हो जाता है।" मेजर बलवंत ने बड़ा ।
कर्नल रंजीत जिनका वास्तविक नाम ..... और जो मखमूर जलंधरी नाम से शायरी भी करते थे। कर्नल रंजीत के उपन्यासों म मेजर बलवंत अक्सर शे'र कहते हैं और निरर्थक शे'र पर उसके साथी तालियां पीटते हैं।
- "गैस महंगी हो गई रानी तो क्य क्या कर लेंगे हम
अब सिलेंडर पेट ही की गैस से भर लेंगे हम ।"
- यह इमर्जेंसी है दुखियारों के हर दुख का इलाज
लूटकर देखे कोई और खा के देखे कोई ब्याज ।”
प्रशंसा-
मेजर बलवंत की कार्यशैली पर अक्सर लोग टिप्पणियां करते हैं और ज्यादातर उपन्यासों में यह टिप्पणियां एक जैसी ही होती हैं।
'ओह मेजर साहब, आपके अतिरिक्त और कोई इस प्रकार की जटिल पहेली हल नहीं कर सकता ।' (141)
-"इन गहरे भेदों की गहराई तक तो केवल आप ही पहुंच सकते हैं।" इंस्पेक्टर तिवारी ने कहा। (189)
कर्नल रंजीत के उपन्यासों किसी पात्र का वर्णन बहुत अच्छे से किया जाता है। विशेषकर उसके बाहरी आवरण का-
- मेरे कोठी से जाने के बाद यहां कोई आया था राधा ?"
सेठ करोड़ीमल ने अपनी पत्नी को चुप बैठे देखकर पूछा ।
"एक औरत आई थी। गोरा-चिट्टा रंग, भरा हुआ बदन । बहुत ही सुन्दर । यही पैतीस-छत्तीस के आसपास उम्र रही होगी उसकी। उसकी आंखें काफी बड़ी-बड़ी और बहुत ही सुन्दर थीं । बातचीत करने का ढंग भी बहुत अच्छा था ।" सेठानी जी ने कहा ।
यह उपन्यास कब प्रकाशित हुआ यह तो नहीं पता पर उपन्यास का एक कथन इस विषय पर हल्की सी रोशनी अवश्य डालता है।
आप ठीक कहती हैं। देश आजाद हुए तीस-बत्तीस वर्ष बीत गए, देश ने कितनी प्रगति कर ली है; लेकिन हिन्दुस्तान की अधिकांश जनता आज भी अठारहवीं सदी में ही जी रही है।"
सोनिया प्यार-भरी नजरों से मेजर को देखने लगी। उसे सिगार पीता हुआ मेजर बहुत अच्छा लगता था। उस समय मेजर एक दार्शनिक दिखाई देता था । और मेजर के साथी जानते थे कि मेजर केवल उस समय सिगार पीता है, जब किसी केस की गहरी उलझन को सुलझा रहा होता है ।
अफवाह हमारे समाज का अनिवार्य तत्व है। और एक समय था जब भूत प्रेतों से संबंधित अफवाहे ज्यादा फैलती थी। इस उपन्यास में भी कुछ ऐसा ही है।
- लोगों ने यह अफवाह उड़ा दी कि सागरचंद जीवन भर अविवाहित रहा था। उसकी आत्मा स्त्रीके लिए भटकती रही थी। उस मुहल्ले की स्त्रियों ने उससे घृणा करके उसे बहुत सताया था, इसलिए आत्महत्या....
उपन्यास की एक पात्र है मालती जो मेजर बलवंत की सहायक है। मातली और सुनील दोनों एक दूसरे को चाहते हैं। मालती का अतीत दुखद रहा है। मालती यहाँ सुनील से हल्का सा जिक्र करती है।
उसके पलंग पर आ बैठी और उसके सीने से टेक लगाकर बोली, "सुनील, आज मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूं। मैंने अपना अतीत तुमसे छिपाकर नहीं रखा । मैं विवाहिता स्त्री थी। क्या तुम मेरा अतीत जानते हुए भी मुझे स्वीकार करने के लिए तैयार हो ? मैं उम्र में भी तुमसे कुछ बढ़ी हूं।'
क्या आप जानते हैं मालती का अतीत क्या था और वह किस उपन्यास में मेजर बलवंत की टीम का अंग बनी थी?
चलते - चलते-
मेजर ने हलकी-सी सीटी बजाते हुए कहा, "सबसे पहली
बात जो सामने आती है, वह यह है कि न जाने कंजूस डाक्टर पराशर के रुपये पर क्या जादू फूंका हुआ है कि उसका रुपया जिसके पास जाता है, वही मारा जाता है। यह सिलसिला चार वारदातों तक चलता रहा है। यह रुपया डाक्टर गुप्ता के पास पहुंचा । उस रुपये का कुछ हिस्सा ज्ञानचंद को मिला। दोनों का मार डाला गया। यह रुपया ज्ञानचंद ने आचार्यजी को रखने के लिए दिया। आचार्यजी दुश्मन की गोत्री से मारे गए। यह रुपया वह औरत लेकर भागी तो उसे भी गोली से उड़ा दिया गया । यह एक चक्कर है। मैं इसके साथ किसी अंधविश्वास को नहीं जोड़ रहा।"(130)
कर्नल रंजीत द्वारा लिखित 'टेढा मकान' उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री रचना है। उपन्यास अच्छा और रोचक है।
एक अच्छी कहानी उपन्यास में मिलती है जो मनोरंजन में सक्षम है और साथ में मेजर बलवंत का प्रिय अंदाज और रहस्यमयी घटनाएं ।
उपन्यास- टेढा मकान
लेखक - कर्नल रंजीत
पृष्ठ- 195
प्रकाशक- हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली
कर्नल रंजीत के अन्य उपन्यासों की समीक्षा
हत्यारा पुल ।। चीखती चट्टानें ।। वह कौन था ।।
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