Saturday, 29 September 2018

143. कपालकुण्डला- बंकिमचन्द्र चटर्जी

कपालकुण्डला- बंकिमचन्द्र चटर्जी

बंकिमचन्द्र चटर्जी बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ध रचनाकार हैं। इनकी रचनाएँ विभिन्न भाषाओं में‌ अनुदित होती रही हैं।
इनकी एक रचना है, लघु उपन्यास है -कपालकुण्डला। मेरे लिए यह शब्द 'कपालकुण्डला' सदा से ही जिज्ञासा का विषय रहा है की आखिर इस शब्द का अर्थ क्या है।
जब यह उपन्यास मेरे विद्यालय राजकीय उच्च माध्यम विद्यालय-आबू पर्वत (माउंट आबू, सिरोही) के पुस्तकालय में नजर आया तो इसे तुरंत उठा लिया।
जब पढना आरम्भ किया तो बहुत रोचक और दिलचस्प लगा।
आज से अढाई सौ साल पहले माघ महिने में एक नाव यात्रियों से लदी हुई गंगासागर से वापस आ रही थी। उन दिनों समुद्री डाकू तथा पुर्तगाली लुटेरों के डर के कारण कोई भी नाव अकेले न आती थी क्योंकि अकेल आना खतरे से खाली न था। पर वह नाव अकेले ही आ रही थी। गहरे कुहरे तथा रात के अंधकार के कारण मल्लाह दिशा भूलकर गलत रास्ते को चल पड़े और उन्हें यह न पता चला कि किस ओर जा रहे हैं।


नाव रास्ता भटकी गयी और फिर नाव से अलग होकर एक युवक जंगल में रास्ता भटक गया। यह युवक है नव कुमार, उपन्यास का नायक। अनजान व्यक्ति निश्चय ही जंगल में थोडी़ दूर जाने पर ही रास्‍ता भूल जाता है। वही दशा युवक की भी हुयी। (पृष्ठ-08)
इस भटकाव में युवक की मुलाकात एक कापालिक से होती है। गले में रुद्राक्ष की माला थी। मुख पर लंबी दाडी़ तथा सिर पर जटाओं के होने से उसकी शक्ल पहचानना मुश्किल था। (पृष्ठ-06)
उसी कापालिक साधु के माध्यम से उसे वहाँ एक लड़की‌ मिलती। उस लड़की नाम है -कपाल कुण्डला।
ऐसे सुनसान जंगल में वह उस अपूर्व सुंदरी को देखकर दंग रह गया। वह युवती भी अपनी चंचल आंखों से उसे लगातार देखे जा रही थी। (पृष्ठ-8)
यहीं से नव कुमार और कपाल कुण्डला की प्रेम‌कथा आरम्भ होती है। कापालिक साधु तांत्रिक सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नव कुमार की बलि देना चाहता है। लेकिन कपालकुण्डला की मदद से वह, कपालकुण्डला को साथ लेकर शैतान कापालिक के जाल से निकल भागता है।
यह तो है कहानी का एक भाग या यूं‌ कह सकते हैं यह कहानी का मध्यांतर से पूर्व का भाग है। नव कुमार का बचपन में ही रिश्ता तय हो जाता है, लेकिन उस लड़की की विपरीत परिस्थितियों के चलते वह नव कुनार को मिल नहीं पाती। जब नवकुमार को मिलती है तो तब नव कुमार कपालकुण्डला के साथ शांतिपूर्वक वैवाहिक जीवन जी रहा होता है।
एक तरफ नव कुमार का वैवाहिक जीवन है, एक तरफ नव कुमार की बचपन की पूर्व मंगेतर पद्मावती (लुत्फुन्निया) है और एक तरफ शैतान कापालिक है।
लुत्फुन्निया ही नव कुमार और कपालकुण्डला के बीच दूरी पैदा करना चाहती है। "कपालकुण्डला के प्रति उसके पति के मन में घृणा पैदा करके उससे संबंध विच्छेद करना तभी मेरा कार्य सफल होगा।" (पृष्ठ-41)
यह कहानी मूलतः आपसी प्रेम और विश्वास की कहानी है। प्रेम तभी सफल जोतेहै जब तक उसमें विश्वास स्थापित रहता है। जब विश्वास नहीं होता तो प्रेम भी खत्म हो जाता है।
कपालकुण्डला एक संन्यासिन का जीवन जी चुकी है। उसके लिए प्रेम महत्वपूर्ण है, विश्वास महत्वपूर्ण है। जब वैवाहिक जीवन में विश्वास नहीं तो वह वैवाहिक जीवन कैसा। नवकुमार जब कपालकुण्डला पर अविश्वास प्रकट करता है तो वह कहती है- "क्या विश्वास की केवल आपको जरूरत है मुझे नहीं हो सकती? मेरे प्रति आपके दिल में बुरे भाव पैदा होना क्या मेरा अनादर नहीं है?" (पृष्ठ-62)
यही भाव दोनों की वैवाहिक जीवन को खत्म कर देता है।

उपन्यास का आरम्भ एक नाव से होता है जो रास्ता भटक गयी, तब लगता है यह उपन्यास कोई साहसिक समुद्री यात्रा से संबंधित है, बाद में नव कुमार जंगल में भटकता है और कापालिक से मिलता है, तब लगता है यह कोई हाॅरर कथा है। उपन्यास को पढने पर पता चलता है यह एक प्रेम कथा है जो आपसी विश्वास और प्रेम की बात करती है।
उपन्यास में लुत्फुन्निया का संबंध मुगल शासक वर्ग से दिखाया गया है और मुगल शासक सलीम का वर्णन भी उपन्यास में है। यह प्रकरण मेरे विचार से उपन्यास में‌ अनावश्यक सा लगता है। इसकी जगह पद्मावती उर्फ मोती बीबी उर्फ लुत्फुन्निया का वर्णन अन्य तरीक़े से होता तो ज्यादा अच्छा था।

उपन्यास का समापन बहुत ही मार्मिक है जो पाठक के हृदय में एक दर्द की टीस पैदा कर जाता है। उपन्यास आकार में छोटा है। पढने में रोचक और दिलचस्प है
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उपन्यास- कपाल कुण्डला
लेखक- बंकिमचन्द्र चटर्जी
प्रकाशक- सन्मार्ग प्रकाशन, 16 UB, बैग्लो रोड़, दिल्ली-07
वर्ष- 1990
पृष्ठ-


उपन्यास के कुछ अंश यहाँ पढे जा सकते हैं।

https://www.pustak.org/books/bookdetails/3559





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