Tuesday, 29 May 2018

115. देजा वू- कंवल शर्मा

जब तीन अजनबी एक तूफानी रात में‌ मिले...
देजा वू- कंवल शर्मा, थ्रिलर उपन्यास, रोचक, पठनीय।
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कंवल शर्मा वर्तमान उपन्यास जगत के वह सितारे हैंं जिन्होंने अल्प समय में अपनी एक अलग पहचान स्थापित कर ली। अपने पहले उपन्यास 'वन शाॅट' से चर्चा में आये कंवल शर्मा लगातार चर्चा बने रहे।
उनका प्रस्तुत उपन्यास 'देवा वू' भी अपनी एक अलग प्रकार की कहानी के लिए काफी चर्चित रहा। इसके चर्चित होने के भी दो कारण है एक तो उपन्यास का कथानक कुछ अलग होना दूसरा कहानी का अधिकांश पाठकों की समझ से बाहर होना। हालांकि लेखक का यह एक नया प्रयोग था लेकिन लेखक इसे फिल्म के स्तर पर ले गये। जहाँ फिल्म का प्रत्येक दृश्य दर्शक के समक्ष होता है वहीं उपन्यास में लेखक की जिम्मेदारी होती है की वह कुछ बातें पाठक के सामने स्पष्ट करें।
       लेखक का मानना है की पाठक स्वयं इस बात को समझ जायेंगे क्योंकि लेखक उस कहानी को समझ रहा है। लेखक के दिमाग में कहानी चलती है वह पात्रों का रचयिता है लेकिन पाठक तो पात्र एक पाठक है। जब पाठक लेखक से पहले कहानी समझ लेगा तो फिर कहानी‌ में सस्पेंश का क्या अर्थ रह जायेगा।
                                      उपन्यास में कहानी की बात करें तो यह कहानी तीन ऐसे अजनबी लोगों की है जो एक रात अकस्मात मिल जाते हैं। जिनमें से एक राय राय देता है और दो कत्ल के लिए तैयार होते हैं।
      दो अजनबी एक रात इत्तेफाकन एक-दूसरे से टकरा गये और एक दूसरे की जिंदगी आसान करने के लिए एक रेसिप्रोकल मर्डर करने के लिए तैयार हो गये। आगे जब पुलिस का दखल बनता तब वो इस बात पर सिर धुनती रह जाती कि जिसके खिलाफ सबूत थे उसके पास मोटिव नहीं था, और जिसके पास कत्ल का की वजह थी, सबूत उसके खिलाफ गवाही दे रहे थे।
कहीं कोई पेच?
नहीं ।
कोई लूप होल?
नहीं।
परफेक्ट मर्डर प्लान।
दो अजनबी एक दूसरे के लिए कत्ल करेंगे और हमेशा के लिए एक दूसरे से संपर्क समाप्त कर लेंगे।
.....ने सोचा।
फिर सोचा।
क्या वो फंस सकता था? (पृष्ठ-150-51)
       हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि धूमिल की एक कविता है।
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
    
इस उपन्यास में भी एक तीसरा पात्र है  एक काली रात तीन अनजान लोग मजबूरन इकट्ठे आ मिले थे और ....(पृष्ठ-123). जो पहले दो पात्रों को तैयार करता है एक-एक कत्ल के लिए और यहाँ तो एक पात्र इस हद तक तैयार हो जाता है। - "चार कत्ल की सजा भी मौत और" दारेन बुदबुदाया -"पांच कत्ल की सजा भी मौत।" (पृष्ठ-235)
              देजा वू पूर्वाभास पर आधारित एक रोचक मर्डर मिस्ट्री है। कत्ल का होना और फिर कोई सबूत न‌ मिलना यह सामान्यत हो जाता है लेकिन यहाँ जिस के खिलाफ सबूत थे उसके खिलाफ कत्ल की वजह न बनती थी और जिसके पास कत्ल की वजह थी उसके खिलाफ कोई सबूत न थे। एक उलझी हुयी कहानी है। और उसके ज्यादा उलझे हुए वो तीन अजनबी पात्र हैं जो संयोग से एकत्र हो जाते हैं और फिर एक कत्ल का ऐसा जाल बुनते हैं जिसमें पुलिस उलझ कर रह जाती है।
    क्या असली कातिल का पता चल पाता है?
    क्या पुलिस सफल हो पाती है?
    तीन अजनबी कौन थे?
    वे क्यों कत्ल के लिए तैयार हो गये?
    इन प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे देजा वू में।

रोचक दृश्य।
दारेन का होटल अरावली में पृष्ठ संख्या 159-164 का दृश्य।
"तुमने मुझे सलाम किया ?"- दारेन ने कड़क स्वर में पूछा।
" किया साहेब"- दरबान ने फौरन अपने खाली हाथ की उँगलियों को अपने माथे से सैल्यूट की मुद्रा में जोड़ा और बोला -"अभी किया साहब।"
"अब किया।"......
" पहले ।"दरबान गड़बड़ाया "पहले भी किया साहब।"
"पक्का किया।"
"जी साहब।"
........"झूठ तो नहीं बोल रहे ?"
"अरे नहीं साहब।"-.......
" तो तुमने सलाम किया था?"
"बोला तो साहब।"- दरबान पूर्ववत बोला " बराबर किया।"
"फिर मैंने देखा क्यूँ नहीं?" (पृष्ठ-160)
शीर्षक-
            'देजा वू' शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है पूर्वाभास।
             उपन्यास में ऐसा दर्शाया गया है की दारेन को पूर्वाभास होता है लेकिन लेखक कहीं भी इस विषय को स्पष्ट नहीं कर पाया।
      पाठक इसी पूर्वाभास के कारण कहानी को कुछ और समझता है और कहानी कुछ ही निकलती है।
कथन 
कंवल शर्मा अपने दमदार संवाद के लिए जाने जाते हैं। इस उपन्यास में भी इनकी संवाद शैली पठनीय है।
भूखे को जायके की और मक्कार को दुनियावी शर्मो-हया की फिक्र कहाँ होती है। (पृष्ठ-32)
शादी- जो मूंगफली की तरह होती है....कि जब तक बाहरी हिस्सा चटकता नहीं, भीतरी हासिल का पता नहीं चलता। (पृष्ठ-32)
- कुछ औरतें, कुछ खास किस्म की औरतें, बाज दफा बुरी आदतें बन जाती हैं जो आरामदायक बिस्तर की तरह होती हैं जिनमें घुसना, घुसकर पसरना आसान होता है लेकिन फिर बाद में उन्हें छोङना बेहद मुश्किल होता है। (पृष्ठ-73)
- गरीबों की जिंदगी में कहानियां नहीं होती, सिर्फ दर्द होता है। (पृष्ठ-127)
- जिंदगी के सबसे बङे, सबसे माकूल सबक स्कूल में नहीं बल्कि स्कूल से बाहर पढे जाते हैं।(पृष्ठ-136)
- जब लोमङी घायल हो लङखङाती है तब खरगोश भी उस पर छलांगे मार लेती है। (पृष्ठ-146)
उपन्यास में कमियां-
       मुझे लगता है की उपन्यास अपने शीर्षक के साथ उचित न्याय नहीं कर पाया।
- पाठक टैक्सी ड्राइवर बलजीत और इंस्पेक्टर के बीच ऐसा उलझता है की अंत में परेशान हो उठता है।
निष्कर्ष-
प्रस्तुत उपन्यास एक रोचक कथा लिए हुए है। लेकिन उपन्यास में दो तीन जगह पाठक को खीझ सी पैदा होती है कारण की लेखक कुछ बाते स्पष्ट नहीं कर पाया और कुछ किया है तो वह जादूगर के उस पिटारे की तरह जो थैले में से कबूतर निकालते हैं।
एक अच्छी कहानी जो बहुत अच्छी चल रही थी और, और भी बहुत अच्छी हो सकती थी लेकिन लेखक की थोड़ी अतिरिक्त मेहनत न करने के कारण अपना स्वाद खो गयी।
उपन्यास पठनीय है एक बार पढा जा सकता है।
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उपन्यास- देजा वू
लेखक- कंवल शर्मा
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स मेरठ
पृष्ठ- 251
मूल्य- 80₹

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