अधूरी प्यास- दत्त भारती
उपन्यास के प्रथम पृष्ठ से आरम्भ करते हैं इस उपन्यास की समीक्षा ।
फलों की दुकान और मछली की दुकान साथ-साथ थीं । मुझे बालकोनी में खड़े एक घण्टे से अधिक हो गया था। दोनों ग्राहकों के इन्तज़ार में बैठे थे और ग्राहक नज़र न आ रहा था ।
ग्राहक आता भी कहां से ? अभी सिर्फ सवा आठ बजे थे । शाम अभी भीगी भी नहीं थी। अभी तो चिराग़ जले थे और मयखाने आबाद होने शुरू हुए थे। इसी लिए वह सिर्फ दुकान सजा कर ही बैठ सके थे। फल बेचने वाला और मछली बेचने वाला दोनों ही भारी भरकम थे और उन्होंने तोंद छोड़ रखी थी ।
मैंने तो सुना था कि तोंद सिर्फ बनिए ही छोड़ते हैं। लेकिन यह फल बेचने वाला और मछली बेचने वाला किस तरह के पूंजीपति थे जिन्होंने तोंद छोड़ दी थी।
दोनों दुकानें पटड़ी पर थीं। यानी बात यह थी कि कमेटी और पुलिस से मिलकर 'दुकानें' जमाए बैठे थे । बाज़ारे हुस्न की तवायफों की तरह सजधज कर दुकान सजाकर बैठे थे ।
मैंने गिलास उठाकर खाली कर दिया और नया पैग लेने के लिए अपने कमरे की तरफ बढ़ गया । मैंने पंग बनाया और गिलास उठाकर फिर अपनी जगह पर आ खड़ा हुआ । फलों की दुकान के आगे एक कार खड़ी थी। उसकी पीठ मेरी ओर थी। बाईं तरफ की खिड़की में एक बाजू बाहर निकला हुआ था। सफेद, नर्म और शराब की बोतल की भाँति । मैंने औरत को कभी भी पूर्ण रूप से पंसद नहीं किया। उसके विभिन्न अंग आकर्षक हो सकते हैं। लेकिन कोई भी औरत मुझे ऐसी नहीं मिली जो सिर से पांव तक सुन्दर हो । (अधूरी प्यास- दत्त भारती, प्रथम पृष्ठ)
दत्त भारती जी उपन्यास साहित्य में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके उपन्यास साहित्य प्रेमियों में आज भी काफी पसंद किये जाते रहे हैं। इनका एक कारण है उनके कथानक काफी अलग होते थे, कुछ हटकर कहानियां होती थी और उनका कथा कहने का ढंग भी रोचक रहा है।
इन दिनों दत्त भारती जी के कुछ उपन्यास मिले लेकिन उनमें से अभी जो पढा वह उपन्यास है 'अधूरी प्यास' । सर्वप्रथम तो आप उपन्यास के शीर्षक को पढकर कहीं भ्रमित न हों । यह तो एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसके सपने पूरे भी हुये और बहुत कुछ अधूरा भी रहा ।
चलो, आरम्भ करते हैं एक नौजवान की कहानी उसी की जुबानी ।
और अब इस अजनबी शहर, अजनबी लोगों में, अजनबी होटल के कमरे में व्हिस्की पी रहा हूँ जो मेरी जिंदगी बन चुकी है।
मैं अपने बारे में भी नहीं जानता हू कि मैं कौन हूँ ? लेकिन कभी ऐसा हुआ है।
जहां मैं पैदा हुआ और जहां मेरा बचपन गुजरा, वह एक अच्छा खासा मकान था। मेरे कई बहिन भाई थे । खाता पीन घराना था। पिता की पर्याप्त आय थी और जीवन बड़े मजे से गुजर रहा था ।(उपन्यास अंश)
यह कहानी है एक ऐसे नौजवान की जिसे जीवन में स्नेह नहीं मिला । कभी- कभार ऐसा देखने को भी मिलता है की बाल मन या तो विद्रोह पत उतर आता है या भी वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है। परिवार का वातावरण ही बच्चे को आगे बढने में मदद करता है और यह वातावरण अगर स्वस्थ न हो तब जीवन बहुत कष्टमय हो जाता है। इस संदर्भ में मुझे मनोज वाजपेयी साहब की फिल्म 'गली गुलियां' याद आती है।
यहां भी कथा नायक का जीवन कष्टमय था-
मेरी माता जी का देहान्त, जब मैं केवल छः बरस का था। मां के स्नेह, प्यार से वंचित होने के बाद मुझे प्यार शब्द से चिढ़ हो गई थी। पिता जी की मार ने मेरे अन्दर विद्रोह की भावना पैदा कर दी थी।
छोटी अवस्था में घर से भागा जल सेना में गया वहा से लौटा तो एक लड़की से प्यार हो गया। लेकिन खाली जेब से प्यार कहां तक चलता है। प्यार के लिए जेब भरी होनी चाहिए अन्यथा प्यार एक स्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है।
"जनक । तुमने नौकरी की तलाश की ?"
मुझे हर बार झूठ बोलना पड़ता- "हां आज भी दो जगह दरख्वास्त भेजी है।"
"...बस तुम दरख्वास्त ही भेजते रहा करो। और जवाब कभी आएगा ही नहीं।"
मैं उस सुन्दर लड़की से जुदा न होना चाहता था। आखिर इस बहस की कोई कीसत तो अदा न करनी पड़ती थी।
कहानी यहीं से आरम्भ होती है । खाली जेब से प्यार का निर्वाह न हो सका और कथा नायक अपने प्यार, परिवार और घर से दूर निकल गया। उस काल्पनिक कथानायक की तरह जो घर से इसलिए निकलते हैं की कुछ कमाकर, कुछ बनकर घर लौटते हैं। पर यहां कथानायक उस अवस्था में न लौट सका। वह तो एक अलग ही दुनिया का निवासी बन गया ।
मुम्बई को सपनों का शहर कहा जाता है। लोग यहां अपने सपनों के साथ आते हैं, कुछ लोगों के सपने पूरे होते हैं तो कुछ लोगों के अधूरे रह जाते हैं। अपना कथानायक (जनक) भी गीतकार बनने के सपने लिए मुम्बई आया । यहां भी उसे सफलता और असफलता के बीच निरंतर संघर्ष करना पड़ा। सफलता पर लोग की मदद भी की और लोगों ने उसकी सफलता का गलत फायदा भी उठाया। उपन्यास का एक प्रसंग जहां कथानायक को एक गीत का पारिश्रमिक मिलता है और उस पारिश्रमिक का हश्र एक कड़वी कहानी व्यक्त करता हैं । यह हमारे समाज का एक ऐसा प्रसंग है जो घृणा और दया एक साथ मन में पैदा करता है।
बचपन में स्नेह से वंचित, फिर प्रेम में असफलता, फिर जीवन में संघर्ष और धोखा आदि एक व्यक्ति का सारा जीवन और विचारधारा बदलने में सक्षम होते हैं । कथानायक का जीवन भी बदला अब उसके सत्य और ईमानदारी ज्यादा महत्व नहीं रखते और कथानायक अब विभिन्न कम्पनियों के एजेंटों का अघोषित 'राजा' है।
यह प्रसंग कथानायक के जीवन का वह समय दर्शाता जब वह अथाह पैसा कमाता है। उसका नाम है, पैसा है और आराम है। यार दोस्त है, महफिलें हैं, शराब है, शबाब है।
और विवाह के पश्चात के जीवन में एक बड़ा बदलाव आता है और यहीं कथानायक को अपनॆ भाई की याद आती है। प्रथम प्रेम के पश्चात एक लम्बे अंतराल बाद कथानायक जीवन में ठहराव चाहता है, प्रेम चाहता है और परिवार चाहता है, वह शादी करना चाहता है और इसलिए अपने भाई से बात करता है।
और भाई का उत्तर देखें-
"देखो जनक ! शादी एक आत्मा का सम्बन्ध है और जो औरतें घर चलाती हैं, बीवी बनती हैं, उनका पालन पोषण उसी रोशनी में होता है। वह पति को ढूँढती नहीं हैं। तुम आज तक मुहब्बत, प्यार और स्नेह से वंचित रहे हो और अब तुम ऐसी औरत से यह सब कुछ हासिल करना चाहते हो जो औरत नहीं टाईपिस्ट है। यह सरासर फ्राड है। आज तक तुमने औरत को केवल बिस्तर की शोभा समझा है एक रिश्ता नहीं। इस शादी के बाद तुम इस लड़की से उसी तरह पेश आओगे। शादी आत्मा का सम्बन्ध होने के अतिरिक्त वन्धन है और वह बन्धन एक मैजिस्ट्रेट या एक जज पैदा नहीं करते। फिर तुम्हारी सभ्यता में धर्म का दखल रहा है। तुम अंग्रेजी संस्कृति के पुजारी हो या भारतीय ? तुम व्हिस्की पीते हो या दूध ? लेकिन तुम्हारे दिमाग में अभी से यह बात घर कर चुकी है कि अगर उसने बेटे का नाम क्लाडियस रखा तो तुम उसे कालीदास कहकर पुकारोगे ।"
विवाह और उसके पश्चात जल्दी ही पति- पत्नी में कलह आरम्भ हो जाती और उनके मध्य एक छोटी बच्ची है। जहां कथानायक अपने बच्ची से अथाह प्रेम करता है वहीं उसकी पत्नी बच्ची (डोरौथी) के माध्यम से कथानायक पर दवाब बनाती है।
एक परिवार का बिखराव कथानायक को खत्म कर देता है। उसका पैसा, मित्रता, नाम- सम्मान सब खत्म हो जाता है। और वह एक शराबी बनकर जीवन व्यतीत करने को विवश है।
यह कहानी हमारे परिवेश के बहुत से घटक प्रस्तुत करती है। कभी हास्य- कभी उदासी, कभी अपनापन- कभी परायापन और भी न जाने क्या-क्या ।
जनक को भी अपने जीवन में बहुत कुछ झेलना पड़ा था ।लेकिन जीवन की कोई इच्छा स्थायित्व न ले सकी । मां के स्नेह से वंचित कथानायक अंत तक स्नेह से वंचित रहता है ।
यह कहानी हमें यह भी सिखाती है की पैसा ही सब कुछ नहीं होता। एक समय हमें चाहे यह प्रतीत हो की पैसा महत्वपूर्ण है लेकिन वास्तविकता में परिवार और शांति ही महत्वपूर्ण होती है।
उपन्यास का अंत दुखात्मक है जो मन में एक टीस छोड़ जाता है । बाप का बेटी के प्रति प्रेम मन को छू लेने वाला है।
दत्त भारती जी का उपन्यास 'अधूरी प्यास' प्रथम पुरुष में लिखा गया एक संवेदनशील उपन्यास है।
उपन्यास- अधूरी प्यास
लेखक- दत्त भारती
पृष्ठ- 191
प्रकाशक- सुमन पॉकेट बुक्स दिल्ली

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