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Wednesday, 8 February 2017

19. औरत एक अंतहीन व्यथा

औरत एक अंतहीन व्यथा- जैसी कही और सुनी गयी।
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एक स्त्री संगठन पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ गाँवों में औरतों की चेतना विकसित करने और संगठन बनाने के लिए प्रयासरत है।
        इस संगठन के निमंत्रण पर जो लङकियां यहा काम करने आयी उन्हीं तीन लङकियों के वहाँ देखे व महसूस किये गये कठोर यथार्थ का जीवंत वर्णन है यह लघु पुस्तक।
        शुरुआती दौर में इन छात्रा कर्मियों को दुविधा, भय, संशय, लोगों के प्रति अविश्वास और फिर भरोसा और प्यार; अपने आप अविश्वास और फिर बढता भरोसा- ऐसी ही ढेर सारी मन:स्थितियों से गुजरना पङा। जैसी कही और सुनी गयी, जैसा महसूस किया गया, उसी का एक सहज, अनपढ, अनगढ विवरण इस संकलन में मौजूद है।
शिक्षा के अभाव में इन गावों की क्या स्थिति है, विशेषकर महिलाओं की तो इस नन्हीं पुस्तक को पढकर जाना जा सकता है।
  बच्चे, औरतें बीमारी के कारण, डाक्टरी सुविधा न होने के कारण मर जाते हैं। अस्पताल है भी तो गाँव से दूर कस्बे में है।
  महिलाएं अपना पूर्ण जीवन घर की चारदीवारी के अंदर घुट-घुट कर खत्म कर लेती हैं, उनको किसी प्रकार की कोई आजादी नहीं
       गाँव की एक बहू्, जब वह ससुराल आयी तो 5-6 दिन टाॅयलेट नहीं गयी और इसीलिये वह खाना नहीं खाती थी कि दिन में टाॅयलेट लग जाएगा तो वह कहां जायेगी?
यह किसी एक महिला की स्थिति नहीं है, ऐसी न जाने कितनी महिलाएं और भी हैं जो इस प्रकार की समस्याओं से गुजर रही हैं। वे घर के अंदर एक तरह से कैद हैं।
  अब कौन पूरी उम्र घर के अंदर कैद होकर रह सकता है। अगर घर बाहर निकलना है तो......
यहाँ कि महिलाओं की मजबूरी है की वो मात्र बाहर का वातावरण देखने के लिए इस प्रकार के निर्णय लेती हैं।
-एक लङकी ने यहाँ तक कह दिया कि हम लोग बच्चा इदलिए जल्दी पैदा करते हैं कि उसी के बहाने हमको बाहर निकलने को मिलेगा।
इस घुटन से परेशान एक लङकी कहती है-
"मन करता है आत्महत्या कर लूँ, लेकिन इसलिए नहीं करती कि गाँव वाले समझेंगे कि कोई गलत काम किया है।"

  क्या हम कह सकते हैं स्त्री आज आजाद है। पुरुषवादी सोच के चलते आज भी, विज्ञान के युग में स्त्री की यह दयनीय स्थिति है। इसका एक मात्र कारण गरीबी या अशिक्षा नहीं है। इसका कारण है पुरुष की मानसिकता भी है, जो औरत को कभी इंसान नहीं समझता-
गरीबी के कारण यहाँ बहुत सी समस्याएं हैं लेकिन औरतों को तो उसके साथ-साथ औरत होने से भी बहुत समस्याएं है।
एक कार्यकर्ता सई ने तो बहुत ही स्टिक शब्दों में अपनी बात कही है।
" औरत को तो समाज में इंसान ही नहीं समझा जाता उसकी लङाई एक इंसान बनने की है"-  30 जनवरी,2003
और ऐसा नहीं है के औरत पुरुष की इस मानसिकता से संघर्ष नहीं कर रही, वह लङाई लङ रही है-
- आज औरत की लङाई जो हम कह रहे हैं,.......दिमागी गुलामी को तोङने की लङाई हम लङना चाहते हैं।
और इस समस्या का समाधान तभी संभव है जब नारी एक हो, उनका अपना नारीवादी संगठन हो-
- जब देश की आधी आबादी औरतें अपना संगठन बनाएंगी तो बहुत बङी ताकत औरतों को अपनी लङाई में मिल जाएगी या तभी सही अर्थों में समाज परिवर्तन होगा।
एक अभियान में शामिल एक कार्यकर्ता वसुधा तो इन गाँववासियों से आंतरिक लगाव महसूस करने लग जाती है-
"मेरे लिए हर नया गाँव जाते समय ससुराल और छोङते समय मायके की तरह रहा"-
यहाँ मात्र गरीबी या स्वास्थ्य ही समस्या नहीं, यहाँ जातिवाद भी लोगों के अंदर तक बैठा है। वक्त बदल गया लेकिन लोगों की मानसिकता आज भी वही है।
  आज भी ब्राह्मण या ऊपरी जाति के लोग दलितों को अछूत मानते हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ गावों की महिलाओं की स्थिति जानने पहुँच एक संगठन की तीन लङकियां वसुधा, स ई और वंदना ने जो वहाँ देखा उसका उन्होंने जीवंत वर्णन किया है। वहाँ की औरतों की जो दयनीय स्थिति है उसका प्रभाव पाठक के हृदय को अंदर तक कचोटता है।
इन गाँवों की आर्थिक, स्वास्थ्य, जातिवाद, अशिक्षा के साथ-साथ वहाँ की सामाजिक स्थिति का वर्णन भी मिलता है।
अगर आप महिलाओं की स्थिति को जानना चाहते हैं तो यह किताब अवश्य पढें-
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पुस्तक- औरत एक अंतहीन व्यथा- जैसी कही और सुनी गयी।
संपादन- उज्ज्वला म्हात्रे
प्रकाशक- गार्गी प्रकाशन-दिल्ली
ISBN- 81-87772-16-6
प्रथम संस्करण- 2003
पृष्ठ-60.
मूल्य-10₹

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